ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 9
रोद॑सी॒ आ व॑दता गणश्रियो॒ नृषा॑चः शूराः॒ शव॒साहि॑मन्यवः। आ व॒न्धुरे॑ष्व॒मति॒र्न द॑र्श॒ता वि॒द्युन्न त॑स्थौ मरुतो॒ रथे॑षु वः ॥
स्वर सहित पद पाठरोद॑सी॒ इति॑ । आ । व॒द॒त॒ । ग॒ण॒ऽश्रि॒यः॒ । नृऽसा॑चः । शूराः॑ । शव॑सा । अहि॑ऽमन्यवः । आ । व॒न्धुरे॑षु । अ॒मतिः॑ । न । द॒र्श॒ता । वि॒द्युत् । न । त॒स्थौ॒ । म॒रु॒तः॒ । रथे॑षु । वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रोदसी आ वदता गणश्रियो नृषाचः शूराः शवसाहिमन्यवः। आ वन्धुरेष्वमतिर्न दर्शता विद्युन्न तस्थौ मरुतो रथेषु वः ॥
स्वर रहित पद पाठरोदसी इति। आ। वदत। गणऽश्रियः। नृऽसाचः। शूराः। शवसा। अहिऽमन्यवः। आ। वन्धुरेषु। अमतिः। न। दर्शता। विद्युत्। न। तस्थौ। मरुतः। रथेषु। वः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे गणश्रियो नृषाचोऽहिमन्यवः शूरा मरुतो ! येऽमतिर्न रूपमिव दर्शता विद्युत्तस्थौ न वर्त्तत इव वर्त्तमाना वायवो बन्धुरेषु रोदसी आधरन्ति ये वो युष्माकं रथेषु संयुक्ताः कार्य्याणि साध्नुवन्ति तानस्मभ्यमावदत समन्तादुपदिशत ॥ ९ ॥
पदार्थः
(रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आ) समन्तात् (वदत) उपदिशत (गणश्रियः) गणानां समूहानां श्रियः शोभा येषु ते (नृषाचः) ये कर्म्मसु नॄन् जीवान् साचयन्ति संयोजयन्ति ते (शूराः) शूरवीराः (शवसा) बलेन (अहिमन्यवः) येऽहिं व्याप्तिं मानयन्ति ज्ञापयन्ति ते (आ) अभितः (बन्धुरेषु) यानयन्त्राणां बन्धनेषु (अमतिः) रूपम्। अमतिरिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (न) इव (दर्शता) द्रष्टव्यानि (विद्युत्) स्तनयित्नुः (न) इव (तस्थौ) तिष्ठति (मरुतः) शिल्पविद्याविद ऋत्विजः (रथेषु) यानेषु (वः) युष्माकम् ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः सर्वमूर्त्तद्रव्याधाराः शौर्य्यशिल्पविद्याकार्यहेतवो वायव एव सन्तीति बोद्धव्यम् ॥ ९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (गणश्रियः) इकट्ठे होके शोभा को प्राप्त होने (नृषाचः) मनुष्यों को कर्मों में संयुक्त करने और (अहिमन्यवः) अपनी व्याप्ति को जाननेवाले (शूराः) शूरवीर के तुल्य (मरुतः) शिल्पविद्या के जाननेवाले ऋत्विज् विद्वान् लोग जो (अमतिर्न) जैसे रूप तथा (दर्शता) देखने योग्य (विद्युत्) बिजुली (तस्थौ) वर्त्तमान होती वैसे वर्त्तमान वायु (बन्धुरेषु) यानयन्त्रों के बन्धनों में जो (शवसा) बल से (रोदसी) प्रकाश और भूमि को धारण करते हैं तथा जो (वः) तुम लोगों के (रथेषु) रथों में जोड़े हुए कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, उनका हम लोगों के लिये (आवदत) उपदेश कीजिये ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को जानना योग्य है कि सब मूर्तिमान् द्रव्यों के आधार, शूरवीरता के तुल्य तथा शिल्पविद्या और अन्य कार्य्यों के हेतु मुख्य करके पवन ही हैं, अन्य नहीं ॥ ९ ॥
विषय
स्वस्थ व ज्ञानी
पदार्थ
१. हे (गणश्रियः) = सात - सात के सात गणों में अवस्थित होकर, कुल ४९ भागों में विभक्त होकर शरीर की श्री को अभिवृद्ध करनेवाले प्राणो ! आप (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (आवदत) = मेरे जीवन में प्रकट करो । मेरा मस्तिष्क द्युलोक की भाँति तेजस्वी और मेरा शरीर पृथिवी की भाँति दुढ हो । इस प्रकार मेरा जीवन द्युलोक व पृथिवीलोक को प्रकट कर रहा हो । २. (नृषाचः) = मनुष्यों का आप सेवन करनेवाले हो । रामायण में जो स्थान हनुमान् का है, वही स्थान आपका इस शरीर में है । आप यहाँ रहते हुए (शूराः) = सब शत्रुओं को हिंसन करनेवाले हो । रोगकृमियों का संहार करके शरीर को