ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 13
प्र नू स मर्तः॒ शव॑सा॒ जनाँ॒ अति॑ त॒स्थौ व॑ ऊ॒ती म॑रुतो॒ यमाव॑त। अर्व॑द्भि॒र्वाजं॑ भरते॒ धना॒ नृभि॑रा॒पृच्छ्यं॒ क्रतु॒मा क्षे॑ति॒ पुष्य॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नु । सः । मर्तः॑ । शव॑सा । जना॑न् । अति॑ । त॒स्थौ । वः॒ । ऊ॒ती । म॒रुतः॑ । यम् । आव॑त । अर्व॑त्ऽभिः॑ । वाज॑म् । भ॒र॒ते॒ । धना॑ । नृऽभिः॑ । आ॒ऽपृच्छ्य॑म् । क्रतु॑म् । आ । क्षे॒ति॒ । पुष्य॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र नू स मर्तः शवसा जनाँ अति तस्थौ व ऊती मरुतो यमावत। अर्वद्भिर्वाजं भरते धना नृभिरापृच्छ्यं क्रतुमा क्षेति पुष्यति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। नु। सः। मर्तः। शवसा। जनान्। अति। तस्थौ। वः। ऊती। मरुतः। यम्। आवत। अर्वत्ऽभिः। वाजम्। भरते। धना। नृऽभिः। आऽपृच्छ्यम्। क्रतुम्। आ। क्षेति। पुष्यति ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुतस्तेः वायवः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! यूयं यमावत स मर्त्त ऊती शवसाऽर्वद्भिरश्वैर्नृभिः सह वाजं वेगमन्नं वो जनान् धनान्यापृच्छ्य क्रतुं च नु प्रभरत आक्षेति शरीरात्मभ्यां चाति पुष्यति तस्थौ ॥ १३ ॥
पदार्थः
(प्र) प्रकृष्टार्थे (नु) शीघ्रम् (सः) (मर्त्तः) मनुष्यः (शवसा) विद्याक्रियायुक्तेन बलेन (जनान्) मनुष्यादीन् (अति) अतिशयेन (तस्थौ) तिष्ठति (वः) युष्माकम् (ऊती) ऊत्या रक्षादिना। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयायाः पूर्वसवर्णादेशः। (मरुतः) युक्त्या सेविता वायवः। (यम्) मनुष्यम् (आवत) विजानीत (अर्वद्भिः) वेगादिगुणैरश्वैः (वाजम्) वेगादिगुणसमूहम् (भरते) धरति (धना) (नृभिः) मनुष्यैः (आपृच्छ्यम्) समन्तात्प्रष्टव्यम् (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्म वा (आ) समन्तात् (क्षेति) क्षियति निवासयति। अत्र बहुलं छन्दसीति शस्य लुक्। (पुष्यति) पुष्टं करोति ॥ १३ ॥
भावार्थः
ये मनुष्याः प्राणविद्यां विदित्वोपयुञ्जते ते बलवन्तः प्रतिष्ठिता भूत्वा दुःखानि शत्रूनुल्लङ्घ्योत्तमैर्हस्त्यश्वमनुष्यधनप्रज्ञायुक्ताः सन्तः सदा पुष्यन्ति ॥ १३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे उक्त वायु कैसे गुणवाले हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) युक्ति से सेवन किये हुए वायु के समान तुम (यम्) जिस मनुष्य की (आवत) रक्षा आदि करते हो (सः) वह (मर्त्तः) मनुष्य (ऊती) रक्षा आदि के सहित (शवसा) विद्या क्रियायुक्त बल (अर्वद्भिः) घोड़ों और (नृभिः) मनुष्यों के साथ (वाजम्) वेग अन्न (वः) तुम (जनान्) मनुष्यादि प्राणियों और (धना आ पृच्छ्यम्) धनों को पूछने योग्य अच्छे (क्रतुम्) बुद्धि वा कर्म्म को (नु) शीघ्र (प्रभरते) अच्छे प्रकार धारण करता (आक्षेति) अच्छे प्रकार निवासयुक्त करता, शरीर और आत्मा अन्तःकरण से (पुष्यति) बल को पुष्ट करता हुआ (तस्थौ) स्थित होता है ॥ १३ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य प्राणवायु की विद्या को जानकर उपयोग करते हैं, वे बलवान् प्रतिष्ठा को प्राप्त हो और दुःख तथा शत्रुओं को जीत कर उत्तम हाथी, घोड़े, मनुष्य, धन और बुद्धि से युक्त होके सदा सबको पुष्ट करते हैं ॥ १३ ॥
विषय
अतिक्रमण [अति समं क्राम]
