Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 64 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ते ज॑ज्ञिरे दि॒व ऋ॒ष्वास॑ उ॒क्षणो॑ रु॒द्रस्य॒ मर्या॒ असु॑रा अरे॒पसः॑। पा॒व॒कासः॒ शुच॑यः॒ सूर्या॑इव॒ सत्वा॑नो॒ न द्र॒प्सिनो॑ घो॒रव॑र्पसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । ज॒ज्ञि॒रे॒ । दि॒वः । ऋ॒ष्वासः॑ । उ॒क्षणः॑ । रु॒द्रस्य॑ । मर्या॑ । असु॑राः । अ॒रे॒पसः॑ । पा॒व॒कासः॒ । शुच॑यः । सूर्याः॑ऽइव । सत्वा॑नः । न । द्र॒प्सिनः॑ । घो॒रऽव॑र्पसः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते जज्ञिरे दिव ऋष्वास उक्षणो रुद्रस्य मर्या असुरा अरेपसः। पावकासः शुचयः सूर्याइव सत्वानो न द्रप्सिनो घोरवर्पसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। जज्ञिरे। दिवः। ऋष्वासः। उक्षणः। रुद्रस्य। मर्या। असुराः। अरेपसः। पावकासः। शुचयः। सूर्याःऽइव। सत्वानः। न। द्रप्सिनः। घोरऽवर्पसः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते वायवः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! युष्माभिर्ये रुद्रस्य जीवस्य प्राणसमुदायस्य वा सम्बन्धिनो वायवो दिवो जज्ञिरे जायन्ते। ये सूर्य्याइव ऋष्वास उक्षणः पावकासः शुचयो वर्त्तन्ते। ये सत्वानो नेव मर्या असुरा अरेपसो द्रप्सिनो घोरवर्पसः सन्ति तेषां सङ्गेन विद्यादिशुभगुणा गृह्यन्ताम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (ते) वायव इव (जज्ञिरे) प्रादुर्भवन्ति (दिवः) प्रकाशात् (ऋष्वासः) ज्ञानहेतवः (उक्षणः) सेचनकर्त्तारः। अत्र वा षपूर्वस्य निगमे। (अष्टा०६.४.९) अनेन दीर्घनिषेधः। (रुद्रस्य) समष्टिप्राणस्य (मर्याः) मरणधर्मकाः (असुराः) प्रकाशरहिताः (अरेपसः) अव्यक्तशब्दा निष्पापाः (पावकासः) पवित्रकारकाः (शुचयः) पवित्रा (सूर्य्याइव) सूर्य्यस्य किरणा इव (सत्वानः) बलपराक्रमप्राणिभूतगणाः (न) (इव) (द्रप्सिनः) बहुद्रप्सो विविधो मोहोऽस्ति येषु ते (घोरवर्पसः) घोरं वर्पो रूपं येषान्ते ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ। यथेश्वरसृष्टौ सिंहहस्तिमनुष्यादयो बलवन्तः सन्ति तथा वायवो वर्त्तन्ते। यथा सूर्यकिरणाः पवित्रकारकाः सन्ति तथैव वायवोऽपि। नह्येतयोर्विना रोगाऽऽरोग्यमरणजन्मादयो व्यवहाराः सम्भवितुं शक्यास्तस्मान्मनुष्यैरेतेषां गुणान् विज्ञाय सर्वेषु कार्येषु यथावत्संप्रयोगाः कार्याः ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि जो (रुद्रस्य) जीव वा प्राण के सम्बन्धी पवन (दिवः) प्रकाश से (जज्ञिरे) उत्पन्न होते हैं जो (सूर्याइव) सूर्य के किरणों के समान (ऋष्वासः) ज्ञान के हेतु (उक्षणः) सेचन और (पावकासः) पवित्र करनेवाले (शुचयः) शुद्ध जो (सत्वानः) बल पराक्रमवाले प्राणियों के (न) समान (मर्याः) मरणधर्मयुक्त (असुराः) प्रकाशरहित (अरेपसः) पापों से पृथक् (द्रप्सिनः) नाना प्रकार के मोहों से युक्त (घोरवर्पसः) भयङ्कर वायु के हैं (ते) उन्हीं के संग से विद्यादि उत्तम गुणों का ग्रहण करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर की सृष्टि में सिंह, हाथी और मनुष्य आदि प्राणी बलवान् होते हैं, वैसे वायु भी है। जैसे सूर्य की किरणें पवित्र करनेवाली हैं, वैसे वायु भी। इन दोनों के बिना, रोग, रोग का नाश, मरण और जन्म आदि व्यवहार नहीं हो सकते। इससे मनुष्यों को चाहिये कि इनके गुणों को जानके सब कार्यों में यथावत् संप्रयोग करें ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    देवः - घोरवर्पसः [प्रकाशमय - तेजस्वी]

