ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 11
हि॒र॒ण्यये॑भिः प॒विभिः॑ पयो॒वृध॒ उज्जि॑घ्नन्त आप॒थ्यो॒३॒॑ न पर्व॑तान्। म॒खा अ॒यासः॑ स्व॒सृतो॑ ध्रुव॒च्युतो॑ दुध्र॒कृतो॑ म॒रुतो॒ भ्राज॑दृष्टयः ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒र॒ण्यये॑भिः । प॒विऽभिः॑ । प॒यः॒ऽवृधः॑ । उत् । जि॒घ्न॒न्ते॒ । आ॒ऽप॒थ्यः॑ । न । पर्व॑तान् । म॒खाः । अ॒यासः॑ । स्व॒ऽसृतः॑ । ध्रु॒व॒ऽच्युतः॑ । दु॒ध्र॒ऽकृतः॑ । म॒रुतः॑ । भ्राज॑त्ऽऋष्टयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्ययेभिः पविभिः पयोवृध उज्जिघ्नन्त आपथ्यो३ न पर्वतान्। मखा अयासः स्वसृतो ध्रुवच्युतो दुध्रकृतो मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्ययेभिः। पविऽभिः। पयःऽवृधः। उत्। जिघ्नन्ते। आऽपथ्यः। न। पर्वतान्। मखाः। अयासः। स्वऽसृतः। ध्रुवऽच्युतः। दुध्रऽकृतः। मरुतः। भ्राजत्ऽऋष्टयः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरेते वायवः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो मनुष्या ! यूयमापथ्यो न हिरण्ययेभिः पविभिः सह समन्ताद्रथेन पथि गच्छन्निव ये भ्राजदृष्टयो दुध्रकृतो ध्रुवच्युतः स्वसृतः पयोवृधो मरुतो पर्वतान् मेघान् शैलान् वोज्जिघ्नन्ते तेषां गुणान् विज्ञायैतान् कार्य्येषु नित्यं संप्रयोजयत ॥ ११ ॥
पदार्थः
(हिरण्ययेभिः) तेजोमयैः (पविभिः) वज्रतुल्यैः पवित्रैर्गमनागमनादिसाधनचक्रैः (पयोवृधः) ये पय उदकं रात्रिं वा वर्धयन्ति ते (उत्) उत्कृष्टे (जिघ्नन्ते) हिंसन्ति। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यदादेशविकल्पः। (आपथ्यः) पथि भवः पथ्यः सर्वतः पथ्य आपथ्यः (न) इव (पर्वतान्) शैलान् मेघान् वा (मखाः) यष्टुमर्हा यज्ञाः (अयासः) प्राप्तिशीलाः (स्वसृतः) ये स्वान् गुणान् सरन्ति प्राप्नुवन्ति ते (ध्रुवच्युतः) ये ध्रुवानपि पदार्थान् च्यावयन्ति निपातयन्ति ते (दुध्रकृतः) ये दुध्राणि धारकाणि बलादीनि कुर्वन्ति ते (मरुतः) वायवः (भ्राजदृष्टयः) भ्राजत्यः प्रदीप्ता ऋष्टयो व्यवहारप्रापिकाः कान्त्यो येभ्यस्ते ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्येभ्यो वृष्ट्यादिकं जायते ते वायवो युक्त्या सेवनीयाः ॥ ११ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी वे पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोग (आपथ्यो न) अच्छे प्रकार (हिरण्ययेभिः) सुवर्ण आदि के योग से प्रकाशरूप (पविभिः) पवित्र चक्रों के रथ से मार्ग में चलने के समान (भ्राजदृष्टयः) जिनसे व्यवहार प्राप्त करानेवाली कान्ति प्रसिद्ध हों (दुध्रकृतः) धारण करनेवाले बलादि के उत्पन्न करने (ध्रुवच्युतः) निश्चल आकाश से चलायमान (स्वसृतः) अपने गुणों को प्राप्त होके चलनेहारे (पयोवृधः) जल वा रात्रि के बढ़ानेवाले (मखाः) यज्ञ के योग्य (अयासः) प्राप्त होने के स्वभाव से युक्त (मरुतः) पवन (पर्वतान्) मेघ वा पर्वतों को (उज्जिघ्नन्ते) नष्ट करते हैं, उन पवनों के गुणों को जान कर अपने कार्यों में संयुक्त करो ॥ ११ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिन वायुओं से वृष्टि आदि की उत्पत्ति होती है, उनका युक्ति के साथ सेवन किया करें ॥ ११ ॥
विषय
पयोवृधः
पदार्थ
