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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    पिन्व॑न्त्य॒पो म॒रुतः॑ सु॒दान॑वः॒ पयो॑ घृ॒तव॑द्वि॒दथे॑ष्वा॒भुवः॑। अत्यं॒ न मि॒हे वि न॑यन्ति वा॒जिन॒मुत्सं॑ दुहन्ति स्त॒नय॑न्त॒मक्षि॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पिन्व॑न्ति । अ॒पः । म॒रुतः॑ । सु॒ऽदान॑वः । पयः॑ । घृ॒तऽव॑त् । वि॒दथे॑षु । आ॒ऽभुवः॑ । अत्य॑म् । न । मि॒हे । वि । न॒य॒न्ति॒ । वा॒जिन॑म् । उत्स॑म् । दु॒ह॒न्ति॒ । स्त॒नय॑न्तम् । अक्षि॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिन्वन्त्यपो मरुतः सुदानवः पयो घृतवद्विदथेष्वाभुवः। अत्यं न मिहे वि नयन्ति वाजिनमुत्सं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिन्वन्ति। अपः। मरुतः। सुऽदानवः। पयः। घृतऽवत्। विदथेषु। आऽभुवः। अत्यम्। न। मिहे। वि। नयन्ति। वाजिनम्। उत्सम्। दुहन्ति। स्तनयन्तम्। अक्षितम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं यथाऽऽभुवः सुदानवो मरुतो विदथेषु घृतवत्पयः पिन्वन्ति मिह अत्यं नेवापो विनयन्ति। उत्समिवाक्षितं स्तनयन्तं वाजिनं दुहन्ति तथाऽऽचरत ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा (अपः) प्राणान् जलान्यन्तरिक्षावयवान् (मरुतः) शरीरत्यागहेतवः (सुदानवः) सुष्ठु दानवो दानानि येभ्यस्ते (पयः) जलं रसं वा (घृतवत्) घृतेन तुल्यम् (विदथेषु) यज्ञेषु (आभुवः) समन्ताद्भवन्ति ये ते (अत्यम्) अश्वम् (न) इव (मिहे) वीर्यसेचनाय वेगाय वा (वि) विविधार्थे (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (वाजिनम्) प्रशस्तो वाजो वेगो यस्यास्ति तम् (उत्सम्) कूपम् (दुहन्ति) पिपुरति (स्तनयन्तम्) शब्दयन्तम् (अक्षितम्) क्षयरहितम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा यज्ञेषु घृतादिकं हविः क्षेत्रपश्वादितृप्तये कूपो वडवासेचनायाश्वश्चास्ति तथैव विद्यया संप्रयुक्ता वायवः सर्वाणि कार्याणि साध्नुवन्तीति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उक्त वायु किस प्रकार के गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (आभुवः) अच्छे प्रकार उत्पन्न होने तथा (सुदानवः) उत्तम दान देने के हेतु (मरुतः) पवन (विदथेषु) यज्ञों में (घृतवत्) घृत के तुल्य (पयः) जल वा रस को (पिन्वन्ति) सेवन वा सेचन करते हैं (मिहे) वीर्य वृष्टि के लिये (अत्यम्) घोड़े के (न) समान (अपः) प्राण, जल वा अन्तरिक्ष के अवयवों को (विनयन्ति) नाना प्रकार से प्राप्त करते हैं (उत्सम्) और कूप के समान (अक्षितम्) नाशरहित (स्तनयन्तम्) शब्द करते हुए (वाजिनम्) उत्तम वेगवाले पुरुष को (दुहन्ति) पूर्ण करते हैं, वैसे हो और उनको कार्यों में लगाओ ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे यज्ञ में घृत आदि पदार्थ, क्षेत्र पशु आदि की तृप्ति के लिये कूप तथा घोड़ी की तृप्ति के लिये घोड़ा है, वैसे विद्या से संप्रयोग किये हुए पवन सब कार्यों को सिद्ध करते हैं ॥ ६ ॥

