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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    घृषुं॑ पाव॒कं व॒निनं॒ विच॑र्षणिं रु॒द्रस्य॑ सू॒नुं ह॒वसा॑ गृणीमसि। र॒ज॒स्तुरं॑ त॒वसं॒ मारु॑तं ग॒णमृ॑जी॒षिणं॒ वृष॑णं सश्चत श्रि॒ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृषु॑म् । पा॒व॒कम् । व॒निन॑म् । विऽच॑र्षणिम् । रु॒द्रस्य॑ । सू॒नुम् । ह॒वसा॑ । गृ॒णी॒म॒सि॒ । र॒जः॒ऽतुर॑म् । त॒वस॑म् । मारु॑तम् । ग॒णम् । ऋ॒जी॒षिण॑म् । वृष॑णम् । स॒श्च॒त॒ । श्रि॒ये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृषुं पावकं वनिनं विचर्षणिं रुद्रस्य सूनुं हवसा गृणीमसि। रजस्तुरं तवसं मारुतं गणमृजीषिणं वृषणं सश्चत श्रिये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृषुम्। पावकम्। वनिनम्। विऽचर्षणिम्। रुद्रस्य। सूनुम्। हवसा। गृणीमसि। रजःऽतुरम्। तवसम्। मारुतम्। गणम्। ऋजीषिणम्। वृषणम्। सश्चत। श्रिये ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तत्समुदायः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! यथा वयं हवसा श्रिये रुद्रस्य सूनुं विचर्षणिं वनिनं घृषुं पावकं तवसं रजस्तुरमृजीषिणं वृषणं मारुतं गणं गृणीमसि स्तुवीमस्तं यूयमपि सश्चत विजानीत ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (घृषुम्) घर्षणशीलम् (पावकम्) पवित्रकारकम् (वनिनम्) संभक्तारम् (विचर्षणिम्) विलेखकम् (रुद्रस्य) परमेश्वरस्य जीवस्य वायुकरणस्य वा (सूनुम्) पुत्रवद्वर्त्तमानं प्राणिगर्भविमोचकं वा (हवसा) ग्रहणत्यागभक्षणादिकर्मणा सह वर्त्तमानम् (गृणीमसि) स्तुवीमः (रजस्तुरम्) यो रजांसि लोकान् तुरति तूर्णगमनागमनहेतुम् (तवसम्) महाबलयुक्तम् (मारुतम्) मरुतां वायूनामिमम् (गणम्) समूहम् (ऋजीषिणम्) प्रशस्तमुपार्जनं विद्यते यस्मिंस्तम् (वृषणम्) वृष्टिकारकम् (सश्चत) विजानीत प्राप्नुत वा (श्रिये) विद्याशिक्षाराज्यधनप्राप्तये ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्नहि वायुसमुदायेन विना काचिद्व्यवहारक्रिया भवितुं शक्येति निश्चित्यावश्यं वायुविद्यां स्वीकृत्य स्वकीयानि कार्य्याणि साधनीयानि ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वायुओं के समुदाय कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (हवसा) दान और ग्रहण से (श्रिये) विद्या, शिक्षा और चक्रवर्त्तिराज्य की प्राप्ति के लिये जिस (रुद्रस्य) मुख्य वायु के (सूनुम्) पुत्र के समान वर्त्तमान (विचर्षणिम्) भेद करने तथा (वनिनम्) संग्राम करनेवाले (घृषुम्) घिसने के स्वभाव से युक्त (पावकम्) पवित्र करनेवाले (तवसम्) महाबलवान् (रजस्तुरम्) लोकों को शीघ्र चलाने (ऋजीषिणम्) उत्तम शुद्धि होने के कारण और (वृषणम्) वृष्टि करनेवाले (मारुतम्) पवनों के (गणम्) समूह का (गृणीमसि) उपदेश करते हैं, उसको तुम भी (सश्चत) जानो ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि वायुसमुदाय के विना हमारे कोई काम सिद्ध नहीं हो सकते, ऐसी वायुविद्या का निश्चयतया स्वीकार करके अपने कार्यों की सिद्धि अवश्य करें ॥ १२ ॥