    पदार्थ

    १. (ते) = [गतमन्त्र के अनुसार साधना करनेवाले] वे लोग (जज्ञिरे) = विकसित होकर निम्न विशेषणों से युक्त बन जाते हैं - [क] (दिवः) = प्रकाशमय । दैनिक स्वाध्याय के कारण इनका जीवन ज्ञान की ज्योति से जगमगा उठता है । [ख] (ऋष्वासः) इनका जीवन दर्शनीय होता है अथवा ये [ऋष् - to go तथा to kill] गतिशीलता के द्वारा बुराइयों का नाश करनेवाले होते हैं । [ग] (उक्षणः) = अपनी गतिशीलता से सबपर सुखों का सेचन करनेवाले होते हैं । [घ] (रुद्रस्य मर्याः) = ये ज्ञान के देनेवाले [रुत्+र] प्रभु के बन्दे होते हैं । ये प्रकृति की ओर बहुत झुके हुए नहीं होते । [ङ] (असुराः) = सर्वत्र प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाले बनते हैं । [च] (अरेपसः) = इनका जीवन रेपस्, अर्थात् दोषों से रहित होता है । [छ] (पावकासः) = अपने शरीर व निवासस्थानों को पवित्र रखनेवाले होते हैं । [ज] (शुचयः) = संसार में धन को पवित्र साधनों से ही उपार्जित करते हैं - “योऽर्थे शुचिर्हि च शुचिर्न मद्वारिशुचिः शुचिः” । [झ] (सूर्याः इव) = ये सूर्य की भाँति होते हैं, इनके जीवन से औरों को प्रकाश प्राप्त होता है [ञ] (सत्वानः) = सत्त्वगुण - सम्पन्न होते हैं ; [ट] (न द्रप्सिनः) = [दृप् - मोहने] मोह से ऊपर उठे हुए और [ठ] (घोरवर्पसः) = तेजस्वी रूपवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के उपासकों का जीवन मन्त्रोक्त बारह गुणों से युक्त होता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दीक्षा द्वारा बलवान् होने का उपदेश । वीर सैनिकों और व्रतनिष्ट ब्रह्मचारियों को उपदेश ।

    भावार्थ

    (ते) वे वायुओं के समान ही प्रबल, वीर और विद्वान् जन (दिवः) सूर्य के प्रकाश से प्रेरित होकर जिस प्रकार वायुएं प्रबल हो जाती हैं उसी प्रकार ज्ञान प्रकाश से युक्त आचार्य और तेजस्वी राजा या सेनापति से दीक्षित और प्रेरित होकर ( ऋष्यासः ) अन्यों को ज्ञान देने वाले, विद्वान् तथा शत्रुओं को मारने वाले अति उग्र हो जाते हैं। और (रुद्रस्य) समष्टि प्राण के अधीन रह कर ज्ञानोपदेष्टा के शिष्य भी ( उक्षणः ) ज्ञानसुखों के वर्षक एवं वीर्यवान् वृषभों के समान विशाल काय वाले और ( रुद्रस्य उक्षणः) वीर जन शत्रुओं को रुलानेवाले सेनापति के अधीन मेघ के समान शस्त्रास्त्रों के वर्षण करने वाले हों। वे (मर्याः) मर्द, जवान ( असुराः ) बलवान्, प्राणों में रमण करने वाले, प्राणायाम के अभ्यासी और (असुराः) शत्रु सेनाओं को उखाड़ फेंकनेवाले, (अरेपसः) पापरहित, स्वच्छचित्त, ( पावकासः ) किरणों और अग्नि के समान तेजस्वी, पवित्रकारक, ( शुचयः ) मन, वाणी, काय, तीनों में शुद्ध, (सूर्याः इव ) सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी ( सत्वानः न ) हस्ती आदि बलवान् प्राणियों के समान बलवान् और सात्विक गुणों वाले, (द्रप्सिनः) वीर्यवान्, मेघों