ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 8
सिं॒हाइ॑व नानदति॒ प्रचे॑तसः पि॒शाइ॑व सु॒पिशो॑ वि॒श्ववे॑दसः। क्षपो॒ जिन्व॑न्तः॒ पृष॑तीभिर्ऋ॒ष्टिभिः॒ समित्स॒बाधः॒ शव॒साहि॑मन्यवः ॥
स्वर सहित पद पाठसिं॒हाःऽइ॑व । ना॒न॒द॒ति॒ । प्रऽचे॑तसः । पि॒शाःऽइ॑व । सु॒ऽपिशः॑ । वि॒श्वऽवे॑दसः । क्षपः॑ । जिन्व॑न्तः । पृष॑तीभिः । ऋ॒ष्टिऽभिः॑ । सम् । इत् । स॒ऽबाधः॒ । शव॑सा । अहि॑ऽमन्यवः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिंहाइव नानदति प्रचेतसः पिशाइव सुपिशो विश्ववेदसः। क्षपो जिन्वन्तः पृषतीभिर्ऋष्टिभिः समित्सबाधः शवसाहिमन्यवः ॥
स्वर रहित पद पाठसिंहाःऽइव। नानदति। प्रऽचेतसः। पिशाःऽइव। सुऽपिशः। विश्वऽवेदसः। क्षपः। जिन्वन्तः। पृषतीभिः। ऋष्टिऽभिः। सम्। इत्। सऽबाधः। शवसा। अहिऽमन्यवः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं य एते प्रचेतसः सुपिशः सबाधोऽहिमन्यव इदेव ऋष्टिभिः पृषतीभिः क्षपः संजिन्वन्तो विश्ववेदसो वायवः शवसा सिंहा इव पिशा इव बलाऽवयववन्तो गजा इव नानदति तान् कार्य्येषु संप्रयोजयत ॥ ८ ॥
पदार्थः
(सिंहाइव) व्याघ्रतुल्यबलाः (नानदति) पुनः पुनः शब्दयन्ति (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतः संज्ञानं येभ्यस्ते (पिशाइव) यथा बलयुक्तावयववन्तो गजाः (सुपिशः) सुष्ठु पिशन्त्यवयुवन्ति ये ते (विश्ववेदसः) ये विश्वानि सर्वाणि कर्माणि वेदयन्ति प्रापयन्ति ते (क्षपः) रात्रीः। क्षपेति रात्रिनामसु पठितम्। (निघ०१.७) (जिन्वतः) तर्पयन्तः (पृषतीभिः) स्वगमनागमनवेगादिगुणैः (ऋष्टिभिः) व्यवहारप्रापकैः (सम्) सम्यगर्थे (इत्) एव (सबाधः) ये पदार्थान् सहैव बाधन्ते ते (शवसा) बलेन (अहिमन्यवः) येऽहिं मेघं मानयन्ति ते ज्ञापयन्ति ते ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यूयं यावद्बलपराक्रमजीवनश्रवणमननादिकर्मास्ति तावत्सर्वं वायूनां सकाशादेव जायत इति विजानीत ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जो ये (प्रचेतसः) उत्तम विज्ञान होने के हेतु (सुपिशः) सुन्दर अवयवों के करनेवाले (सबाधः) पदार्थों को अपने नियम में रखनेवाले (अहिमन्यवः) मेघ की वर्षा का ज्ञान करानेवाले वायु (इत्) ही (ऋष्टिभिः) व्यवहारों के प्राप्त कराने और (पृषतीभिः) अपने गमनागमन वेगादिगुणों से (क्षपः) रात्रि को (संजिन्वन्तः) तृप्त करते हुए (विश्ववेदसः) सब कर्मों के प्राप्त करानेवाले पवन (शवसा) अपने बलों से (सिंहाइव) सिहों के समान तथा (पिशाइव) बड़े बलवाले हाथियों के समान (नानदति) अत्यन्त शब्द करते हैं, उनको कार्यों की सिद्धि के लिये यथावत् संयुक्त करो ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम ऐसा जानो कि जितना बल, पराक्रम, जीवन, सुनना, विचारना आदि क्रिया है, वे सब वायु के सकाश से ही होती हैं ॥ ८ ॥
विषय
शक्ति व ज्ञान के समन्वयवाले
पदार्थ
१. प्राणसाधक पुरुष (सिंहाः इव नानदति) = सिंहों के समान गर्जना करनेवाले होते हैं । इनकी वाणी से शक्ति प्रकट होती है । भीष्म पितामह युद्ध के प्रारम्भ में “सिंहनादं विनद्योच्चैः” उच्चस्वर से सिंहगर्जना करके ही शंखध्वनि करते हैं । २. (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले, प्राणसाधक शक्तिशाली होते हैं, शक्ति के साथ वे ज्ञान का भी सम्पादन करते हैं । ३. (पिशाः इव) = शरीरगत श्वेत बिन्दुओं से अलंकृत रुरु मृगों की भाँति ये (सपिशः) = शोभन शरीर - अवयवोंवाले तथा ज्ञानादि सुन्दर अलंकारोंवाले होते हैं । ज्ञानादि से सुभूषित होकर ये ‘सुपिश्’ होते हैं । (विश्ववेदसः) = शरीर व मस्तिष्क की सम्पत्तियों के साथ ये सम्पूर्ण धनोंवाले होते हैं । आवश्यक धनों की इन्हें कमी नहीं रहती । ५.