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो ! (सः मर्तः) = वह मनुष्य (यम्) = जिसको आप (वः ऊती) = अपने रक्षण द्वारा (आवत) = रक्षित करते हो (जनान्) = लोगों को (नु) = निश्चय से (शवसा) = बल के दृष्टिकोण से (प्र अति तस्थौ) = प्रकर्षेण लांघकर स्थित होता है । प्राणों का रक्षण प्राप्त होने पर इस साधक का बल सामान्य मनुष्य के बल से बहुत अधिक हो जाता है । शक्ति के दृष्टिकोण से यह औरों का अतिक्रमण कर जाता है । २. यह (अर्वद्भिः) = अपने इन्द्रियरूप अश्वों से अपने में (वाजम्) = ज्ञान व बल को (भरते) = भरता है, ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान को तथा कर्मेन्द्रियों से कर्म द्वारा शक्ति को । ३. यह प्राणसाधक संसार - यात्रा के सञ्चालन के लिए आवश्यक धना धनों को भी प्राप्त करता है । ४. इन धनों के द्वारा (क्रतुम्) = उन उत्तम यज्ञों को (आक्षेति) = [आप्नोति - सा०] सर्वथा प्राप्त करता है जोकि (नृभिः आपृच्छ्यम्) = मनुष्यों से चाहने योग्य होते हैं । प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह उन कर्मों को कर सके जिनसे उसका यश हो । यह धनों के द्वारा उन ऋतुओं को करनेवाला बनता है और इस प्रकार (पुष्यति) = अपना वास्तविक पोषण करता है । यज्ञों के द्वारा ही तो वस्तुतः हमारा पोषण होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक [क] अत्यधिक बल का सम्पादन करता है, [ख] अपने में ज्ञान व शक्ति भरता है, [ग] धनों का सम्पादन करके यज्ञशील बनता है, [घ] इन यज्ञों से अपना वास्तविक पोषण करता है ।
विषय
वीरों और सेनापति तथा प्राणों और आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) वायु के समान तीव्र वेग से जाने हारे वीर पुरुषो ! एवं विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोग ( ऊती ) अपनी रक्षा के लिये ( यम् ) जिस पुरुष की (आवत) रक्षा करते या जिसकी शरण में प्राप्त होते हो। और जो (अर्वद्भिः) अश्वों, अश्वारोही वीर पुरुषों के द्वारा ( वाजं ) संग्राम को ( भरते ) विजय करता है और ( नृभिः ) नायक पुरुषों के साथ मिल कर जो (धना) ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है और जो ( आपृच्छ्यम् ) परस्पर पूछ कर जिज्ञासा से प्राप्त करने योग्य (क्रतुम्) ज्ञान को (आ क्षेति) प्राप्त करता है ( सः मर्तः ) वह मनुष्य ( शवसा ) बल और ज्ञान से ( नु ) शीघ्र ( जनान् अति ) समस्त जनों से बढ़ कर (तस्थौ) उच्च आसन पर विराजता है। अध्यात्म में है ( मरुतः ) प्राणगणो ! आप जिस आत्मा को अपनी देहरक्षा के लिये प्राप्त हो, जो ( अर्वद्भिः ) इन्द्रिय गणों से ज्ञान को प्राप्त करता है जो ( नृभिः ) प्राणों से ऐश्वर्यों को पाता है, और ज्ञातव्य परम पद ज्ञानमय परमेश्वर को प्राप्त करता और उसका अभ्यास करता है, वह सब जनों को ज्ञान के बल से पार कर उनसे ऊंचा होकर परमपद में विराजता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वे उक्त वायु कैसे गुणवाले हैं, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मरुतः ! यूयं यम् आवत स मर्त्तः ऊती शवसा अर्वद्भिः अश्वैः नृभिः सह वाजं वेगम् अन्नं वः जनान् धनानि आपृच्छ्य क्रतुं च नु प्र भरते आ क्षेति शरीरात्मभ्यां च अति पुष्यति तस्थौ ॥१३॥
पदार्थ
