ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 4
चि॒त्रैर॒ञ्जिभि॒र्वपु॑षे॒ व्य॑ञ्जते॒ वक्षः॑सु रु॒क्माँ अधि॑ येतिरे शु॒भे। अंसे॑ष्वेषां॒ नि मि॑मृक्षुर्ऋ॒ष्टयः॑ सा॒कं ज॑ज्ञिरे स्व॒धया॑ दि॒वो नरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रैः । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । वपु॑षे । वि । अ॒ञ्ज॒ते॒ । वक्षः॑ऽसु । रु॒क्मान् । अधि॑ । ये॒ति॒रे॒ । शु॒भे । अंसे॑षु । ए॒षा॒म् । नि । मि॒मृ॒क्षुः॒ । ऋ॒ष्टयः॑ । सा॒कम् । ज॒ज्ञि॒रे॒ । स्व॒धया॑ । दि॒वः । नरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रैरञ्जिभिर्वपुषे व्यञ्जते वक्षःसु रुक्माँ अधि येतिरे शुभे। अंसेष्वेषां नि मिमृक्षुर्ऋष्टयः साकं जज्ञिरे स्वधया दिवो नरः ॥
स्वर रहित पद पाठचित्रैः। अञ्जिऽभिः। वपुषे। वि। अञ्जते। वक्षःऽसु। रुक्मान्। अधि। येतिरे। शुभे। अंसेषु। एषाम्। नि। मिमृक्षुः। ऋष्टयः। साकम्। जज्ञिरे। स्वधया। दिवः। नरः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्याः ! यूयं य एते ऋष्टयो नरो वायवश्चित्रैरञ्जिभिः शुभे वपुषे व्यञ्जते वक्षःसु रुक्मानधियेतिरे स्वधया साकं जज्ञिरे जायन्ते दिवो जनयन्ति चैषामंसेषु निमिमृक्षुः सर्वे पदार्थाः सहन्ते तान् विदित्वा सम्प्रयोजयत ॥ ४ ॥
पदार्थः
(चित्रैः) अद्भुतक्रियास्वभावैः (अञ्जिभिः) व्यक्तीकरणादिधर्मैः (वपुषे) शरीरधारणपोषणाग्निरूपप्रकाशाय। वपुरिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (वि) विशेषार्थे (अञ्जते) गच्छन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वक्षःसु) हृदयेषु (रुक्मान्) विद्युज्जाठराग्निप्रकाशान् (अधि) उपरिभावे (येतिरे) प्रयतन्ते (शुभे) शोभनाय (अंसेषु) बलपराक्रमाधिकरणेषु भुजमूलेषु (एषाम्) वायुनां योगे (नि) नितराम् (मिमृक्षुः) सहन्ते। अत्र बहुलं छन्दसीत्यभ्यासस्येत्वम्। (ऋष्टयः) गमनागमनशीलाः (साकम्) सह (जज्ञिरे) जायन्ते जनयन्ति वा (स्वधया) पृथिव्यादिनान्नेन वा (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशान् (नरः) नेतारः ॥ ४ ॥
भावार्थः
विद्वद्भिरीदृग्दिव्यगुणान् वायून् विदित्वा शुद्धानि सुखानि भोक्तव्यानि ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जो ये (ऋष्टयः) इधर-उधर चलने तथा (नरः) पदार्थों को प्राप्त करनेवाले पवन (चित्रैः) आश्चर्य्यरूप क्रिया, गुण और स्वभाव तथा (अञ्जिभिः) प्रकट करना आदि धर्मों से (शुभे) सुन्दर (वपुषे) शरीर के धारण वा पोषण के लिये (व्यञ्जते) विशेष करके प्राप्त होते हैं, जो (वक्षःसु) हृदयों में (रुक्मान्) बिजुली तथा जाठराग्नि के प्रकाशों को (अधियेतिरे) यत्नपूर्वक सिद्ध करते (स्वधया) पृथिवी, आकाश तथा अन्न के (साकम्) साथ (जायन्ते) उत्पन्न होते और (दिवः) सूर्य आदि के प्रकाशों को उत्पन्न करते हैं, (एषाम्) इन पवनों के योग से (अंसेषु) बल, पराक्रम के मूल कन्धों में (निमिमृक्षुः) सब पदार्थ समूह को प्राप्त हो सकते हैं, उनको यथावत् जानकर अपने कार्य्यों में सम्प्रयुक्त करो ॥ ४ ॥
भावार्थ
विद्वानों को उचित है कि ऐसे-ऐसे विलक्षण गुणवाले वायुओं को जानकर शुद्ध-शुद्ध सुखों को भोगें ॥ ४ ॥
विषय
मरुतः
पदार्थ
१. मरुत् देवता के ये मन्त्र हैं । ‘मरुत्’ शब्द सैनिकों के लिए प्रयुक्त होता है, ‘म्रियन्ते’ मर जाते हैं, परन्तु रणांगण में ये पीठ नहीं दिखाते । ये मरुत् (चित्रैः) = अद्भुत (अञ्जिभिः) = सुन्दररूप को व्यक्त करनेवाले आभूषणों से (वपुषे) = शरीर की शोभा के लिए (व्यञ्जते) = अपने को अलंकृत करते हैं । ये क्षत्रिय लोग केयूर, अङ्गदादि आभूषणों को धारण करते हैं । २. (वक्षःसु) = अपनी छातियों पर (रुक्मान्) = सोने के चमकते हुए हारों को अथवा स्वर्णपदकों को [Gold medals] (शुभे) = शोभा के लिए (अधि येतिरे) = [उपरि चक्रिरे] अपने वस्त्रों पर धारण करते हैं । ३. (एषाम्) = इन वीर सैनिकों के (अंसेषु) = कन्धों पर (ऋष्टयः) = शत्रुसंहारक [ऋष् to kill] अस्त्र (निमिमृक्षुः) = चमकते हुए स्थित