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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    युवा॑नो रु॒द्रा अ॒जरा॑ अभो॒ग्घनो॑ वव॒क्षुरध्रि॑गावः॒ पर्व॑ताइव। दृ॒ळ्हा चि॒द्विश्वा॒ भुव॑नानि॒ पार्थि॑वा॒ प्र च्या॑वयन्ति दि॒व्यानि॑ म॒ज्मना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    युवा॑नः । रु॒द्राः । अ॒जराः॑ । अ॒भो॒क्ऽहनः॑ । व॒व॒क्षुः । अध्रि॑ऽगावः । पर्व॑ताःऽइव । दृ॒ळ्हा । चि॒त् । विश्वा॑ । भुव॑नानि । पार्थि॑वा । प्र । च्या॒व॒य॒न्ति॒ । दि॒व्यानि॑ । म॒ज्मना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवानो रुद्रा अजरा अभोग्घनो ववक्षुरध्रिगावः पर्वताइव। दृळ्हा चिद्विश्वा भुवनानि पार्थिवा प्र च्यावयन्ति दिव्यानि मज्मना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवानः। रुद्राः। अजराः। अभोक्ऽहनः। ववक्षुः। अध्रिऽगावः। पर्वताःऽइव। दृळ्हा। चित्। विश्वा। भुवनानि। पार्थिवा। प्र। च्यावयन्ति। दिव्यानि। मज्मना ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं य इमे पर्वताइव युवानोऽभोग्घनोऽध्रिगावोऽजरा रुद्रा जीवान् ववक्षु रोषयन्ति। मज्मना पार्थिवा दिव्यानि चिदपि विश्वा भुवनानि दृढा प्रच्यावयन्ति तान् विद्यया यथावद्विदित्वा कार्य्येषु संप्रयोजयत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (युवानः) मिश्रणामिश्रणकर्त्तृत्वेन बलिष्ठाः (रुद्राः) मरणज्वरादिपीडाहेतुत्वाद्रोदयितारः (अजराः) जन्मजरामृत्युधर्मादि-रहित्वात्कारणरूपेण नित्याः (अभोग्घनः) ये भोज्यन्ते ते भोजो हन्यन्ते ते हनः। भोजश्च ते हनो भोग्घनः न भोग्घनोऽभोग्घनस्ते (ववक्षुः) ये वक्षयन्ति रोषयन्ति ते (अध्रिगावः) अधृता गावो रश्मयो यैस्ते (पर्वताइव) यथा पर्वता मेघाः शैला वा धर्त्तारः सन्ति तथैव मूर्त्तद्रव्यधर्त्तारः (दृढा) दृढानि (चित्) अपि (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) सर्वेषां पदार्थानामधिकरणानि (पार्थिवा) पृथिवीत्याख्यस्य कारणस्य विकारभूतानि भूगोलाख्यानि कार्य्याणि (प्र) प्रकृष्टार्थे (च्यावयन्ति) प्रचालयन्ति (दिव्यानि) दिवि प्रकाशे भवानि सूर्य्यविद्युदादीनि (मज्मना) शुद्धिधारणक्षेपणाख्येन बलेन। अत्र मस्जधातोरौणादिको मनिन् प्रत्ययो बाहुलकात्सकारलोपश्च। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा मेघा जलाधिकरणाः शैलाश्चौषध्याद्यधिकरणाः सन्ति तथैवैते संयोगवियोगकर्त्तारः सर्वाधाराः सुखदुःखहेतवो नित्या रूपरहिताः स्पर्शवन्तो वायवः सन्तीति वेदितव्यम्। नह्येतैर्विना भूगोलजलाग्निपुञ्जाश्चैतेषां कणाश्च गन्तुमागन्तुं स्थातुं च शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो ये (पर्वताइव) पर्वत वा मेघ के समान धारण करनेवाले (युवानः) पदार्थों के मिलाने तथा पृथक् करने में बड़े बलवान् (अभोग्घनः) भोजन करने तथा मरने से पृथक् (अध्रिगावः) किरणों को नहीं धारण करनेवाले अर्थात् प्रकाशरहित (अजराः) जन्म लेके वृद्ध होना, फिर मरना इत्यादि कामों से रहित तथा कारणरूप से नित्य (रुद्राः) ज्वर आदि की पीडा से रुलानेवाले वायु जीवों को (ववक्षुः) रुष्ट करते हैं (मज्मना) बल से (पार्थिवा) भूगोल आदि (दिव्यानि) प्रकाश में रहनेवाले सूर्य आदि लोक (चित्) और (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक (दृढा) दृढ़ स्थिरों को भी (प्रच्यावयन्ति) चलायमान करते हैं, उनको विद्या से यथावत् जानकर कार्य्यों के बीच लगाओ ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे मेघ जलों के आधार और पर्वत ओषधि आदि के आधार हैं, वैसे ही ये संयोग-वियोग करनेवाले, सबके आधार, सुख-दुःख होने के हेतु, नित्यरूप, गुण से अलग, स्पर्श गुणवाले पवन हैं, ऐसा समझना योग्य है। और इन्हींके विना जल, अग्नि और भूगोल तथा इनके परमाणु भी जान-आने तथा ठहरने को समर्थ नहीं हो सकते ॥ ३ ॥