के समान ज्ञान-जलों के वर्षक (घोरवर्षसः) भयानक, या शान्तिदायक स्वरूपवाले, भयप्रद और अभय ( जज्ञिरे ) बनकर रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर भी उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! युष्माभिः ये रुद्रस्य जीवस्य प्राणसमुदायस्य वा सम्बन्धिनः वायवः दिवः {ते} जज्ञिरे जायन्ते ये सूर्य्याः इव ऋष्वास उक्षणः पावकासः शुचयः वर्त्तन्ते ये सत्वानः न इव मर्याः असुरा अरेपसः द्रप्सिनः घोरवर्पसः सन्ति तेषां सङ्गेन विद्यादि शुभगुणाः गृह्यन्ताम् ॥२॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (युष्माभिः)=तुम्हारे द्वारा, (ये)=जो, (रुद्रस्य) समष्टिप्राणस्य=संसार के प्राणों के, (जीवस्य)= जीवों के, (वा)=अथवा, (प्राणसमुदायस्य) =प्राणियों के समुदाय के, (सम्बन्धिनः)=सम्बन्धी, (वायवः)= वायु, (दिवः) प्रकाशात्= प्रकाश से, {ते} वायव इव= वायुओं के समान, (जज्ञिरे) प्रादुर्भवन्ति-जायन्ते =उत्पन्न होते हैं, (ये)=जो, (सूर्य्याइव) सूर्य्यस्य किरणा इव=सूर्य की किरणों के समान, (ऋष्वासः) ज्ञानहेतवः=ज्ञान के हेतु होते हैं, (उक्षणः) सेचनकर्त्तारः=सिंचन करनेवाले और, (पावकासः) पवित्रकारकाः=पवित्र करनेवाले, (शुचयः) पवित्रा= पवित्र, (वर्त्तन्ते)=हो जाते हैं, (ये) =जो, (सत्वानः) बलपराक्रमप्राणिभूतगणाः=बल और पराक्रम वाले प्राणियों के, (न) इव= समान, (मर्याः) मरणधर्मकाः=मृत्यु को प्राप्त होनेवाले और, (असुराः) प्रकाशरहिताः =ज्ञान से रहित, (अरेपसः) अव्यक्तशब्दा निष्पापाः= शब्दों से व्यक्त न होनेवाले और पाप रहित, (द्रप्सिनः) बहुद्रप्सो विविधो मोहोऽस्ति येषु ते=विविध मोहवाले, (घोरवर्पसः) घोरं वर्पो रूपं येषान्ते=भयंकर रूपवाले, (सन्ति)=हैं, (तेषाम्)=उनकी, (सङ्गेन)=संगति से, (विद्यादि)= विद्या आदि, (शुभगुणाः)= शुभ गुणों को, (गृह्यन्ताम्)=ग्रहण करना चाहिए ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर की सृष्टि में शेर, हाथी और मनुष्य आदि बलवान होते हैं, वैसे ही वायु भी होते हैं। जैसे सूर्य की किरणें पवित्र करनेवाली हैं, वैसे वायु भी है। इन दोनों के विना, आरोग्य, मृत्यु और जन्म आदि का होना सम्भव नहीं है। इसलिये मनुष्यों को इनके गुणों को जान करके सब कार्यों में यथावत् उचित रूप से प्रयोग करना चाहिए ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (युष्माभिः) तुम्हारे द्वारा, (ये) जो (रुद्रस्य) संसार के प्राणों के [अर्थात्] (जीवस्य) जीवों के, (वा) अथवा (प्राणसमुदायस्य) प्राणियों के समुदाय से (सम्बन्धिनः) सम्बन्धित (वायवः) वायु (दिवः) प्रकाश से {ते} वायुओं के समान (जज्ञिरे) उत्पन्न होते हैं। (ये) जो (सूर्य्याइव) सूर्य की किरणों के समान (ऋष्वासः) ज्ञान के हेतु होते हैं। (उक्षणः) सिंचन करनेवाले और (पावकासः) पवित्र करनेवाले, (शुचयः) पवित्र (वर्त्तन्ते) हो जाते हैं। (ये) जो (सत्वानः) बल और पराक्रम वाले प्राणियों के (न) समान (मर्याः) मृत्यु को प्राप्त होनेवाले और (असुराः) ज्ञान से रहित, (अरेपसः) शब्दों से व्यक्त न होनेवाले और पाप रहित, (द्रप्सिनः) विविध मोहवाले और (घोरवर्पसः) भयंकर रूपवाले (सन्ति) हैं, (तेषाम्) उनकी (सङ्गेन) संगति से (विद्यादि) विद्या आदि (शुभगुणाः) शुभ गुणों को (गृह्यन्ताम्) अपनाना चाहिए ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ते) वायव इव (जज्ञिरे) प्रादुर्भवन्ति (दिवः) प्रकाशात् (ऋष्वासः) ज्ञानहेतवः (उक्षणः) सेचनकर्त्तारः। अत्र वा षपूर्वस्य निगमे। (अष्टा०६.