हे (मरुतः) युक्त्या सेविता वायवः= युक्ति से सेवन किये हुए वायु ! (यूयम्)=तुम सब, (यम्) मनुष्यम्=मनुष्य को, (आवत) विजानीत=अच्छी तरह से जानो, (सः)=वह, (मर्त्तः) मनुष्यः= मनुष्य, (ऊती) ऊत्या रक्षादिना=रक्षा आदि से. (शवसा) विद्याक्रियायुक्तेन बलेन=विद्या की क्रिया युक्त बल से, (अर्वद्भिः) वेगादिगुणैरश्वैः= वेग आदि गुणोंवाले, (अश्वैः)=अश्वों और, (नृभिः) मनुष्यैः= मनुष्यों के, (सह)=साथ, (वाजम्) वेगादिगुणसमूहम् = वेग आदि गुणों के समूहवाले, (अन्नम्)= अन्न को, (वः) युष्माकम्=तुम, (जनान्) मनुष्यादीन्=मनुष्य आदि के, (धनानि)=धनों को, (आपृच्छ्यम्) समन्तात्प्रष्टव्यम्=हर ओर से पूछा जाना चाहिए, (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्म वा= प्रज्ञा और कर्म को, (च)=भी, (नु) शीघ्रम्=शीघ्र, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (भरते) धरति=धारण करता है, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (क्षेति) क्षियति निवासयति=निवास कराता है, (शरीरात्मभ्याम्)=शरीर और आत्मा से, (च)=भी, (अति) अतिशयेन=अतिशय रूप से, (पुष्यति) पुष्टं करोति= पुष्ट करते हुए (तस्थौ) तिष्ठति= स्थित होता है ॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो मनुष्य प्राणवायु की विद्या को जानकर उपयोग करते हैं, वे बलवान् प्रतिष्ठित होकर दुःखों और शत्रुओं को जीत कर उत्तम हाथी, घोड़े, मनुष्य, धन और बुद्धि से युक्त हो करके सदा फलते-फूलते हैं ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मरुतः) युक्ति से सेवन किये हुए वायु ! (यूयम्) तुम सब (यम्) मनुष्य को (आवत) अच्छी तरह से जानो। (सः) वह (मर्त्तः) मनुष्य (ऊती) रक्षा आदि से और (शवसा) विद्या की क्रिया युक्त बल से, (अर्वद्भिः) वेग आदि गुणोंवाले (अश्वैः) अश्वों और (नृभिः) मनुष्यों के (सह) साथ (वाजम्) वेग आदि गुणों के समूहवाले (अन्नम्) अन्न को, (वः) तुम, (जनान्) मनुष्य आदि के (धनानि) धनों को (आपृच्छ्यम्) हर ओर से पूछा जाना चाहिए। (क्रतुम्) प्रज्ञा और कर्म को (च) भी (नु) शीघ्र ही, (प्र) प्रकृष्ट रूप से (भरते) धारण करता है। (आ) हर ओर से (क्षेति) निवास कराता है और (शरीरात्मभ्याम्) शरीर व आत्मा से (च) भी (अति) अतिशय रूप से (पुष्यति) पुष्ट करते हुए (तस्थौ) स्थित होता है ॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (नु) शीघ्रम् (सः) (मर्त्तः) मनुष्यः (शवसा) विद्याक्रियायुक्तेन बलेन (जनान्) मनुष्यादीन् (अति) अतिशयेन (तस्थौ) तिष्ठति (वः) युष्माकम् (ऊती) ऊत्या रक्षादिना। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयायाः पूर्वसवर्णादेशः। (मरुतः) युक्त्या सेविता वायवः। (यम्) मनुष्यम् (आवत) विजानीत (अर्वद्भिः) वेगादिगुणैरश्वैः (वाजम्) वेगादिगुणसमूहम् (भरते) धरति (धना) (नृभिः) मनुष्यैः (आपृच्छ्यम्) समन्तात्प्रष्टव्यम् (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्म वा (आ) समन्तात् (क्षेति) क्षियति निवासयति। अत्र बहुलं छन्दसीति शस्य लुक्। (पुष्यति) पुष्टं करोति॥१३॥ विषयः- पुतस्तेः वायवः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मरुतो ! यूयं यमावत स मर्त्त ऊती शवसाऽर्वद्भिरश्वैर्नृभिः सह वाजं वेगमन्नं वो जनान् धनान्यापृच्छ्य क्रतुं च नु प्रभरत आक्षेति शरीरात्मभ्यां चाति पुष्यति तस्थौ ॥१३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्याः प्राणविद्यां विदित्वोपयुञ्जते ते बलवन्तः प्रतिष्ठिता भूत्वा दुःखानि शत्रूनुल्लङ्घ्योत्तमैर्हस्त्यश्वमनुष्यधनप्रज्ञायुक्ताः सन्तः सदा पुष्यन्ति ॥