१. (मरुतः) = प्राण व प्राणसाधना करनेवाले मितराविणः - मितरावी पुरुष (पयोवृधः) = दूध आदि सात्त्विक आहारों से अपना वर्धन करनेवाले होते हैं और (हिरण्ययेभिः) = हित - रमणीय व स्वर्णिम (पविभिः) = वाणियों से (उज्जिघ्नन्तः) = मार्ग में आनेवाले विघ्नों को उसी प्रकार नष्ट करनेवाले होते हैं, (न) = जैसे कि (आपथ्यः) = मार्ग पर जानेवाला कोई व्यक्ति (पर्वतान्) = पर्वतों को दूर फेंक देता हैं । मरुत् भी पर्वततुल्य महान् विरोधियों को भी हितरमणीय वाणियों से अनुकूल बना लेते हैं । २. (मखाः) = इनका जीवन यज्ञमय होता है, (अयासः) = ये निरन्तर गतिशील होते हैं, (स्व - सृतः) = आत्मतत्त्व की ओर [स्व] बढ़नेवाले होते हैं । ३. (ध्रुवच्युतः) = अत्यन्त स्थिर अर्थात् दृढमूल शत्रुओं को भी च्युत करनेवाले होते हैं । स्वभाव में परिणत हो गये काम - क्रोध को भी ये अपने से पृथक् करनेवाले होते हैं । (दुध्रकृतः) = शत्रुओं के लिए अपने को दुर्घषणीय बनाते हैं । शत्रु इनका पराभव नहीं कर पाते । ऐसे ये (मरुतः) = प्राणसाधक (भ्राजदृष्टयः) = [भ्राजा दृष्टिर्येषाम्] देदीप्यमान दृष्टिवाले होते हैं अथवा (भ्राजत् + ऋष्टयः) = देदीप्यमान गतियोंवाले होते हैं [ऋष् गतौ] ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना हमें यज्ञशील व देदीप्यमान दृष्टिवाला बनाती है ।
विषय
रथ के समान वीर पुरुष का वर्णन । मरुतों, वीर भटों का वर्णन ।
भावार्थ
( आपथ्यः नः ) जिस प्रकार मार्ग में चलनेवाला रथ (हिरण्ययेभिः पविभिः उत् जिघ्नते ) लोहे के बने या उससे मढ़े हुए चक्रों से उत्तम रीति से चलता है उसी प्रकार ( आपथ्यः ) वीर पुरुष सब तरफ के मार्गों के जानने और वश करनेहारे होकर (हिरण्ययेभिः) लोहे के बने हुए (पविभिः) खड्गों और शस्त्रास्त्रों से ( पर्वतान् ) पर्वत के समान अचल शत्रु राजाओं और प्रतिपक्षी वीरों को ( उत् जिघ्नन्ते ) उत्तम या अधिक बल से विनाश कर दें। वे ( पयोवृधः ) वीर्यबल के वर्धक ( मखाः ) पूजा के योग्य, ( स्वसृतः ) अपने बल पराक्रम से आगे बढ़ने वाले, ( ध्रुवच्युतः ) स्थिर राज्यों को भी डावांडोल करनेवाले, (दुध्रकृतः) धारण करने योग्य या असह्य बल पराक्रमों के करनेवाले, (भ्राजद्-ऋष्टयः) चमचमाते हुए शस्त्रों वाले होकर ( मरुतः ) वीर पुरुष (अयासः) सर्वत्र रण में जाने वाले हो । वायु पक्ष में—( पयोवृधः ) वृष्टि जल के बढ़ाने वाले, ( पर्वतान् उत् जिघ्नन्तः ) मेघों और पर्वतों को अधिक बल से ताड़नेहारे, ( स्वसृतः ) अपने वेग से जाने वाले, ( ध्रुवच्युतः ) स्थिर पदार्थों ( दुध्रकृतः ) धारण करने योग्य बलों के धारने वाले, ( अयासः ) व्यापक वायुगण हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर भी वे पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वांसः मनुष्या ! यूयम् आपथ्यः न हिरण्ययेभिः पविभिः सह समन्तात् रथेन पथि गच्छन् इव ये भ्राजदृष्टयः दुध्रकृतः ध्रुवच्युतः स्वसृतः पयोवृधः मरुतः पर्वतान् {मखाः}{अयासः} मेघान् शैलान् वा उत् जिघ्नन्ते तेषां गुणान् विज्ञाय एतान् कार्य्येषु नित्यं संप्रयोजयत ॥११॥
पदार्थ
हे (विद्वांसः मनुष्याः)=विद्वान् मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (आपथ्यः) पथि भवः पथ्यः सर्वतः पथ्य आपथ्यः=सब ओर के मार्गों को जाननेवाले के, (न) इव=समान, (हिरण्ययेभिः) तेजोमयैः= तेजवाले के द्वारा, (पविभिः) वज्रतुल्यैः पवित्रैर्गमनागमनादिसाधनचक्रैः= यातायत के पवित्र साधन और वज्र के समान कठोर पहियोंवाले यानों के, (सह)=साथ, (समन्तात्)=हर ओर से, (रथेन)=रथ से, (पथि)= पथिक, (गच्छन्)=जाते हुए के, (इव)=समान, (ये)=जो, (भ्राजदृष्टयः) भ्राजत्यः प्रदीप्ता ऋष्टयो व्यवहारप्रापिकाः कान्त्यो येभ्यस्ते= चमकती हुई तलवारों को, (दुध्रकृतः) ये दुध्राणि धारकाणि बलादीनि कुर्वन्ति ते=धारण करते हुए बलशाली बनाते हैं, (ध्रुवच्युतः) ये ध्रुवानपि पदार्थान् च्यावयन्ति निपातयन्ति ते=स्थिर पदार्थों को गिरा देनेवाले, (स्वसृतः) ये स्वान् गुणान् सरन्ति प्राप्नुवन्ति ते= अपने गुणों से प्राप्त