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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 14
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    च॒र्कृत्यं॑ मरुतः पृ॒त्सु दु॒ष्टरं॑ द्यु॒मन्तं॒ शुष्मं॑ म॒घव॑त्सु धत्तन। ध॒न॒स्पृत॑मु॒क्थ्यं॑ वि॒श्वच॑र्षणिं तो॒कं पु॑ष्येम॒ तन॑यं श॒तं हिमाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒र्कृत्य॑म् । म॒रु॒तः॒ । पृ॒त्ऽसु । दु॒स्तर॑म् । द्यु॒ऽमन्त॑म् । शुष्म॑म् । म॒घव॑त्ऽसु । ध॒त्त॒न॒ । ध॒न॒ऽस्पृत॑म् । उ॒क्थ्य॑म् । वि॒श्वऽच॑र्षणिम् । तो॒कम् । पु॒ष्ये॒म॒ । तन॑यम् । श॒तम् । हिमाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चर्कृत्यं मरुतः पृत्सु दुष्टरं द्युमन्तं शुष्मं मघवत्सु धत्तन। धनस्पृतमुक्थ्यं विश्वचर्षणिं तोकं पुष्येम तनयं शतं हिमाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चर्कृत्यम्। मरुतः। पृत्ऽसु। दुस्तरम्। द्युऽमन्तम्। शुष्मम्। मघवत्ऽसु। धत्तन। धनऽस्पृतम्। उक्थ्यम्। विश्वऽचर्षणिम्। तोकम्। पुष्येम। तनयम्। शतम्। हिमाः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मरुतः मनुष्या ! यथा वयं पृत्सु चर्कृत्यं दुष्टरं द्युमन्तं शुष्मं बलं मघवत्सु धनस्पृतमुक्थ्यं विश्वचर्षणिं तोकं तनयं प्राप्य शतं हिमाः पुष्येम तथाऽनुष्ठाय यूयं सुखं धत्तन ॥ १४ ॥

    पदार्थः

    (चर्कृत्यम्) पुनः पुनः कर्त्तव्येषु साधुम्। अत्र यङ्लुङन्तात्करोतेः क्तस्ततः साध्वर्थे यत्। (मरुतः) वायुवद्वर्त्तमानाः (पृत्सु) पृतनासु सेनासु (दुष्टरम्) दुःखेन तरितुं योग्यम् (द्युमन्तम्) बहुप्रकाशवन्तम् (शुष्मम्) शोषकम् (मघवत्सु) प्रशस्तधनयुक्तेषु राजसु (धत्तन) धत्त (धनस्पृतम्) धनेन प्रीतं सेवितं वा (उक्थ्यम्) वक्तुं श्रोतुं योग्यम् (विश्वचर्षणिम्) सर्वदर्शकम् (तोकम्) अपत्यम् (पुष्येम) पुष्टा भवेम (तनयम्) विद्वांसं पौत्रम् (शतम्) शतसंख्याकान् (हिमाः) हेमन्तानृतून् ॥ १४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिर्मरुतां विद्याग्रहणाय युक्त्योपयोगः क्रियते तथान्येऽप्याचरन्तु ॥ १४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) पवनवद्वर्त्तमान मनुष्यो ! जैसे हम (पृत्सु) सेनाओं में (चर्कृत्यम्) वार-वार करने योग्य कार्यों में कुशल (दुष्टरम्) दुःख से पार होने योग्य (द्युमन्तम्) अति प्रकाशयुक्त (शुष्मम्) सुखानेवाले बल को (मघवत्सु) प्रशंसनीय धनयुक्त राजकार्य्यों में (धनस्पृतम्) धन से प्रसन्न वा सेवा को प्राप्त हुए (उक्थ्यम्) कहने-सुनने योग्य (विश्वचर्षणिम्) सबको देखने योग्य (तोकम्) पुत्र तथा (तनयम्) विद्वान् पौत्र को प्राप्त होके (शतं हिमाः) हेमन्त ऋतु युक्त सौ वर्ष पर्य्यन्त (पुष्येम) बल, पराक्रम आदि से पुष्ट होवें, वैसे कर्म करके तुम भी सुख को (धत्तन) धारण करो ॥ १४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग पवनों के योग से हमारे बिजुली, यन्त्र, बैल, सौ वर्ष पर्य्यन्त जीना और शरीर आदि में पुष्टि का होना ये सब काम होते हैं, इसलिए इन वायुओं की विद्या को युक्ति के साथ जान कर-उपयोग में लिया करते हैं, वैसे अन्य लोग भी आचरण करें ॥ १४ ॥