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    विषय

    युवानः पर्वता इव

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के प्रकरण को ही आगे ले - चलते हुए कहते हैं कि ये प्रभुभक्त [क] (युवानः) = अपने से दोषों का अमिश्रण व गुणों का मिश्रण करनेवाले होते हैं [यु मिश्रणामिश्रणयोः] । [ख] इसके लिए (रुद्राः) = [रोरूयमाणो द्रवति] प्रभु के नामों का उच्चारण करते हुए सदा कर्मों में लगे रहते हैं, [ग] इसलिए (अजराः) = कभी जीर्ण नहीं होते । [घ] (अभोग्घनः) = [न भोजयन्ति] ये औरों को न खिलाकर स्वयं खा जाने की वृत्ति को नष्ट करनेवाले होते हैं ; ‘अभोग्घन्’ होने के कारण ही (ववक्षुः) = ये सर्वाङ्गीण उन्नति करनेवाले होते हैं [wax-वक्ष्- to grow] । [ङ] (अधिग्रवः) = ये अधृतगमन होते हैं, इनके कार्यों में कोई विघ्न नहीं डाल सकता । बड़े - से - बड़े विघ्नों को भी दूर करके ये आगे बढ़ते चलते हैं । [च] (पर्वता इव) = ये पर्वतों के समान होते हैं । जैसे समुद्र - तरंगों के थपेड़े पर्वतों के विदीर्ण नहीं कर पाते वैसे ही संसार के प्रलोभन इन्हें विचलित नहीं कर पाते । [छ] (दुळ्हा चित्) = अत्यन्त दृढ़ भी (विश्वा) = सब (पार्थिवा भुवनानि) = पार्थिव भुवनों को (प्रच्यावयन्ति) = ये विचलित करनेवाले होते हैं, अर्थात् बड़े जबरदस्त पार्थिव प्रलोभनों के भी ये वशीभूत नहीं होते । बड़े - से - बड़े धन व यश का प्रलोभन इन्हें विचलित नहीं कर पाता । [ज] (मज्मना) = अपने शोधक बल से ये (दिव्यानि) = दिव्य प्रलोभनों को भी कम्पित करके दूर करनेवाले होते हैं । योगमार्ग पर चलते हुए जो सिद्धियाँ प्राप्त होती है, ये सिद्धियाँ भी इन्हें मार्ग से विचलित नहीं कर पाती, एवं पार्थिव व दिव्य प्रलोभनों से ये ऊपर उठ जाते हैं । शुद्धान्तः करणवाले बनकर ये सिद्धियों की तुच्छता को समझते हैं और इन्हें भी प्रभुप्राप्ति के मार्ग में विघ्नरूप में ही जानते हैं, अतः न तो ये पार्थिव सम्पत्तियों में फँसते हैं और न दिव्य सिद्धियों में ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुभक्त सदा दोषों को दूर करते हुए गुणों को अपने साथ सम्बद्ध करते हैं । शोधक बल को प्राप्त करके पार्थिव व दिव्य प्रलोभनों में नहीं फँसते ।

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    विषय

    ब्रह्मचारी रुद्रों, और सैनिकों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( युवानः ) युवा, बलशाली, ( रुद्राः ) दुष्टों को रुलाने हारे, (अजराः) कभी जीर्ण या दुर्बल न होने हारे (अभोग्धनः) किसी के अधीन होकर भोग्य और दण्डनीय न होने वाले ( अघ्रिगाव: ) शत्रुओं से असह्य वेगवान्, ( पर्वताः इव ) पर्वतों के समान अचल वीरगण (विश्वा) समस्त (दिव्यानि ) दिव्य, आकाशस्थ और ( पार्थिवा ) अथवा राजसभा और साधारण प्रजा के ( दृढ़ा ) दृढ़ ( भुवनानि ) समस्त जनों को ( यत् ) भी ( मज्मना ) अपने बल से ( प्र च्यावयन्ति ) विचलित कर देने वाले हों । प्राण-वायुओं और वायुओं के पक्ष में—( युवानः ) शरीर में रसों के मिलाने और तप्त करनेहारे, बलशाली ( रुद्राः ) मरण, ज्वर आदि पीड़ा द्वारा प्राणियों को रुलाने वाले, ( अभोग्-घनाः ) अन्न के समान भोग्य बनकर और दबकर न रहने वाले ( अध्रिगावः ) असह्य तीव्र वेगवाले अथवा प्रकाश किरणों को न धारण करने या न रोकनेवाले, (पर्वताः इव ) पर्वतों या मेघों के समान शरीरादि के या जीवन जलों के धारक होकर (दिव्यानि पार्थिवा) पृथिवी और तेज दोनों के बने विकार ( दृढ़ा ) कठिन रूप में आये हुए ( भुवनानि ) सबके मूल कारणों की ( प्रच्यावयन्ति ) संचालित करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर भी पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं य इमे पर्वताइव युवानः अभोग्घनः अध्रिगावः अजरा रुद्रा जीवान् ववक्षु रोषयन्ति मज्मना पार्थिवा दिव्यानि चित् अपि विश्वा भुवनानि दृढा प्र च्यावयन्ति तान् विद्यया यथावत् विदित्वा कार्य्येषु संप्रयोजयत ॥३॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)=मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः)=जो, (इमे)=इन दोनों. (पर्वताइव) यथा पर्वता मेघाः शैला वा धर्त्तारः सन्ति तथैव मूर्त्तद्रव्यधर्त्तारः=जैसे पर्वतों और बादलों को धारण करनेवाले हैं, वैसे ही ठोस पदार्थों को धारण करनेवाले, (युवानः) मिश्रणामिश्रणकर्त्तृत्वेन बलिष्ठाः=मिलाने और न मिलाने का कार्य करने में सर्वाधिक शक्तिशाली, (अभोग्घनः) ये भोज्यन्ते ते भोजो हन्यन्ते ते हनः=रक्षण करनेवाले और मारनेवाले, (अध्रिगावः) अधृता गावो रश्मयो यैस्ते=जिन्होंने किरणों को नियंत्रित नहीं किया वे, (अजराः) जन्मजरामृत्युधर्मादि-रहित्वात्कारणरूपेण नित्याः=जन्म, बुढ़ापे के परिणामस्वरूप होने वाली सामान्य शिथिलता, मृत्यु के धर्म आदि से रहित होकर वायु के कारण से नित्य, (रुद्राः) मरणज्वरादिपीडाहेतुत्वाद्रोदयितारः=मृत्यु, ज्वर आदि से पीड़ा के कारण रोनेवाले, (जीवान्)=जीवों का, (ववक्षुः) ये वक्षयन्ति रोषयन्ति ते= क्रोधित होनेवाले, (मज्मना) शुद्धिधारणक्षेपणाख्येन बलेन=शुद्धि को धारण करनेवाले और फेंकने के बल से, (पार्थिवा) पृथिवीत्याख्यस्य कारणस्य विकारभूतानि भूगोलाख्यानि कार्य्याणि=पृथिवी, इसके कारण और तत्त्वों के विकार से कहे गये कार्य, (दिव्यानि) दिवि प्रकाशे भवानि सूर्य्यविद्युदादीनि=सूर्य, विद्युत् आदि, (चित्) अपि=भी, (विश्वा) सर्वाणि=समस्त, (भुवनानि) सर्वेषां पदार्थानामधिकरणानि= संसार के सकल पदार्थों के आधार, (दृढा) दृढानि=दृढ, (प्र) प्रकृष्टार्थे= प्रकृष्ट रूप से, (च्यावयन्ति) प्रचालयन्ति=चलाये जाते हैं, (तान्)=उनको, (विद्यया)= विद्या से, (यथावत्)=ठीक-ठीक, (विदित्वा)=जानकर, (कार्य्येषु)=कार्यों में, (संप्रयोजयत)=अच्छी तरह से प्रयोग करो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यों ! जैसे बादल जलों के आधार हैं, पर्वत ओषधि आदि के आधार हैं, वैसे ही इनके संयोग-वियोग करनेवाले, सबके आधार, सुख-दुःख के कारण, नित्य रूप से रहित, स्पर्शवाले पवन हैं, ऐसा समझना चाहिए। इनके विना पृथिवी पर जल और अग्नि के समूह से कण जाने-आने तथा ठहरने में समर्थ नहीं हो सकते हैं ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यः) जो (इमे) इनमें (पर्वताइव) जैसे पर्वतों और बादलों को धारण करनेवाले हैं। वैसे ही ठोस पदार्थों को धारण करनेवाले, (युवानः) मिलाने और न मिलाने का कार्य करने में सर्वाधिक शक्तिशाली, (अभोग्घनः) रक्षण करनेवाले और मारनेवाले, (अध्रिगावः) जिन्होंने किरणों को नियंत्रित नहीं किया वे (अजराः) जन्म, बुढ़ापे के परिणामस्वरूप होने वाली सामान्य शिथिलता, मृत्यु के धर्म आदि से रहित होकर वायु के कारण से नित्य (रुद्राः) मृत्यु, ज्वर आदि से पीड़ा के कारण रोनेवाले (जीवान्) जीव, (ववक्षुः) क्रोधित होनेवाले, (मज्मना) शुद्धि को धारण करनेवाले हैं और फेंकने के बल से (पार्थिवा) पृथिवी, इसके कारण और तत्त्वों के विकार से कहे गये कार्य- [जैसे] (दिव्यानि) सूर्य, विद्युत् आदि (चित्) भी (विश्वा) समस्त (भुवनानि) संसार के सकल पदार्थों के आधार [रूप में] (दृढा) दृढ हैं और (प्र) प्रकृष्ट रूप से (च्यावयन्ति) चलाये जाते हैं, (तान्) उनको (विद्यया) विद्या से (यथावत्) ठीक-ठीक (विदित्वा) जानकर, (कार्य्येषु) कार्यों में (संप्रयोजयत) अच्छी तरह से प्रयुक्त कीजिये ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युवानः) मिश्रणामिश्रणकर्त्तृत्वेन बलिष्ठाः (रुद्राः) मरणज्वरादिपीडाहेतुत्वाद्रोदयितारः (अजराः) जन्मजरामृत्युधर्मादि-रहित्वात्कारणरूपेण नित्याः (अभोग्घनः) ये भोज्यन्ते ते भोजो हन्यन्ते ते हनः। भोजश्च ते हनो भोग्घनः न भोग्घनोऽभोग्घनस्ते (ववक्षुः) ये वक्षयन्ति रोषयन्ति ते (अध्रिगावः) अधृता गावो रश्मयो यैस्ते (पर्वताइव) यथा पर्वता मेघाः शैला वा धर्त्तारः सन्ति तथैव मूर्त्तद्रव्यधर्त्तारः (दृढा) दृढानि (चित्) अपि (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) सर्वेषां पदार्थानामधिकरणानि (पार्थिवा) पृथिवीत्याख्यस्य कारणस्य विकारभूतानि भूगोलाख्यानि कार्य्याणि (प्र) प्रकृष्टार्थे (च्यावयन्ति) प्रचालयन्ति (दिव्यानि) दिवि प्रकाशे भवानि सूर्य्यविद्युदादीनि (मज्मना) शुद्धिधारणक्षेपणाख्येन बलेन। अत्र मस्जधातोरौणादिको मनिन् प्रत्ययो बाहुलकात्सकारलोपश्च। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) ॥३॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं य इमे पर्वताइव युवानोऽभोग्घनोऽध्रिगावोऽजरा रुद्रा जीवान् ववक्षु रोषयन्ति। मज्मना पार्थिवा दिव्यानि चिदपि विश्वा भुवनानि दृढा प्रच्यावयन्ति तान् विद्यया यथावद्विदित्वा कार्य्येषु संप्रयोजयत ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा मेघा जलाधिकरणाः शैलाश्चौषध्याद्यधिकरणाः सन्ति तथैवैते संयोगवियोगकर्त्तारः सर्वाधाराः सुखदुःखहेतवो नित्या रूपरहिताः स्पर्शवन्तो वायवः सन्तीति वेदितव्यम्। नह्येतैर्विना भूगोलजलाग्निपुञ्जाश्चैतेषां कणाश्च गन्तुमागन्तुं स्थातुं च शक्नुवन्ति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे मेघ जलाचा आधार व पर्वत औषधी इत्यादीचा आधार आहेत. तसेच संयोग वियोगकर्ते सर्वांचे आधार, सुखदुःखाचे हेतू, नित्यरूप गुणांपासून वेगळे, स्पर्शगुण असणारे वायू असतात असे समजावे व त्यांच्याशिवाय जल, अग्नी व भूगोल आणि त्यांचे परमाणू जाण्या-येण्यास व स्थित राहण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. हे माणसांनी जाणावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Fresh, powerful and ever young, dynamic catalytic energies, unaging, free from suffering and death, they grow and augment. Unseen and irresistible in motion, strong and steady as mountains, with their power and force they move everything on earth and in heaven and all the worlds in existence.