(क्षपः) = सब शत्रुओं का ये संहार करनेवाले होते हैं, (जिन्वन्तः) = धार्मिकों को प्रीणित करनेवाले होते हैं । ६. (पृषतीभिः) = लोकों पर सुखों का सेचन करनेवाले (ऋष्टिभिः) =अस्त्रों से (समित् सबाघः) = [सम्+इ] मिलकर शत्रुओं को पीड़ित करनेवाले ये व्यक्ति (शवसा) = बल के साथ (अहिमन्यवः) = अहीन ज्ञानवाले होते हैं । इनमें शक्ति व ज्ञान का समन्वय होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक पुरुष शक्ति व ज्ञान से समन्वित जीवनवाले होकर, मिलकर शत्रुओं को पीड़ित करनेवाले तथा लोकों पर सुखों की वर्षा करनेवाले होते हैं ।
विषय
सिहों के समान वीर जन ।
भावार्थ
(प्रचेतसः) उत्कृष्ट और बहुत अधिक ज्ञानवाले विद्वान, वीर पुरुष (सिंहाः इव) शेरों के समान बलवान्, पराक्रमी होकर ( नानदति ) गर्जना करें । और वे (विश्ववेदसः) समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी और समस्त विद्याओं के जाननेहारे, (सुपिशः) उत्तम, सुदृढ़ अंगों वाले होकर (पिशाः इव) बलवान् शरीरों वाले गजों के समान गम्भीर वेदी हों। (क्षपः) रात्रियां जिस प्रकार ( पृषतीभिः ) सेचनेवाली जलबिन्दु-पंक्तियों से भूमि को छा देती हैं उसी प्रकार ये वीर भी (क्षपः) शत्रुओं का नाश करनेहारे होकर ( ऋष्टिभिः ) आयुधों से (जिन्वन्तः) पृथ्वी का विजय करते हुए (सबाधः) एकसाथ शत्रुओं को पीड़न करनेवाले, ( अहिमन्यवः ) सर्प के क्रोध के समान शत्रु के एक ही वार में प्राण हरण करनेवाले कोप से युक्त अथवा ( अहिमन्यवः ) उत्तम कोप और उत्तम ज्ञानवाले, अति उग्र और अति बुद्धिमान् होकर ( सम् इत् ) एक साथ ही युद्ध में ( शवसा ) बल से जावें । वायुपक्ष में—( प्रचेतसः ) उत्तम ज्ञान और चेतना के देने वाले, ( सुपिशः ) उत्तम रीति से सुखजनक अवयवों वाले (विश्ववेदसः) उत्तम ऐश्वर्यों और ज्ञानों के देनेवाले, (पृषतीभिः ) सेचन करनेवाली (ऋष्टिभिः) वेगवान् मेघमालाओं से रात्रि के समान भूमियों के सेचते हुए, (सबाधः) एक साथ ( अहिंमन्यवः ) मेघों को लानेवाले होकर ( शवसा सम् ) बल से हमें भली प्रकार प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं य एते प्रचेतसः सुपिशः सबाधः अहिमन्यवः इत् एव ऋष्टिभिः पृषतीभिः क्षपः सं जिन्वन्तः विश्ववेदसः वायवः शवसा सिंहाइव पिशाइव बला अवयववन्तः गजा इव नानदति तान् कार्य्येषु संप्रयोजयत ॥८॥
पदार्थ
हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः)=जो, (एते)=ये, (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतः संज्ञानं येभ्यस्ते= प्रकृष्ट चेतनावाले, (सुपिशः) सुष्ठु पिशन्त्यवयुवन्ति ये ते=उत्तम अवयवों वाले, (सबाधः) ये पदार्थान् सहैव बाधन्ते ते=पदाथों के साथ ही अवरुद्ध करते हैं, (अहिमन्यवः) येऽहिं मेघं मानयन्ति ते ज्ञापयन्ति ते=बादलों की जानकारी देनेवाले, (इत्) एव=ही, (ऋष्टिभिः) व्यवहारप्रापकैः=व्यवहारों को प्राप्त करानेवाले, (पृषतीभिः) स्वगमनागमनवेगादिगुणैः=अपने जाने-आने के गुणोंवाले, (क्षपः) रात्रीः=रात्रि में, (सम्) सम्यगर्थे=अच्छी तरह से, (जिन्वतः) तर्पयन्तः=तृप्त करते हुए, (विश्ववेदसः) ये विश्वानि सर्वाणि कर्माणि वेदयन्ति प्रापयन्ति ते=सब कर्मों को जानने और प्राप्त