करनेवाले, (पयोवृधः) ये पय उदकं रात्रिं वा वर्धयन्ति ते=जल या रात्रि को बढ़ानेवाले, (मरुतः) वायवः=पवन, (पर्वतान्) शैलान् मेघान् वा=पर्वतों के, {मखाः} यष्टुमर्हा यज्ञाः=यज्ञ के योग्य, {अयासः} प्राप्तिशीलाः=प्राप्ति करने के स्वभाववाले, (वा)=और, (मेघान्) शैलान् = पर्वतों को, (उत्) उत्कृष्टे= उत्कृष्ट रूप से, (जिघ्नन्ते) हिंसन्ति=नष्ट करते हैं, (तेषाम्) =उनके, (गुणान्)= गुणों को, (विज्ञाय)=जानकर, (एतान्)=इन्हें, (कार्य्येषु)=कार्यों में, (नित्यम्)= नित्य, (संप्रयोजयत)=अच्छी तरह से प्रयोग करना चाहिए ॥११॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिन वायुओं से बरसा आदि की उत्पत्ति होती है, उनका मनुष्यों के द्वारा युक्ति के साथ सेवन करना चाहिए ॥११॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वांसः मनुष्याः) विद्वान् मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब, (आपथ्यः) सब ओर के मार्गों को जाननेवाले के (न) समान (हिरण्ययेभिः) तेजवाले [पवन के द्वारा] (पविभिः यातायत के पवित्र साधन और वज्र के समान कठोर पहियोंवाले यानों के (सह) साथ (समन्तात्) हर ओर से (रथेन) रथ से (पथि) पथिक के रूप में (गच्छन्) जाते हुए के, (इव) समान (ये) जो (भ्राजदृष्टयः) चमकती हुई तलवारों को (दुध्रकृतः) धारण करते हुए बलशाली बनाते हैं। (ध्रुवच्युतः) ऐसे स्थिर पदार्थों को गिरा देनेवाले, (स्वसृतः) अपने गुणों से प्राप्त करनेवाले, (पयोवृधः) जल या रात्रि को बढ़ानेवाले (मरुतः) पवन, (पर्वतान्) पर्वतों के {मखाः} यज्ञ के योग्य (वा) और {अयासः} प्राप्ति करने के स्वभाववाले, (मेघान्) पर्वतों को (उत्) उत्कृष्ट रूप से (जिघ्नन्ते) नष्ट करते हैं। (तेषाम्) उनके (गुणान्) गुणों को (विज्ञाय) जानकर, (एतान्) इन्हें (कार्य्येषु) कार्यों में (नित्यम्) नित्य (संप्रयोजयत) अच्छी तरह से प्रयोग करना चाहिए ॥११॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (हिरण्ययेभिः) तेजोमयैः (पविभिः) वज्रतुल्यैः पवित्रैर्गमनागमनादिसाधनचक्रैः (पयोवृधः) ये पय उदकं रात्रिं वा वर्धयन्ति ते (उत्) उत्कृष्टे (जिघ्नन्ते) हिंसन्ति। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यदादेशविकल्पः। (आपथ्यः) पथि भवः पथ्यः सर्वतः पथ्य आपथ्यः (न) इव (पर्वतान्) शैलान् मेघान् वा (मखाः) यष्टुमर्हा यज्ञाः (अयासः) प्राप्तिशीलाः (स्वसृतः) ये स्वान् गुणान् सरन्ति प्राप्नुवन्ति ते (ध्रुवच्युतः) ये ध्रुवानपि पदार्थान् च्यावयन्ति निपातयन्ति ते (दुध्रकृतः) ये दुध्राणि धारकाणि बलादीनि कुर्वन्ति ते (मरुतः) वायवः (भ्राजदृष्टयः) भ्राजत्यः प्रदीप्ता ऋष्टयो व्यवहारप्रापिकाः कान्त्यो येभ्यस्ते ॥११॥ विषयः- पुनरेते वायवः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे विद्वांसो मनुष्या ! यूयमापथ्यो न हिरण्ययेभिः पविभिः सह समन्ताद्रथेन पथि गच्छन्निव ये भ्राजदृष्टयो दुध्रकृतो ध्रुवच्युतः स्वसृतः पयोवृधो मरुतो पर्वतान् मेघान् शैलान् वोज्जिघ्नन्ते तेषां गुणान् विज्ञायैतान् कार्य्येषु नित्यं संप्रयोजयत ॥११॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्येभ्यो वृष्ट्यादिकं जायते ते वायवो युक्त्या सेवनीयाः ॥११॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या वायूंमुळे वृष्टी इत्यादीची उत्पत्ती होते. त्यांचा माणसांनी युक्तीने स्वीकार करावा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, creators and promoters of water, juice and milk, powers of cosmic yajna, advancing, self- driven, shakers of the fixed, makers of the firm, brandishing their burnishing steel, shatter the mountains and scatter the clouds like leaves on the pathways by the golden wheels of their chariots.