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    Subject of the mantra

    Nevertheless, the above mentioned topic of how air is has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =those, (ime) =in these, (parvatāiva)=Like the ones who hold mountains and clouds. Similarly, those who hold solid substances, (yuvānaḥ)=most powerful in mixing and unmixing, (abhogghanaḥ) =protectors and killers, (adhrigāvaḥ)=Those who did not control the rays, (ajarāḥ)= Being free from the general weariness resulting from birth, old age, the dharma of death etc. due to air, daily, (rudrāḥ) =Those who cry due to pain due to death, fever etc., (jīvān)=living beings, (vavakṣuḥ)= those who get angry, (majmanā)=Those who possess the purity and with the power of throwing, (pārthivā)=The actions attributed to the earth, its causes and the changes of the elements, [jaise]=like, (divyāni) =Sun, electricity etc., (cit) =also, (viśvā) =all, (bhuvanāni)= basis of world's gross material, [rūpa meṃ]=in the form, (dṛḍhā) =are firm, (pra) =eminently, (cyāvayanti) =are driven, (tān) =to them, (vidyayā) =by knowledge, (yathāvat)=properly, (viditvā) =knowing, (kāryyeṣu) =in works, (saṃprayojayata)= use it well.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you who hold mountains and clouds like these. Similarly, the ones who hold solid substances, is most powerful in mixing and non-mixing, protect and kill, those who did not control the rays, being free from the normal weariness resulting from birth, old age, the nature of death etc., living beings who cry because of pain due to daily death, fever etc., who get angry, are the ones who attain purity and due to the force of throwing the earth, the said actions due to the changes of the earth, its causes and elements- just like Sun, electricity etc. are also stable in the form of basis of the gross substances of the entire world and are operated in a natural way, after knowing them properly through knowledge, use them well in the works.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. O humans! Just as clouds are the basis of water, mountains are the basis of medicines etc., similarly, it should be understood that winds are the source of their union and separation, the basis of all, the cause of happiness and sorrow, and are always devoid of touch. Without these, the particles from the group of water and fire would not be able to move and stay on the earth.

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