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    विषय

    प्राणसाधना का महत्त्व

    पदार्थ

    १. (मरुतः) = प्राण (अपः पिन्वन्ति) = शरीर में रेतस् के रूप में रहनेवाले जलों को पीते हैं । इन प्राणों की साधना से रेतः कणों की ऊर्ध्व गति होती है । यही मरुतों का अपों का पान है । २. शरीर में रेतः कणों की रक्षा के द्वारा ये मरुत् (सुदानवः) = सब रोग - कृमियों या मनः स्थित द्वेषादि भावानाओं का उत्तमता से खण्डन करनेवाले होते हैं । इस प्रकार ये मरुत् हमें आधि - व्याधियों से बचाते हैं । ३. ये (आभुवः) = [आभवन्ति] शरीर में सर्वत्र व्याप्त होकर कार्य करनेवाले मरुत् (विदथेषु) = ज्ञानों के निमित्त घृतवत् ज्ञान की दीप्तिवाले तथा मलों के क्षरणवाले [घृ - क्षरणदीप्तयोः] (पयः) = आप्यायन को प्राप्त कराते हैं । मलों के क्षरण से शरीर व मन का स्वास्थ्य प्राप्त होता है । इसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क के स्वास्थ्य से ज्ञान की दीप्ति होती है और जीवन में ज्ञानयज्ञ का प्रभाव अविच्छिन्न रूप से चलता है । (अत्यम् न) = सततगामी घोड़े के समान गतिशील (वाजिनम्) = इस शक्तिशाली पुरुष को (मिहे) = लोक में सुख - वर्षण के लिए (विनयन्ति) = ये प्राण शिक्षित करते हैं । प्राणसाधना करनेवाला पुरुष [क] गतिशील होता है [ख] शक्तिशाली बनता है और [ग] उसकी सब क्रियाएँ लोकहित के लिए होती हैं । ४. ये प्राण (स्तनयन्तम्) = गर्जना करते हुए (अक्षितम्) = कभी क्षीण न होनेवाले (उत्सम्) = ज्ञान के स्रोत का (दुहन्ति) = दोहन करते हैं । प्राणसाधना से चित्त अवरुद्ध होकर प्रभु का ध्यान व दर्शन करता है और तब उस प्रभु से दिये जाते हुए ज्ञान को प्राप्त करता है । हृदय में स्थित प्रभु सदा उन ज्ञान के शब्दों की गर्जना कर रहे हैं । यह प्रवाहित होती हुई ज्ञान की नदी सरस्वती गर्जना करती हुई आगे बढ़ रही है । इसका ज्ञानजल कभी क्षीण नहीं होता । हमारे लिए इस ज्ञानस्रोत का दोहन ये प्राण ही करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से [क] वीर्यरक्षा होती है [ख] मलों के क्षरण व दीप्ति के द्वारा सब प्रकार का आप्यायन होता है [ग] ज्ञान की वृद्धि होती है[घ] गतिशीलता व शक्ति की वृद्धि के द्वारा लोकहित की भावना उत्पन्न होती है [ङ] हम अन्तः स्थित ज्ञान - स्रोत का दोहन करनेवाले बनते हैं ।