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the Maruts is taught further in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, you should utilise winds which are mighty, which with their movements increase waters (bring floods etc.) and which are like the heroes become strong by taking milk, who perform Yajnas, who go forward, who are free in their movements, who shake even the most firm foes, who can not be overcome by others, who possessing bright weapons shake or throw away even the mountains if they come in their way with their golden thunderbolts as a traveller throws away any insignificant thing.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दुधकृत:) दुधाणि धारकाणि बलादीनि कुर्वन्ति ते । = Causing great upholding power. (भ्राजदृष्टयः) भ्राजतः प्रदीप्ता ॠष्टयः व्यवहार प्रापिका: कान्तयो येभ्यस्ते । = Possessing or causing bright splendour.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know well the attributes of the winds which produce rain etc. and should utilise them properly.
Subject of the mantra
Even then, how are those aforesaid air, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvāṃsaḥ manuṣyāḥ)=learned people, (yūyam) =all of you, (āpathyaḥ)= who knows the ways from all sides, (na) =like, (hiraṇyayebhiḥ)=bright, [pavana ke dvārā]=by the wind, (pavibhiḥ)=sacred means of transportation and vehicles with wheels as hard as thunderbolts, (saha) =with, (samantāt) =from all sides, (rathena) =by chariot, (pathi)= as travelers, (gacchan) =going, (iva) =like, (ye) =those, (bhrājadṛṣṭayaḥ)= shining swords, (dudhrakṛtaḥ)= makes strong while holding it, (dhruvacyutaḥ)= Those who bring down such stable things, (svasṛtaḥ) =Those who achieve by their qualities, (payovṛdhaḥ)=enhancer of water or night, (marutaḥ) =air, (parvatān) =of mountains, {makhāḥ} = worthy of yajña, (vā) =and, {ayāsaḥ} =those with a nature to achieve, (meghān) =to mountains, (ut) =excellently, (jighnante) =destroy, (teṣām) =their, (guṇān) =to qualities, (vijñāya) =knowing, (etān) =to these, (kāryyeṣu)=in works, (nityam) =daily, (saṃprayojayata)= should be used well.
English Translation (K.K.V.)
O learned people! All of you, like one who knows the ways on all sides, going as travelers from every side in chariots with the sacred means of transportation by the bright wind and vehicles with wheels as hard as thunderbolts, makes strong like those carrying shining swords. The winds which cause the fall of such stable objects, which obtain by their qualities, which increase the water or night, are capable of performing the yajna of the mountains and have the nature of attaining, destroy the mountains excellently. Knowing their qualities, they should be used well in daily work.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. The air which produces rain etc. should be used judiciously by humans.
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