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    विषय

    मारुत - गण

    पदार्थ

    १. शरीर में मरुत् ४९ भागों में विभक्त होकर कार्य कर रहे हैं । ये ४९ मरुत् मिलकर यहाँ मारुत - गण के रूप में स्मरण किये गये हैं । (श्रिये) = शोभा के लिए (मारुतं गणम्) = इन मरुतों के गण को (सश्चत) = प्राप्त करो । इनके साथ अपना सम्बन्ध बनाओ [cling to] अथवा इनका उपासन करो [worship] । उन मारुतगणों को उपासित करो जोकि (घृषुम्) = शत्रुओं का धर्षण कर देनेवाला है, (पावकम्) = पवित्र करनेवाला है, (वनिनम्) = विजय को प्राप्त करानेवाला है [वन् - to win] । २. (विचर्षणिम्) = विशेषरूप से हमारा ध्यान करनेवाला है अथवा हमें (कर्षणि) = श्रमशील बनानेवाला है । (रुद्रस्य) = उस परमात्मा के (सूनुम्) = प्रेरक मारुतगण को (हवसा) = आह्वान साधनभूत स्तोत्रों से (गृणीमसि) = स्तुत करते हैं । प्राणसाधना से चित्तवृत्तिनिरोध होकर हमारा झुकाव प्रभु की ओर होता है, अतः यह मारुतगण ‘रुद्रसूनु’ कहलाया है । ३. (रजस्तुरम्) = यह मारुतगण रजोगुण का, राक्षसी वृत्तियों का संहार करनेवाला है अथवा कर्मों को त्वरा से करनेवाला है । (तवसम्) = हमें अत्यन्त बलवान् व प्रबुद्ध करनेवाला है, (ऋजीषिणम्) = ऋजुमार्ग से धनार्जन करनेवाला है और (वृषणम्) = सबपर सुखों का वर्षण करनेवाला है । इस मारुतगण के सेवन से हमारी शोभा क्यों न बढ़ेगी ?

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्राणसंघ का स्तवन करें । ये प्राण शरीर के रोगों को नष्ट करेंगे और हमारी वृत्तियों को उत्तम बनाएँगे ।