४.९) अनेन दीर्घनिषेधः। (रुद्रस्य) समष्टिप्राणस्य (मर्याः) मरणधर्मकाः (असुराः) प्रकाशरहिताः (अरेपसः) अव्यक्तशब्दा निष्पापाः (पावकासः) पवित्रकारकाः (शुचयः) पवित्रा (सूर्य्याइव) सूर्य्यस्य किरणा इव (सत्वानः) बलपराक्रमप्राणिभूतगणाः (न) (इव) (द्रप्सिनः) बहुद्रप्सो विविधो मोहोऽस्ति येषु ते (घोरवर्पसः) घोरं वर्पो रूपं येषान्ते ॥२॥ विषयः- पुनस्ते वायवः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! युष्माभिर्ये रुद्रस्य जीवस्य प्राणसमुदायस्य वा सम्बन्धिनो वायवो दिवो जज्ञिरे जायन्ते। ये सूर्य्याइव ऋष्वास उक्षणः पावकासः शुचयो वर्त्तन्ते। ये सत्वानो नेव मर्या असुरा अरेपसो द्रप्सिनो घोरवर्पसः सन्ति तेषां सङ्गेन विद्यादिशुभगुणा गृह्यन्ताम् ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारौ। यथेश्वरसृष्टौ सिंहहस्तिमनुष्यादयो बलवन्तः सन्ति तथा वायवो वर्त्तन्ते। यथा सूर्यकिरणाः पवित्रकारकाः सन्ति तथैव वायवोऽपि। नह्येतयोर्विना रोगाऽऽरोग्यमरणजन्मादयो व्यवहाराः सम्भवितुं शक्यास्तस्मान्मनुष्यैरेतेषां गुणान् विज्ञाय सर्वेषु कार्येषु यथावत्संप्रयोगाः कार्याः ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसे ईश्वराच्या सृष्टीत सिंह, हत्ती व माणसे इत्यादी प्राणी बलवान असतात तसाच वायूही आहे. सूर्याची किरणे जशी पवित्र करतात तसाच वायू आहे. या दोन्हीशिवाय रोग, रोगाचा नाश, मरण, जन्म इत्यादी व्यवहार होऊ शकत नाहीत. यामुळे माणसांनी त्यांचे गुण जाणून सर्व कार्यात यथायोग्य संप्रयोग करावा. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Those Maruts, waves of winds, children of the light of heaven, reveal the light of knowledge. Friends of humanity, they are the breath of Rudra, cosmic energy of prana, generous, inspiring, pure and unpolluted, pure and purifying, brilliant as sunbeams, replete with vitality, carrying particles of living energy, they are awful and sublime in form.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The winds which belong to the collective Prana are born from the sky. In the same manner, brave and learned persons are born from the light of knowledge given by great preceptors. They are radiant as the rays of the sun, virile, purifiers, and themselves pure. They are conquerors of their foes, pure from sin under the guidance of an Acharya, or Commander-in-chief of the Army. They are manly and vigorous, rainers of knowledge like the clouds, and mighty like the elephants, dreadful in their forms for the wicked.