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    विषय

    कैसा तोक व तनय

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में कहा था कि प्राणसाधना करनेवाला धनों का अर्जन करता है और धनार्जन करके उसे यज्ञों में विनियुक्त करता है । इन (मघवत्सु) = [मघ - मख] ऐश्वर्य का यज्ञों का विनियोग करनेवाले पुरुषों में (मरुतः) = हे प्राणो ! (तोकम्) = पुत्र को, (तनयम्) = पौत्र को (धत्तन) = धारण करो । कैसे पुत्र - पौत्र को, [क] (चर्कृत्यम्) = खूब कार्य करनेवाले , सर्वकर्म - कुशल, [ख] (पृत्सु दुष्टरम्) = संग्रामों में शत्रुओं से न तैरने योग्य, अर्थात् संग्राम में शत्रुओं के लिए अजेय, [ग] (द्युमन्तम्) = ज्योतिर्मय, [घ] (शुष्मम्) = शत्रुओं के शोषक, अर्थात् बलवान् [ङ] (धनस्पृतम्) = धनों का स्पर्श करनेवाले, अर्थात् खूब कमानेवाले, [च] (उक्थ्यम्) = स्तुतियों में उत्तम, [छ] (विश्वचर्षणिम्) = [सर्वस्य द्रष्टारम् - सा०] सबका ध्यान करनेवाले पुत्र को (शतं हिमाः) = सौ वर्षपर्यन्त जीवित रहते हुए (पुष्येम) = पुष्ट करें । २. एवं प्रस्तुत मन्त्रार्थ से स्पष्ट है कि जिस घर में धनों का विनियोग यज्ञों में होता है, उस घर में सन्तान उत्तम होते हैं तथा उस घर के व्यक्ति शतवर्ष के दीर्घजीवी होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - धनों का यज्ञों में विनियोग करते हुए हम उत्तम सन्तान व दीर्घजीवन प्राप्त करें ।