होते हैं [निमृष्टाः स्थिता बभूवुः - सा०] । ३. ये (दिवः) = शत्रुओं को जीतने की कामनावाले [दिव् विजिगीषा] (नरः) = सदा आगे बढ़नेवाले मरुत् (स्वधया साकम्) = आत्मधारण शक्ति के साथ (जज्ञिरे) = प्रादुर्भूत होते हैं अथवा (स्व) = अपने देश को (धा) = धारण करने की शक्ति के (साकम्) = साथ (जज्ञिरे) = विकसित होते हैं । १. शरीर में मरुत् प्राणों का वाचक है । ये प्राण (चित्रैः) = ज्ञान को देनेवाले (अञ्जिभिः) = पदार्थों के स्वरूप को प्रकट करनेवाले ज्ञानों से (वपुषे) = शरीर की शोभा के लिए (अञ्जते) = मानव - जीवन को अलंकृत करते हैं । २. (वक्षःसु) = हृदयों में (रुकमान्) = स्वर्ण के समान देदीप्यमान शुद्ध भावों को (अधि येतिरे) = [उपरि चक्रिरे] प्रबल करते हैं ताकि (शुभे) = जीवन की शोभा बढ़े । ३. (एषाम्) = इन प्राणों के (अंसेषु) = कन्धों पर (ऋष्टयः) = सब प्रकार की गतियाँ (निमिमृक्षुः) = शुद्ध होकर स्थित होती हैं, अर्थात् प्राणसाधना से सब क्रियाएँ पवित्र हो जाती हैं । ४. ये प्राण (दिवः) = प्रकाशमय हैं, बुद्धि को दीप्त करनेवाले हैं, (नरः) = हमें आगे ले - चलनेवाले हैं तथा (स्वधया) = आत्मतत्त्व को धारण की शक्ति के (साकम्) = साथ (जज्ञिरे) = प्रादुर्भूत होते हैं । प्राणसाधना से ही आत्मस्वरूप के दर्शन की योग्यता उत्पन्न होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - देश की रक्षा में जो स्थान सैनिकों का है वही स्थान शरीर में प्राणों का है । प्राणसाधना उतनी ही आवश्यक है जितनी कि देशरक्षा के लिए सैन्यशक्ति ।
विषय
ब्रह्मचारी रुद्रों, और सैनिकों का वर्णन ।
भावार्थ
( दिवः) तेजस्वी राजा के ( नरः ) नायक, वीरगण, (चित्रैः) नाना प्रकार के ( अंजिभिः ) अपने को प्रकट करने वाले चिह्नों, अंकों या पोशाकों और बैजों द्वारा ( वपुषे ) अपने शरीर को (वि अञ्जते) विविध रूप से प्रकट करते या सजावें । और (शुभे) शोभा के निमित्त वे अपने (वक्षःसु) छातियों पर ( रुक्मान् ) स्वर्णपदकों को ( येतिरे ) लगावें । और (एषां अंसेषु) इनके कन्धों पर ( ऋष्टयः ) शत्रुनाशक हथियार, दण्ड, भाले आदि ( नि मिभृक्षुः ) शोभा देवें । वे ऐसे ( स्वधया ) पृथिवी के विजय और पालन की शक्ति के साथ (साकम्) एक साथ (जज्ञिरे) प्रकट हो । प्राण वायुओं के पक्ष में—( चित्रः ) अद्भुत क्रिया करने वाले ( अंजिभिः ) प्रकट करने की चेष्टा प्रकट करने वाले, ( वपुषे ) शरीर के धारण पोषणकारी रूप को प्रकट करने के लिए ( वि अंजते ) विविध रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं। और वे ( शुभे ) शोभा के लिए ( वक्षःसु ) छातियों में, बीच वायुगण (रुक्मान्) रोचक, दीप्तिमान् विद्युत् । जठराग्नि आदि पदार्थों को धारण करते हैं। इनके (अंसेषु ) बल पराक्रमों पर ( ऋष्टयः ) शरीर भाले अपने की नाना गतियें ( निमृमृक्षुः ) निरन्तर होती रहती हैं। और वे (दिवः) चेतना ज्ञान के ( नरः ) नायक प्राणगण ( स्वधया ) स्व अर्थात् शरीर को धारण करने वाली चेतना शक्ति के साथ (जज्ञिरे) प्रकट होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वे पवन कैसे हैं, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्याः ! यूयं य एते ऋष्टयः नरः वायवः चित्रैः अञ्जिभिः शुभे वपुषे वि अंञ्जते वक्षःसु रुक्मान् अधि येतिरे स्वधया साकं जज्ञिरे जायन्ते दिवः जनयन्ति च एषाम् अंसेषु निमिमृक्षुः सर्वे पदार्थाः सहन्ते तान् विदित्वा सम्प्रयोजयत ॥४॥
पदार्थ
हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः)=जो, (एते)=इन, (ऋष्टयः) गमनागमनशीलाः=जाने और आनेवाले, (नरः) नेतारः=ले जानेवाले, (वायवः)= वायुओं की, (चित्रैः) अद्भुतक्रियास्वभावैः= अद्भुत क्रिया और स्वभाव से, (अञ्जिभिः) व्यक्तीकरणादिधर्मैः=प्रकट करने के स्वभाव से, (शुभे) शोभनाय=उत्तमता के लिये, (वपुषे) शरीरधारणपोषणाग्निरूपप्रकाशाय= शरीर के धारण और पोषण के लिये अग्नि के रूप को प्रकाशित करने के लिये, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (अञ्जते) गच्छन्ति=जाते हैं, (वक्षःसु) हृदयेषु=हृदयों में, (रुक्मान्) विद्युज्जाठराग्निप्रकाशान्= विद्युत् और जाठराग्नि का प्रकाश करके, (अधि) उपरिभावे=ऊपर से, (येतिरे) प्रयतन्ते=नियंत्रित करते हैं, (स्वधया) पृथिव्यादिनान्नेन वा=पृथिवी आदि या अन्न के, (साकम्) सह=साथ, (जज्ञिरे) जायन्ते जनयन्ति वा=उत्पन्न होते हैं या उत्पन्न किये जाते हैं, (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशान् = सूर्य आदि के प्रकाश से, (जनयन्ति)= उत्पन्न किये जाते हैं, (च)=और, (एषाम्) वायुनां योगे=वायुओं के योग से, (अंसेषु) बलपराक्रमाधिकरणेषु भुजमूलेषु= बल और पराक्रम के आधार से, (नि) नितराम्=निरन्तर, (मिमृक्षुः) सहन्ते=सहन करते हैं, (सर्वे)=समस्त, (पदार्थाः)= पदार्थों को, (सहन्ते)= सहन करते हैं, (तान्)=उनको, (विदित्वा)=जानकर, (सम्प्रयोजयत)= अच्छी तरह से प्रयोग करो ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
विद्वानों को उचित है कि ऐसे-ऐसे विलक्षण गुणवाले वायुओं को जानकर शुद्ध-शुद्ध सुखों को भोगें ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यः) जो (एते) इन (ऋष्टयः) जाने-आनेवाले और (नरः) ले जानेवाले, (वायवः) वायुओं की (चित्रैः) अद्भुत क्रिया और स्वभाव से और (अञ्जिभिः) प्रकट करने के स्वभाव से (शुभे) उत्तमता के लिये, (वपुषे) शरीर के धारण और पोषण के लिये और अग्नि के रूप को प्रकाशित करने के लिये, (वि) विशेष रूप से (अञ्जते) जाते हैं, [वे वायु] (वक्षःसु) हृदयों में (रुक्मान्) विद्युत् और जाठराग्नि का प्रकाश करके (अधि) ऊपर से (येतिरे) नियंत्रित करते हैं। (स्वधया) पृथिवी आदि या अन्न के (साकम्) साथ (जज्ञिरे) उत्पन्न होते हैं या उत्पन्न किये जाते हैं। (च) और (एषाम्) वायुओं के योग से (अंसेषु) बल और पराक्रम के आधार से (नि) निरन्तर (सर्वे) समस्त (पदार्थाः) पदार्थों को (सहन्ते) सहन करते हैं, (तान्) उनको (विदित्वा) जानकर (सम्प्रयोजयत) अच्छी तरह से प्रयोग करो ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (चित्रैः) अद्भुतक्रियास्वभावैः (अञ्जिभिः) व्यक्तीकरणादिधर्मैः (वपुषे) शरीरधारणपोषणाग्निरूपप्रकाशाय। वपुरिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (वि) विशेषार्थे (अञ्जते) गच्छन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (वक्षःसु) हृदयेषु (रुक्मान्) विद्युज्जाठराग्निप्रकाशान् (अधि) उपरिभावे (येतिरे) प्रयतन्ते (शुभे) शोभनाय (अंसेषु) बलपराक्रमाधिकरणेषु भुजमूलेषु (एषाम्) वायुनां योगे (नि) नितराम् (मिमृक्षुः) सहन्ते। अत्र बहुलं छन्दसीत्यभ्यासस्येत्वम्। (ऋष्टयः) गमनागमनशीलाः (साकम्) सह (जज्ञिरे) जायन्ते जनयन्ति वा (स्वधया) पृथिव्यादिनान्नेन वा (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशान् (नरः) नेतारः ॥४॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं य एते ऋष्टयो नरो वायवश्चित्रैरञ्जिभिः शुभे वपुषे व्यञ्जते वक्षःसु रुक्मानधियेतिरे स्वधया साकं जज्ञिरे जायन्ते दिवो जनयन्ति चैषामंसेषु निमिमृक्षुः सर्वे पदार्थाः सहन्ते तान् विदित्वा सम्प्रयोजयत ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिरीदृग्दिव्यगुणान् वायून् विदित्वा शुद्धानि सुखानि भोक्तव्यानि॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी दिव्यगुणयुक्त वायूंना जाणून शुद्ध सुख भोगावे ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In various colourful shapes they manifest and define themselves in beautiful forms of nature. They activate the heat and light of vitality in the body system. Their dynamic powers shine in the athletic shoulders of their favourite heroes. Life of heroic people, they arise and shine with their innate light and power from heaven itself.