१३॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे प्राणवायूची विद्या जाणून तिचा उपयोग करतात. तीच बलवान बनून प्रतिष्ठा प्राप्त करतात व दुःख आणि शत्रूंना जिंकून उत्तम हत्ती, घोडे, माणसे, धन व बुद्धीने युक्त होऊन सदैव सर्वांना पुष्ट करतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Maruts, surely that person soon surpasses other people with power and merit and settles whom you protect and promote with your favours. He achieves food, energy and success with the fastest means of movement and progress, gets the desired wealth for the asking with the people around, and collects and advances the wealth and beauty of yajnic life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Maruts (Pranas and heroes), the man whom you defend with your protection, quickly surpasses all men in strength; with his horses he acquires food and with good men, riches; he performs the admirable Yajna, acquires knowledge and does noble deeds and develops his body and soul well. He thus becomes very strong and dwells in happiness and joy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शवसा) विद्याक्रियायुक्तेन बलेन = With the strength of wisdom and activities. (वातम्) वेगादिगुणसमूहम् । = The group of attributes like the speed and others.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who know the Prana Vidya or the science of Vital Energy, become mighty and respectable. They get over their foes and all misery and possesing elephants, horses, men, wealth and intellect they ever grow harmoniously.
Subject of the mantra
Then what kind of qualities are those airs, this suject is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (marutaḥ)=airs used wisely, (yūyam) =all of you, (yam) =to humans, (āvata) =know well, (saḥ) =that, (marttaḥ) =human, (ūtī) =with the protection etc., (śavasā) =with the power of knowledge, (arvadbhiḥ)=those with speedy qualities, (aśvaiḥ) =horses and, (nṛbhiḥ) =of humans, (saha) =with, (vājam) =having group of properties like velocity etc., (annam) =to food, (vaḥ) =you, (janān) =of humans etc., (dhanāni) =to wealth, (āpṛcchyam) =questions should be asked from all sides, (kratum)= to wisdom and action, (ca) =also, (nu)= quickly, (pra)= eminently, (bharate) =possesses, (ā) =from every side, (kṣeti)=makes reside and, (śarīrātmabhyām) =by the body and soul, (ca) =also, (ati) =extremely, (puṣyati)=nourishing, (tasthau)= is located.
English Translation (K.K.V.)
O airs used wisely! You all know the man well. Those human beings with the power of protection etc. and the power combined with the action of knowledge, the horses having the qualities of speed etc. and the food grains having the qualities of speed etc. along with humans, the wealth of you humans etc. should be inquired about from all sides. That acquires wisdom and action quickly and eminently. It is located after making reside on every side and is extremely nourishing for the body and soul.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those people who know and use the knowledge of breath-air, become strong and established, conquer sorrows and enemies, have excellent elephants, horses, humans, wealth and intelligence and always prosper.
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