नीरोग बनाते हो तो मन को भी द्वेषादि से रहित करके पवित्र करते हो । (शवसा) = शक्ति के साथ (अहिमन्यवः) = आप अहीन ज्ञानवाले हो । आप शक्ति व ज्ञान दोनों का वर्धन करते हो । ३. हे (मरुतः) = प्राणो ! आपका साधक पुरुष (वः) = आपके (बन्धुरेषु) = [Beautiful] सुन्दर, सुगठित [सुबद्ध] (रथेषु) = इन शरीर - रथों पर (अमतिः न) = उत्तम रूपवाले के समान तथा (दर्शता विद्युत् न) = दर्शनीय विद्युत् के समान (आतस्थौ) = स्थित होता है । स्वास्थ्य के कारण प्राणसाधक का रूप सुन्दर होता है और ज्ञानवृद्धि के कारण वह विद्युत् के समान चमकता है, एवं, मरुत् साधक को स्वास्थ्य का सौन्दर्य व ज्ञान की दीप्ति प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्राणसाधना से स्वस्थ व ज्ञानी बनें ।
विषय
उनके कर्तव्य ।
भावार्थ
हे (मरुतः) विद्वान् पुरुषो और वीर पुरुषो ! हे ( गणश्रियः ) सैन्यगणों को अपने आश्रय या अधीन रखने वाले या गणों, जनों, सेना समूहों से शोभा देनेवाले ! हे (नृषाचः) वीर नायकों के अधीन समवाय, संगठन बनाकर रहने वाले, ( शूराः ) शूरवीर ( अहिमन्यवः ) सर्प के समान शत्रु के प्राणहारी क्रोधवाले ! या मेघ के समान अमित मन्यु, क्रोध या ज्ञानवाले या अक्षय या उत्तम ज्ञान और उद्वेग वाले वीर विद्वान् पुरुष ! आप लोग ( रोदसी ) सूर्य और भूमि के समान राजा और प्रजा दोनों वर्गों को ( शवसा ) अपने बल और ज्ञान सामर्थ्य से (आ वदत) सर्वत्र उपदेश करो अपने गुणों को बतलाओ । और हे विद्वानो ! और वीरो ! आप सब लोग (अमतिःन ) सुन्दर रूप के समान दर्शनीय और ( विद्युत् न ) विद्युत् के समान अपनी कान्ति से स्वतः देखने योग्य होकर ( बन्धुरेषु ) दृढ़ बन्धनों से बंधे ( रथेषु ) रथों पर ( वः ) तुम्हारा पराक्रम (तस्थौ) स्थिर हो । विद्वानों का ज्ञान ( रथेषु ) रमण करने योग्य आत्मानन्द रूप रसों में या रमण योग्य प्राणों या देहों में सुन्दर रूप विद्युत् के समान मनोहर और दीप्ति रूप से विराजे । अथवा -[ एक न कारः पादपूरणार्थ है । ] विद्युत् आदि अस्त्र ही तुम्हारा (अमतिः) दर्शनीय रूप के समान उज्ज्वल रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इसमन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे गणश्रियः नृषाचः अहिमन्यवः शूरा{शवसा} मरुतः ! ये अमतिः न रूपम् इव दर्शता विद्युत् तस्थौ न वर्त्तते इव वर्त्तमानाः वायवः बन्धुरेषु रोदसी आधरन्ति ये वः युष्माकं रथेषु संयुक्ताः कार्य्याणि साध्नुवन्ति तान् अस्मभ्यम् आ वदत समन्तात् उपदिशत ॥९॥
पदार्थ
हे (गणश्रियः) गणानां समूहानां श्रियः शोभा येषु ते= समूहों की शोभनीय लक्ष्मीवाले, (नृषाचः) ये कर्म्मसु नॄन् जीवान् साचयन्ति संयोजयन्ति ते=कर्मों में नायकों के जीवन को जोड़नेवाले, (अहिमन्यवः) येऽहिं व्याप्तिं मानयन्ति ज्ञापयन्ति ते=बादलों को जानकारी देनेवाले, (शूराः) शूरवीराः= शूर वीर, {शवसा} बलेन=बल से, (मरुतः) शिल्पविद्याविद ऋत्विजः= शिल्पविद्या के जाननेवाले ऋत्विज! (ये)=जो, (अमतिः) रूपम्=रूप के, (न) इव=समान, (दर्शता) द्रष्टव्यानि=दिखाई देते हैं, (विद्युत्) स्तनयित्नुः= मेघविद्युत् के, (तस्थौ) तिष्ठति=रुकने के, (न) इव=समान, (वर्त्तते)=होते हैं, (वर्त्तमानाः)= वर्त्तमान, (वायवः)=वायु, (बन्धुरेषु) यानयन्त्राणां बन्धनेषु=यान के यन्त्रों को बाँधने में, (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ=द्यौ और पृथिवी में, (आ) अभितः=हर ओर से, (धरन्ति)=रखते हैं, (ये)=जो, (वः) युष्माकम्=तुम्हारे, (रथेषु) यानेषु=यानों में, (संयुक्ताः)=जोड़े हुए, (कार्य्याणि)=कार्यों को, (साध्नुवन्ति)=सम्पादित करते हैं, (तान्)=उनको, (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (वदत) उपदिशत=उपदेश कीजिये॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को जानना योग्य है कि सब मूर्तिमान् द्रव्यों के आधार, शूरवीरता के तुल्य तथा शिल्पविद्या और अन्य कार्य्यों के हेतु मुख्य करके पवन ही हैं, अन्य नहीं ॥९॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- (1) लक्ष्मी- वैदिक साहित्य में धन. सम्पत्ति और समृद्धि को लक्ष्मी कहा गया है। (2) ऋत्विज- इस शब्द की व्याख्या मन्त्र ०१. ६०.०३ में की गयी है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (गणश्रियः) समूहों की उत्तम लक्ष्मीवाले, (नृषाचः) नायकों के जीवन को कर्मों में जोड़नेवाले, (अहिमन्यवः) बादलों को जानकारी देनेवाले, (शूराः) शूरवीर और {शवसा} बल से (मरुतः) शिल्पविद्या के जाननेवाले ऋत्विज! (ये) जो (अमतिः) रूप के (न) समान (दर्शता) दिखाई देते हैं और (विद्युत्) मेघविद्युत् के(तस्थौ) रुकने के (न) समान (वर्त्तते) होते हैं। (वर्त्तमानाः) उपस्थित (वायवः) वायु को (बन्धुरेषु) यान के यन्त्रों को बाँधने में (रोदसी) बाह्य अंतरिक्ष और पृथिवी में, (आ) हर ओर से (धरन्ति) धारण करते हैं। (ये) जो (वः) तुम्हारे (रथेषु) यानों में (संयुक्ताः) जोड़े हुए (कार्य्याणि) कार्यों को (साध्नुवन्ति) सम्पादित करते हैं, (तान्) उनको (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (आ) हर ओर से (वदत) उपदेश कीजिये॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आ) समन्तात् (वदत) उपदिशत (गणश्रियः) गणानां समूहानां श्रियः शोभा येषु ते (नृषाचः) ये कर्म्मसु नॄन् जीवान् साचयन्ति संयोजयन्ति ते (शूराः) शूरवीराः (शवसा) बलेन (अहिमन्यवः) येऽहिं व्याप्तिं मानयन्ति ज्ञापयन्ति ते (आ) अभितः (बन्धुरेषु) यानयन्त्राणां बन्धनेषु (अमतिः) रूपम्। अमतिरिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (न) इव (दर्शता) द्रष्टव्यानि (विद्युत्) स्तनयित्नुः (न) इव (तस्थौ) तिष्ठति (मरुतः) शिल्पविद्याविद ऋत्विजः (रथेषु) यानेषु (वः) युष्माकम् ॥९॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे गणश्रियो नृषाचोऽहिमन्यवः शूरा मरुतो ! येऽमतिर्न रूपमिव दर्शता विद्युत्तस्थौ न वर्त्तत इव वर्त्तमाना वायवो बन्धुरेषु रोदसी आधरन्ति ये वो युष्माकं रथेषु संयुक्ताः कार्य्याणि साध्नुवन्ति तानस्मभ्यमावदत समन्तादुपदिशत ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारौ। मनुष्यैः सर्वमूर्त्तद्रव्याधाराः शौर्य्यशिल्पविद्याकार्यहेतवो वायव एव सन्तीति बोद्धव्यम् ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. माणसांनी हे जाणावे की सर्व मूर्तिमान द्रव्यांचे आधार, शूरवीरता व शिल्पविद्या आणि अन्य कार्यांचे हेतू मुख्यत्वे वायूच आहेत, इतर नाहीत. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, scholars, soldiers, leaders of humanity, organised in graceful classes, friends of mankind, brave, breakers of the clouds, with your own power reach over earth and heaven, address them and proclaim of them. And may the Maruts, energies of winds, like lightning, electric energy, in beautiful body form, come and sit in the strong structure of your cars to take you over earth and heaven.