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रुद्रस्य) समष्टिप्राणस्य | = Of the Collective Prana or vital energy. (अरेपसः) निष्पापा: अव्यक्तशब्दाश्च = Sinless and of indistinct sound. (घोरवर्षस:) घोरं वर्षः रूपं येषां ते = Of fearful form.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As there are mighty lions, elephants and oxen in the creation of God, so are these powerful winds. As the rays of the sun purify, so do winds also. Without the sun and the winds, it is not possible to have health or disease, birth and death etc. Therefore men should know thoroughly the attributes of both of them (the sun and winds) and should utilise them properly in their works.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Even then, how the said air exists has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yuṣmābhiḥ) =by you, (ye) those, (rudrasya) =of the souls of the world, [arthāt]= that is, (jīvasya) =of living beings, (vā) =or, (prāṇasamudāyasya) =from the community of living beings, (sambandhinaḥ)=related,(vāyavaḥ)=air, (divaḥ) =by light, {te} =like air, (jajñire) =are generated, (ye) =those, (sūryyāiva) =like Sun rays, (ṛṣvāsaḥ) =are cause of knowledge, (ukṣaṇaḥ)=irrigators and, (pāvakāsaḥ)=purifier, (śucayaḥ) =pure, (varttante) =become, (ye) =those, (satvānaḥ)=of creatures of strength and might, (na) =like, (maryāḥ)=about to die and, (asurāḥ)= devoid of knowledge, (arepasaḥ) =Inexpressible in words and without sin, (drapsinaḥ)=having diverse infatuations and, (ghoravarpasaḥ)=fierce looking, (santi) =are, (teṣām) =their, (saṅgena) =by company, (vidyādi) =knowledge etc., (śubhaguṇāḥ) =to good virtues, (gṛhyantām)= should adopt.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Through you, those who are born like winds from the air light belonging to the life of the world, i.e. the living beings, or the community of living beings. Which are for knowledge like the rays of the Sun. Those who irrigate and purify, become pure. One should acquire the auspicious qualities like knowledge etc. by the company of those who are liable to death like the creatures of strength and bravery and who are devoid of knowledge, who cannot be expressed in words and who are sinless, who have various attractions and are of terrible appearance. Good qualities like knowledge etc. should be adopted by their association.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile at two places in this mantra. Just as lions, elephants and humans etc. are powerful in God's creation, so too are the winds. Just as the Sun's rays are purifying, so is air. Without these two, health, death and birth etc. are not possible. Therefore, humans should know their qualities and use them appropriately in all tasks.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top