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should know and properly use the Maruts (winds) which are moving hither and thither, which take people from place to place or carry things which are like the brave and mighty soldiers who decorate their persons with various ornaments, who place, for elegance, brilliant garlands on their breasts, lances are borne upon whose shoulders and who by taking suitable and nourishing food and by developing their strength have become leaders with the light of knowledge. It is with the help of these airs that these brave soldiers and all creatures can get power.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अंजिभिः) व्यक्तीकरणादिधर्में: = By manifesting signs or attributes. (ऋष्टयः) गमनागमनशीला: = Moving everywhere, active. (स्वधया) पृथिव्यादिना अनेन वा = With earth or food.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know the attributes of the Maruts (winds and brave soldiers mighty like them) and should enjoy pure happiness.
Translator's Notes
अंजिभिः is derived from अंजू-व्यक्ति अक्षण कान्तिगतिषु- hence Rishi Dayananda has interpreted it as व्यक्तिकरणादिधर्मै taking the first meaning of the verb : has been derived from at hence Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation as गमनागमनशीलाः=Going and coming. स्वधा इत्यन्ननाम (निघ० २. ७ ) Along with the attributes of the winds, the attributes of brave soldiers who should be mighty have been mentioned in many of the mantras like the above, hence the epithet : has been used which in the ease of winds can be taken only in secondary sense of carrying from णीञ-प्रापणे It is very wrong on the part of Prof. Maxmuller and other Western translators of the Vedas to translate the word "Maruts" as "Storm Gods."
Subject of the mantra
Then how are those winds, this subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =those, (ete) =these, (ṛṣṭayaḥ) passers-by and, (naraḥ)=those who carry, (vāyavaḥ) =of winds, (citraiḥ)=With wonderful action and nature and, (añjibhiḥ)=By nature of revealing, (śubhe)=For excellence, (vapuṣe)=For sustaining and nourishing the body and for illuminating the form of fire, (vi) =specially, (añjate) =go, [ve vāyu]=those winds, (vakṣaḥsu) =in hearts, (rukmān)= by lighting electricity and gastric fire, (adhi)=from above, (yetire) =control, (svadhayā) =of earth etc. or food, (sākam) =with, (jajñire)= are produced or get produced, (ca) and, (eṣām) =with combination of winds, (aṃseṣu)=On the basis of strength and bravery, (ni)= continuously, (sarve) samasta (padārthāḥ) padārthoṃ ko (sahante)=endure, (tān) =to them, (viditvā) =knowing, (samprayojayata)= use well.
English Translation (K.K.V.)
O humans! All of you who especially go to the wonderful action and nature of these going and coming and carrying winds for the sake of excellence, for the sustenance and nourishment of the body and for the illumination of the form of fire, by the nature of manifestation, They control the winds from above by radiating electricity and gastric fire in the hearts. They are created with earth etc. or food, or get produced and with the combination of winds, on the basis of strength and bravery, they continuously endure all things, knowing them, use them well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
By knowing the divine qualities of air in this way, scholars should enjoy pure pleasures.
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