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    विषय

    प्रमुख नायकों की स्थापना

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) विद्वान् वीर पुरुषो ! आप लोग ( चर्त्कृयं ) समस्त करने योग्य कार्यों में कुशल ( पृत्सु दुस्तरं ) संग्रामों में शत्रुओं से पराजित न होने वाले, (द्युमन्तम्) सूर्य के समान तेजस्वी, ( शुष्मम् ) बलवान् (धनस्पृतम्) ऐश्वर्यों को कमाने या उसकी रक्षा करने वाले (विश्वचर्षणिम्) समस्त राष्ट्र के द्रष्टा, ( तोकम् ) शत्रु के नाशकारी ( तनयम् ) राष्ट्र के विस्तार करने वाले पुरुष को ( मघवत्सु ) धन सम्पन्न पुरुषों के ऊपर ( धत्तन ) स्थापित करो। अपने पुत्र और पौत्र के समान प्रिय, ऐसे ( उक्थ्यम् ) प्रशंसनीय को हम (शर्त हिमाः) सौ बरसों तक ( पुष्येम ) पुष्ट करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मरुतः मनुष्या ! यथा वयं पृत्सु चर्कृत्यं दुष्टरं द्युमन्तं शुष्मं बलं मघवत्सु धनस्पृतम् उक्थ्यं विश्वचर्षणिं तोकं तनयं प्राप्य शतं हिमाः पुष्येम तथा अनुष्ठाय यूयं सुखं धत्तन ॥१४॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) वायुवद्वर्त्तमानाः=वायु के समान वर्त्तमान, (मनुष्याः)=मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम, (पृत्सु) पृतनासु सेनासु=सेनाओं में, (चर्कृत्यम्) पुनः पुनः कर्त्तव्येषु साधुम्=बार-बार कर्त्तव्यों में उत्तम, (दुष्टरम्) दुःखेन तरितुं योग्यम्=दुःख से पार होने के योग्य, (द्युमन्तम्) बहुप्रकाशवन्तम्=बहुत प्रकाशवाले, (शुष्मम्) शोषकम्=नष्ट करनेवाले, (बलम्)= बल को, (मघवत्सु) प्रशस्तधनयुक्तेषु राजसु=प्रशस्त धन से युक्त राज्यों में, (धनस्पृतम्) धनेन प्रीतं सेवितं वा=धन या प्रेम से सेवन किये हुए, (उक्थ्यम्) वक्तुं श्रोतुं योग्यम्=कहने और सुनने योग्य, (विश्वचर्षणिम्) सर्वदर्शकम्=सबको दिखानेवाले, (तोकम्) अपत्यम्=सन्तान, (तनयम्) विद्वांसं पौत्रम्=विद्वान् पौत्र को, (प्राप्य)= प्राप्त करके, (शतम्) शतसंख्याकान्=सौ, (हिमाः) हेमन्तानृतून्=हेमन्त ऋतुओं में, (पुष्येम) पुष्टा भवेम= पुष्ट होवें, (तथा)=वैसे ही, (अनुष्ठाय)= अनुष्ठान करके, (यूयम्)=तुम सब, (सुखम्)= सुख को, (धत्तन) धत्त= धारण करो ॥१४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोगों के द्वारा पवनों से सम्बन्धित विद्या के ग्रहण करने के लिये और उसके उपयुक्त प्रयोग किये जाते हैं, वैसे अन्य लोग भी आचरण करें ॥१४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मरुतः) वायु के समान वर्त्तमान (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे (वयम्) हम (पृत्सु) सेनाओं में, (चर्कृत्यम्) बार-बार कर्त्तव्यों में उत्तम, (दुष्टरम्) दुःख से पार होने के योग्य, (द्युमन्तम्) बहुत प्रकाशवाले, (शुष्मम्) नष्ट करनेवाले, (बलम्) बल का (मघवत्सु) प्रशस्त धन से युक्त राज्यों में, (धनस्पृतम्) धन या प्रेम से सेवन किये हुए, (उक्थ्यम्) कहने और सुनने योग्य, (विश्वचर्षणिम्) सबको दिखानेवाले, (तोकम्) सन्तान (तनयम्) विद्वान् पौत्र को (प्राप्य) प्राप्त करके (शतम्) सौ (हिमाः) हेमन्त ऋतुओं में (पुष्येम) पुष्ट होवें। (तथा) वैसे ही (अनुष्ठाय) अनुष्ठान करके (यूयम्) तुम सब (सुखम्) सुख को (धत्तन) धारण करो ॥१४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (चर्कृत्यम्) पुनः पुनः कर्त्तव्येषु साधुम्। अत्र यङ्लुङन्तात्करोतेः क्तस्ततः साध्वर्थे यत्। (मरुतः) वायुवद्वर्त्तमानाः (पृत्सु) पृतनासु सेनासु (दुष्टरम्) दुःखेन तरितुं योग्यम् (द्युमन्तम्) बहुप्रकाशवन्तम् (शुष्मम्) शोषकम् (मघवत्सु) प्रशस्तधनयुक्तेषु राजसु (धत्तन) धत्त (धनस्पृतम्) धनेन प्रीतं सेवितं वा (उक्थ्यम्) वक्तुं श्रोतुं योग्यम् (विश्वचर्षणिम्) सर्वदर्शकम् (तोकम्) अपत्यम् (पुष्येम) पुष्टा भवेम (तनयम्) विद्वांसं पौत्रम् (शतम्) शतसंख्याकान् (हिमाः) हेमन्तानृतून् ॥१४॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मरुतः मनुष्या ! यथा वयं पृत्सु चर्कृत्यं दुष्टरं द्युमन्तं शुष्मं बलं मघवत्सु धनस्पृतमुक्थ्यं विश्वचर्षणिं तोकं तनयं प्राप्य शतं हिमाः पुष्येम तथाऽनुष्ठाय यूयं सुखं धत्तन ॥१४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिर्मरुतां विद्याग्रहणाय युक्त्योपयोगः क्रियते तथान्येऽप्याचरन्तु ॥१४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे वायूच्या योगाने विद्युत, यंत्रे, बल, शतायुषी जीवन व शरीराची पुष्टी ही सर्व कामे होतात. त्यासाठी या वायूची विद्या युक्तीने जाणून विद्वान लोक उपयोग करून घेतात तसे इतरांनीही वागावे. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Maruts, heroes of the world, bear for us valour and virility of sustained value for work, strength and courage irresistible in battles, and brilliant excellence among people of power and honour. Bless us with a son and a grandson, winner of wealth and victory, worthy of praise and universally admirable, whom we may nurse, nourish, protect and promote for a hundred years to advance in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they [Maruts] is taught further in the fourteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, may we among the wealthy kings obtain strength which enables us to discharge our duties, which is invincible in battles with wicked persons and illustrious. May we have also sons & grandsons who are annihilators of their adversaries the seizers of wealth from the hands of the wicked, the deservers of praise and all deserving. May we cherish such sons and grandsons for a hundred winters and be always full of bliss.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मरुतः) वायुवदवर्तमाना: = Men mighty like the winds. (तोकम् ) अपत्यम् ( तनयम्) विख्यातं तत्पुत्रम् || = Learned son and famous grandson.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Other men also should try to acquire the knowledge of the winds or the science of airs as learned scientists do.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of qualities are those aforesaid airs, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (marutaḥ) =who are present like the wind, (manuṣyāḥ)=humans, (yathā)=like (vayam)=we,(pṛtsu) =in armies, (carkṛtyam)=excellent in duties again and again, (duṣṭaram)=capable of overcoming sorrow, (dyumantam)=having lots of light, (śuṣmam)=destroyers, (balam) of force, (maghavatsu) In states with abundant wealth, (dhanaspṛtam) =served by money or love, (ukthyam)= worth saying and hearing, (viśvacarṣaṇim)=the one who shows to everyone, (tokam) =child, (tanayam)=to learned grandson, (prāpya) =by obtaining, (śatam)=hundred, (himāḥ)=in hemanta seasons, (puṣyema)=become strong, (tathā) =similarly, (anuṣṭhāya) by performing rituals, (yūyam) =all of you, (sukham)=to happiness, (dhattana)=attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans who are present like the wind! Just as we are in armies, excellent in performing duties again and again, capable of overcoming sorrows, having lots of light, destroyers, abundant in strength, in kingdoms full of wealth, served by wealth or love, capable of speaking and hearing, showing to everyone. May you be blessed with a learned grandson and become strong in a hundred Hemant seasons. Similarly by performing the same rituals, you all attain happiness.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as learned people do to acquire the knowledge related to airs and make appropriate use of it, others should also behave in the same manner.

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