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    विषय

    वायुओं के समान रुद्र वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (मरुतः) वायुगण (अपः) जलों को (पिन्वन्ति) मेघों में पूर्ण करते और भूमियों पर सेचन करते हैं और (सुदानवः) उत्तम जलप्रद और (आभुवः) सर्वत्र विद्यमान रहते हैं। उसी प्रकार उत्तम, वीरजन भी ( विदथेषु ) यज्ञादि उत्तम कार्यों में और युद्धों में ( आभुवः ) सब प्रकार से सामर्थ्यवान् और ( सुदानवः ) उत्तम रीति से शत्रुओं के खण्डन और प्रजा के पालन करने वाले, दानशील (मरुतः) और वायुवत् तीव्र वेगवान् होकर (घृतवत् पयः) घृत से युक्त दुग्ध और अन्न का और (अपः) जलों का ( पिन्वन्ति ) सेवन करते हैं, राष्ट्र में इन पदार्थों की ही वृद्धि करते हैं । (न) जिस प्रकार (वाजिनम्) वीर्यवान्, बलवान् ( अत्यम् ) वेगवान् अश्व को (मिहे) वीर्य सेंचन के कार्य के लिए ( वि नयन्ति ) घोड़ी के पास ले जाते हैं और जिस प्रकार वायुगण ( वाजिनम् ) वेग से जाने वाले या अन्न के उत्पादक मेघ को अश्व के समान ( मिहे ) वृष्टि करने के लिए ( वि नयन्ति) विविध दिशाओं में ले जाते हैं उसी प्रकार वीर पुरुष भी ( वाजिनम् ) बलवान्, पराक्रमी, युद्धविजयी, अन्नादि ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति को भी ( मिहे ) शत्रु पर शस्त्रों और प्रजा पर सुखों की वर्षा करने के लिए (वि नयन्ति) प्राप्त करें या विद्वान् जन उनको (वि नयन्ति) विशेष रूप से शिक्षित करें । ( उत्सं ) जिस प्रकार मनुष्य कूप से जल को प्राप्त करते हैं और जिस प्रकार वायुगण ( स्तनयन्तम् ) गर्जना करते हुए या आकाश रूप गोमाता के स्तनों के समान विद्यमान (अक्षितम्) अक्षय मेघ से जलों को दोहते हैं उसी प्रकार वीर जन भी ( उत्सं ) उत्तम ऐश्वर्यो और पदों को प्राप्त करने वाले ( स्तनयन्तम् ) सिंहनाद करते हुए ( अक्षितम् ) अक्षय कोष के समान अक्षय बल वाले, अथवा कभी क्षणी न होने वाले अमर, दीर्घजीवी, बलवान् पुरुष से ( दुहन्ति ) ऐश्वर्य और सामर्थ्य को दोहते या प्राप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर उक्त वायु किस प्रकार के गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्याः ! यूयं यथा आभुवः सुदानवः मरुतः विदथेषु घृतवत् पयः पिन्वन्ति मिहः अत्यं न इव अपः वि नयन्ति उत्सम् इव अक्षितं स्तनयन्तं वाजिनं दुहन्ति तथा आचरत ॥६॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जिस प्रकार से, (आभुवः) समन्ताद्भवन्ति ये ते=जो हर ओर से होते हैं, वे, (सुदानवः) सुष्ठु दानवो दानानि येभ्यस्ते=उत्तम दान देनेवाले, (मरुतः) शरीरत्यागहेतवः=शरीर को त्यागने के कारण, (विदथेषु) यज्ञेषु=यज्ञों में, (घृतवत्) घृतेन तुल्यम् =घृत के समान, (पयः) जलं रसं वा=जल या रस का, (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा=सिञ्चन करते हैं, (मिहे) वीर्यसेचनाय वेगाय वा= तेज के सिञ्चन या वेग के लिये, (अत्यम्) अश्वम्=अश्व के, (न) इव=समान, (अपः) प्राणान् जलान्यन्तरिक्षावयवान्=जलों और अन्तरिक्ष के अवयव प्राणों को, (वि) विविधार्थे=विविध प्रकार से, (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति=प्राप्त करते हैं, (उत्सम्) कूपम्=कुओं के, (इव)= समान, (अक्षितम्) क्षयरहितम्= क्षय रहित, (स्तनयन्तम्) शब्दयन्तम्=शब्द करते हुए, (वाजिनम्) प्रशस्तो वाजो वेगो यस्यास्ति तम् = प्रशस्त वेगवाले, उसका, (दुहन्ति) पिपुरति= सिञ्चन करता है, (तथा)=वैसे ही, (आचरत)= व्यवहार कीजिये ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे यज्ञ में घृत आदि पदार्थ, खेत, पशु आदि की तृप्ति के लिये कुएँ तथा घोड़ी की तृप्ति के लिये घोड़ा है, वैसे ही विद्या से अच्छी तरह से किये प्रयोग किये हुए पवन सब कार्यों को सिद्ध करते हैं ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यथा) जिस प्रकार से, (आभुवः) जो [वायु] हर ओर से उपस्थित होते हैं, वे (सुदानवः) उत्तम दान देनेवाले, (मरुतः) शरीर को त्यागने के कारण, (विदथेषु) यज्ञों में (घृतवत्) घृत के समान (पयः) जल या रस का (पिन्वन्ति) सिञ्चन करते हैं। (मिहे) तेज के सिञ्चन या वेग के लिये (अत्यम्) अश्व के (न) समान (अपः) जलों और अन्तरिक्ष के अवयव प्राणों को (वि) विविध प्रकार से (नयन्ति) प्राप्त करते हैं। (उत्सम्) कुओं के (इव) समान (अक्षितम्) क्षय रहित, (स्तनयन्तम्) शब्द करते हुए (वाजिनम्) प्रशस्त वेगवाले, उसका (दुहन्ति) सिञ्चन करता है, (तथा) वैसे ही (आचरत) व्यवहार कीजिये ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा (अपः) प्राणान् जलान्यन्तरिक्षावयवान् (मरुतः) शरीरत्यागहेतवः (सुदानवः) सुष्ठु दानवो दानानि येभ्यस्ते (पयः) जलं रसं वा (घृतवत्) घृतेन तुल्यम् (विदथेषु) यज्ञेषु (आभुवः) समन्ताद्भवन्ति ये ते (अत्यम्) अश्वम् (न) इव (मिहे) वीर्यसेचनाय वेगाय वा (वि) विविधार्थे (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (वाजिनम्) प्रशस्तो वाजो वेगो यस्यास्ति तम् (उत्सम्) कूपम् (दुहन्ति) पिपुरति (स्तनयन्तम्) शब्दयन्तम् (अक्षितम्) क्षयरहितम् ॥६॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यथाऽऽभुवः सुदानवो मरुतो विदथेषु घृतवत्पयः पिन्वन्ति मिह अत्यं नेवापो विनयन्ति। उत्समिवाक्षितं स्तनयन्तं वाजिनं दुहन्ति तथाऽऽचरत ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा यज्ञेषु घृतादिकं हविः क्षेत्रपश्वादितृप्तये कूपो वडवासेचनायाश्वश्चास्ति तथैव विद्यया संप्रयुक्ता वायवः सर्वाणि कार्याणि साध्नुवन्तीति ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे यज्ञाच्या तृप्तीसाठी घृत इत्यादी पदार्थ; शेत, पशू इत्यादींच्या तृप्तीसाठी कूप व घोडीच्या तृप्तीसाठी घोडा असतो. तसे विद्येच्या संप्रयोगाने वायू कार्य सिद्ध करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The generous Maruts, waves of cosmic energy, feed the vitality of waters. Instantly present at the yajnas of nature and humanity, as they radiate the ghrta across the spaces, so they feed and augment milk and juices from spaces. And for the sake of rain, like a horse in the reins, they rule the floating cloud and the lightning thunder and milk the cloud like a perennial spring for life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should behave like the munificent Maruts (winds) which scatter the nutritrious waters, as priests at the Yajnas (non-violent sacrifices) the clarified butter, as grooms lead forth a horse, they bring forth for its rain the fleet-moving cloud and milk it, thundering and un-exhausted.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिंचन्ति वा = Serve or sprinkle. (अपः) प्राणान्, जलानि, अन्तरिक्षावयवान् = Pranas (vital breaths) waters, and the particles of the middle region. (उत्सम्) कूपम् = Well. (निघ० ३.२३ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara used in the Mantra. As there is the oblation of the Ghee or clarified butter in the Yajnas, as there is the well for watering the field and animals, as there is the horse for seminating the mare, in the same manner, when the airs or winds are utilised with scientific knowledge, they accomplish all acts.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of qualities the said air has, has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yathā) =by which light, (ābhuvaḥ) =those are present from all sides, they, [vāyu]=air, (sudānavaḥ) =best donor, (marutaḥ)=cause of leaving the body, (vidatheṣu) =in yajnas, (ghṛtavat) =like ghee, (payaḥ) =of water or sap, (pinvanti) =irrigate, (mihe)=for the irrigation of brilliancy or speed, (atyam) =of horse, (na) =like, (apaḥ) =to waters and to elements of the space, (vi) =in various ways, (nayanti)= obtain, (utsam)=of well (water body), (iva) =like, (akṣitam) =free from decay, (stanayantam) =making sound, (vājinam) praśasta vegavāle, usakā (duhanti) =of great speed his, (tathā) =similarly, (ācarata)= behave.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Just as all of you, the airs present from all sides, who are great providers of charity and have given up the body, irrigate the yajnas with water or sap like ghee. For the irrigation of brilliancy or speed, to the water and to elements of space, like the horse, obtain life force in various ways. Behave in the same manner as a well (water body) that is free from decay, making sound and full of speed, and irrigates it.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and silent vocal simile as figurative in this mantra. Just as there is ghee etc. in yajna, wells are there for the satisfaction of fields, animals etc. and horses are there for the satisfaction of the mares, in the same way the wind, well used with knowledge, accomplishes all the tasks.

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