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the Maruts is taught further in the ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave heroes, knowers of industries and arts shining in the performance of good deeds and serving them, zealous by your nature, never losing courage, benevolent to men, mighty, you make heaven and earth resound (at your coming); your glory sits in the seat-furnished chariots, conspicuous as a beautiful form, or as the lovely lightning. You should tell us about the attributes of the winds that are mighty and impetuous like you and should accomplish your various works by utilising them, In your cars.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(नृषाच:) ये कर्मसु नृन् साचयन्ति संयोजयन्ति ते =Those who urge upon people to engage themselves in actions. (अहिमन्यवः ये अहिव्याप्ति मानयन्ति-ज्ञापयन्ति ते । = Those which indicate prevalence. (मति:) रूपम् अमतिरिति रूपनाम (निघ० ३.७ ) = Form or beauty. (मदतः) शिल्पविद्याविद ऋत्विजः । =Priests, knowers of arts and industries.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara used in the Mantra. Men should know that it is the winds that are the supporters of all embodied things and means of strength, bravery, art, knowledge and other works.
Translator's Notes
प्रह-व्याप्तो मरुत इति ऋत्विङ् नाम (निघ० ३.१८ ) मरुत इति पदनाम ( निघ० ५.५ ) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् |
Subject of the mantra
Then the topic of how the aforesaid air is, has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (gaṇaśriyaḥ)=the one who has the best Lakṣmī of groups, (nṛṣācaḥ)=Those who connect the lives of heroes with deeds, (ahimanyavaḥ)=Those who give information to the clouds, (śūrāḥ)= the valiant one and, {śavasā} =by strength, (marutaḥ)= ṛtvija, knowledgeable in craftsmanship, (ye) jo (amatiḥ) =of form, (na) =like, (darśatā)=appear and, (vidyut) =of cloud thunder,(tasthau) =of stopping, (na) =like, (varttate) =are, (varttamānāḥ) =present, (vāyavaḥ) =to air, (bandhureṣu)= to bind the instruments of the vehicle, (rodasī)= In outer space and on earth, (ā) =from every side, (dharanti) =hold, (ye) =those, (vaḥ) =your, (ratheṣu) =in vehicles, (saṃyuktāḥ) =combined, (kāryyāṇi) =tasks, (sādhnuvanti)= carry out, (tān)=to those, (asmabhyam) =for us, (ā)= from all sides, (vadata) =preach.
English Translation (K.K.V.)
O ṛtvija, the one who has the best Lakṣmī of groups, the one who connects the lives of heroes in their deeds, the one who gives information to the clouds, the valiant one and the one who knows the art of strength and craft! Which appear similar in form and are similar to the stopping of cloud-thunder. The present air is held by the outer space and the earth from all sides to bind the instruments of the vehicle. Preach for us from all sides those who carry out the tasks assigned in your combined vehicles.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as figurative in two places in this mantra. It should be known by human beings that wind is the basis of all tangible substances, the means of bravery and craftsmanship.
TRANSLATOR’S NOTES-
(1) Lakṣmī- In Vedic literature wealth and prosperity have been called Lakṣmī. (2) Ritvij- This word has been explained in mantra 01. 60.03. of Rigveda.
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