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    विषय

    वीरों और सेनापति तथा प्राणों और आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हम लोग ( घृषुम् ) शत्रुओं के बल के नाश करने वाले, ( पावकम् ) अग्नि के समान तेजस्वी, ( वनिनम् ) भोग्य ऐश्वर्य या वेतन को प्राप्त करने वाले, (विचर्षणिम्) विविध मनुष्यों से बने हुए, (रुद्रस्य) शत्रु-दल को रुलाने वाले, संग्राम के अथवा वीर सेनापति के ( सूनुम् ) पुत्र के समान उनके अधीन, (रजस्तुरम्) राजस भाव, ऐश्वर्य की प्राप्ति से शीघ्र कार्यकारी, ( तवसम्) बलवान्, (ऋजीषिणम्) ऋजु अर्थात् धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने वाले, (वृषणं) बलवान्, दुष्टों पर शर वृष्टि करने वाले, ( मारुतं गणम् ) वायु के समान तीव्र बेगवान् शत्रुओं के मारने वाले सैनिकों के गण को हम ( हवसा ) देने योग्य वेतन, स्वीकार योग्य उपहार, तथा भक्ष्य भोज्य आदि द्वारा ( गृणीमसि ) शिक्षित करें या उनका आदर करें । हे प्रजाजनो ! तुम उनको ( श्रिये ) लक्ष्मी या ऐश्वर्य और शरण या आश्रय प्राप्त करने के लिये ( सश्चत ) प्राप्त करो । वायुगग के पक्ष में—घर्षण उत्पन्न करने वाले, पवित्रकारक ( वनिनं ) सब पदार्थों को पृथक् २ बांटने वाले, (विचर्षणिम्) विलेखन करने वाले, तीव्र, (रुद्रस्य सुनुम्) प्राण रूप से जीव के प्रेरक और परमेश्वर के पुत्र समान अथवा कारण रूप वायु से उत्पन्न को ( हवसा ) उसके ग्राह्य रूप से हम (गृणीमसि) उपदेश करें । हे मनुष्यो ! हम लोग (रजस्तुरम्) लोकों और धूलियों को वेग से चलाने वाले बलवान्, उत्तम जीवन के प्रेरक, वृष्टिकारक ( मारुतं गणम् ) वायुगण को ( श्रिये ) विद्या, शिक्षा, राज्य आदि सुख प्राप्ति के लिये प्राप्त होवें । पूर्वोक्त रीति से विद्वान् जन भी मरुत् हैं। वे भी पाप नाशक होने से ‘पावक’ हैं । ज्ञानोपदेश के दाता होने से ‘रुद्रके सूनु’ हैं। लोगों को चलाने वाले होने से ‘रजस्तुर’ हैं, ऋजु-मार्गगामी होने से ‘ऋजीषी’ हैं । उनको विद्या और ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये प्राप्त करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वायुओं के समुदाय कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! यथा वयं हवसा श्रिये रुद्रस्य सूनुं विचर्षणिं वनिनं घृषुं पावकं तवसं रजस्तुरम् ऋजीषिणं वृषणं मारुतं गणं गृणीमसि स्तुवीमः तं यूयम् अपि सश्चत विजानीत ॥१२॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम, (हवसा) ग्रहणत्यागभक्षणादिकर्मणा सह वर्त्तमानम्= ग्रहण करने, त्यागने और खाने आदि के कामों के, (श्रिये) विद्याशिक्षाराज्यधनप्राप्तये= विद्या, शिक्षा और राज्य के धन की प्राप्ति के लिये, (रुद्रस्य) परमेश्वरस्य जीवस्य वायुकरणस्य वा=ईश्वर, जीव और वायु के साधनों के, (सूनुम्) पुत्रवद्वर्त्तमानं प्राणिगर्भविमोचकं वा=पुत्र के समान वर्त्तमान अथवा गर्भ में आने से मुक्ति प्राप्त करनेवाले प्राणियों के, (विचर्षणिम्) विलेखकम्=पवनों के समूह, (वनिनम्) संभक्तारम्= पवनों के समूह, (घृषुम्) घर्षणशीलम्= घर्षण करने के स्वभाववाले, (पावकम्) पवित्रकारकम्=पवित्र करनेवाले, (तवसम्) महाबलयुक्तम्=महा बलशाली, (रजस्तुरम्) यो रजांसि लोकान् तुरति तूर्णगमनागमनहेतुम्=लोकों में शीघ्र जाने आने के कारण, (ऋजीषिणम्) प्रशस्तमुपार्जनं विद्यते यस्मिंस्तम्=प्रशस्त संपत्ति अर्जित करनेवाले, (वृषणम्) वृष्टिकारकम्= बरसा करनेवाले, (मारुतम्) मरुतां वायूनामिमम् =पवनों के, (गणम्) समूहम् =समूह की, (गृणीमसि) स्तुवीमः=स्तुति करते हैं, (तम्)=उन, (यूयम्)=आप सबको, (अपि)=भी, (सश्चत) विजानीत प्राप्नुत वा=जानें या प्राप्त करें॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    वायुओं के समुदाय के विना मनुष्यों के कोई व्यवहार और क्रिया सिद्ध नहीं हो सकती है, निश्चित रूप से अवश्य ही वायु की विद्या को स्वीकार करके अपने कार्यों की सिद्धि करनी चाहिए ॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे (वयम्) हम (हवसा) ग्रहण करने, त्यागने और खाने आदि के कामों, (श्रिये) विद्या, शिक्षा और राज्य के धन की प्राप्ति के लिये, (रुद्रस्य) ईश्वर, जीव और वायु के साधनों और (सूनुम्) पुत्र के समान वर्त्तमान अथवा गर्भ में आने से मुक्ति प्राप्त करनेवाले प्राणियों के, (विचर्षणिम्) पवनों के समूह जो (घृषुम्) घर्षण करने के स्वभाववाले, (पावकम्) पवित्र करनेवाले, (तवसम्) महा बलशाली, (रजस्तुरम्) लोकों में शीघ्र जाने आने के साधन, (ऋजीषिणम्) प्रशस्त संपत्ति अर्जित करनेवाले और (वृषणम्) बरसा करनेवाले (मारुतम्) पवनों के (गणम्) समूह की (गृणीमसि) स्तुति करते हैं। (तम्) उन (यूयम्) आप सबको (अपि) भी (सश्चत) जानें और प्राप्त करें॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (घृषुम्) घर्षणशीलम् (पावकम्) पवित्रकारकम् (वनिनम्) संभक्तारम् (विचर्षणिम्) विलेखकम् (रुद्रस्य) परमेश्वरस्य जीवस्य वायुकरणस्य वा (सूनुम्) पुत्रवद्वर्त्तमानं प्राणिगर्भविमोचकं वा (हवसा) ग्रहणत्यागभक्षणादिकर्मणा सह वर्त्तमानम् (गृणीमसि) स्तुवीमः (रजस्तुरम्) यो रजांसि लोकान् तुरति तूर्णगमनागमनहेतुम् (तवसम्) महाबलयुक्तम् (मारुतम्) मरुतां वायूनामिमम् (गणम्) समूहम् (ऋजीषिणम्) प्रशस्तमुपार्जनं विद्यते यस्मिंस्तम् (वृषणम्) वृष्टिकारकम् (सश्चत) विजानीत प्राप्नुत वा (श्रिये) विद्याशिक्षाराज्यधनप्राप्तये ॥१२॥ विषयः- पुनस्तत्समुदायः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्याः ! यथा वयं हवसा श्रिये रुद्रस्य सूनुं विचर्षणिं वनिनं घृषुं पावकं तवसं रजस्तुरमृजीषिणं वृषणं मारुतं गणं गृणीमसि स्तुवीमस्तं यूयमपि सश्चत विजानीत ॥१२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्नहि वायुसमुदायेन विना काचिद्व्यवहारक्रिया भवितुं शक्येति निश्चित्यावश्यं वायुविद्यां स्वीकृत्य स्वकीयानि कार्य्याणि साधनीयानि ॥१२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वायू समुदायाशिवाय आपले कोणतेही कार्य सिद्ध होऊ शकत नाही असा माणसांनी निश्चय करून वायुविद्येचा स्वीकार करावा व आपल्या कार्याची सिद्धी अवश्य करावी. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We invoke, praise and celebrate in song the band of Maruts, nature’s powers of grinding and crushing, purifying as fire with refinement, generous, ever active, children of Rudra, i.e., products of cosmic metabolism in the process of joining, disjoining, consuming and creating. You too love, study and serve the Maruts, most active energy of the universe, fiery and powerful, creative and collective forces which bestow the gifts of life on us. Do so for beauty, prosperity and grace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As we praise for the education and prosperity the band of the mighty winds which cause rain, which are the sons of God, which are impetuous, overcoming all, purifiers, Powerful, quickly moving in the worlds, endowed with causes of taking, leading eating and other activities like the great heroes who are experts in battles, attentive in their works, sons of the commander of the army, drinkers of Soma and other nourishing drinks and purifiers of all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हवसा) ग्रहणत्यागभक्षणादि कर्मणा सह वर्तमानम् | =Existing with or causing taking, leaving, eating and other activities. (रुद्रस्य) परमेश्वरस्य, वायुकारणस्यवा | = Of God, of soul or of Vayu [wind] in collective form.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that no movement is possible without air, therefore they should master the science of air and accomplish all their works utilising the wind properly.

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    Subject of the mantra

    Then how are the groups of air, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (vayam) =we, (havasā) = actions like taking, giving up and eating etc., (śriye)=For the attainment of knowledge, education and state wealth, (rudrasya) =God, creatures and means of air and, (sūnum)=of the beings present like a son or who attain salvation by coming into the womb, (vicarṣaṇim)=those groups of air, (ghṛṣum)=having a nature of friction, (pāvakam) =purifier, (tavasam)=very powerful, (rajasturam)=means of quick travel between worlds, (ṛjīṣiṇam)= those who have acquired vast wealth and, (vṛṣaṇam)= those who make it to rain, (mārutam) =of airs, (gaṇam) =of group, (gṛṇīmasi) =praise, (tam) =to those, (yūyam) =to you all, (api) =also, (saścata) =must know and obtain.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! For the purposes of taking, giving up and eating, etc., for the attainment of knowledge, education and the wealth of the kingdom, we seek the resources of God, creatures and air, and the groups of beings present like a son or who have attained liberation by coming into the womb, groups of air. That, who is of the nature of friction, purifies, is very powerful, who is the means for coming and going to the worlds quickly, who acquires vast wealth and is praised by the group of winds that make it to rain. Know and obtain them all of you as well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the group of airs, no practice and action of human beings can be accomplished, one must definitely accept the knowledge of airs and accomplish one's tasks.

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