करनेवाले, (वायवः)=वायु, (शवसा) बलेन=बल से, (सिंहाइव) व्याघ्रतुल्यबलाः= सिंह के समान बल से, (पिशाइव) यथा बलयुक्तावयववन्तो गजाः= जैसे बलवान अंगोंवाले हाथी, (बला)=बल और, (अवयववन्तः)=अंगोंवाले होते हुए, (गजा)=हाथी के, (इव)=समान, (नानदति) पुनः पुनः शब्दयन्ति=बार-बार शब्द करते हैं, (तान्)=उनको, (कार्य्येषु)=कार्यों में, (संप्रयोजयत)=अच्छी तरह से लगाओ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जब तक बल, पराक्रम, जीवन, सुनना, विचार करना आदि तुम्हारी क्रिया है, ऐसा जानो कि तब तक सब क्रियायें वायु की निकटता से ही होती हैं ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यः) जो, (एते) ये (प्रचेतसः) प्रकृष्ट चेतनावाले, (सुपिशः) उत्तम अवयवों वाले हैं, ये (सबाधः) पदाथों के साथ ही अवरुद्ध करते हैं। (अहिमन्यवः) बादलों की जानकारी देनेवाले (इत्) ही (ऋष्टिभिः) व्यवहारों को प्राप्त करानेवाले, (पृषतीभिः) अपने जाने-आने के गुणोंवाले हैं। (क्षपः) रात्रि में (सम्) अच्छी तरह से (जिन्वतः) तृप्त करते हुए (विश्ववेदसः) सब कर्मों को जानने और प्राप्त करनेवाले, (वायवः) वायु (शवसा) बल से (सिंहाइव) सिंह के समान और (पिशाइव) बलवान अंगोंवाले हाथी के समान, (बला) बल और (अवयववन्तः) अंगोंवाले होते हुए, (गजा) हाथी के (इव) समान (नानदति) बार-बार शब्द करते हैं, (तान्) उन [वायुओं] को (कार्य्येषु) कार्यों में (संप्रयोजयत) अच्छी तरह से प्रयोग करो॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सिंहाइव) व्याघ्रतुल्यबलाः (नानदति) पुनः पुनः शब्दयन्ति (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतः संज्ञानं येभ्यस्ते (पिशाइव) यथा बलयुक्तावयववन्तो गजाः (सुपिशः) सुष्ठु पिशन्त्यवयुवन्ति ये ते (विश्ववेदसः) ये विश्वानि सर्वाणि कर्माणि वेदयन्ति प्रापयन्ति ते (क्षपः) रात्रीः। क्षपेति रात्रिनामसु पठितम्। (निघ०१.७) (जिन्वतः) तर्पयन्तः (पृषतीभिः) स्वगमनागमनवेगादिगुणैः (ऋष्टिभिः) व्यवहारप्रापकैः (सम्) सम्यगर्थे (इत्) एव (सबाधः) ये पदार्थान् सहैव बाधन्ते ते (शवसा) बलेन (अहिमन्यवः) येऽहिं मेघं मानयन्ति ते ज्ञापयन्ति ते ॥८॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं य एते प्रचेतसः सुपिशः सबाधोऽहिमन्यव इदेव ऋष्टिभिः पृषतीभिः क्षपः संजिन्वन्तो विश्ववेदसो वायवः शवसा सिंहा इव पिशा इव बलाऽवयववन्तो गजा इव नानदति तान् कार्य्येषु संप्रयोजयत ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यूयं यावद्बलपराक्रमजीवनश्रवणमननादिकर्मास्ति तावत्सर्वं वायूनां सकाशादेव जायत इति विजानीत ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो, तुम्ही हे जाणा की जितके बल, पराक्रम, जीवन, श्रवण, मनन विचार करणे इत्यादी क्रिया आहेत त्या वायूच्या साह्यानेच होतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Like lions, the Maruts roar and proclaim the nature of nature (since, as waves of energy, they are in touch with everything in existence and hence know what it is). Powerful as they are possessed of minute particles of energy they possess the world and put you in touch with everything if you know them. Keeping everything in its own shape and order, coexistent with the clouds in their action of sun and shower, they vitalise the nights with the showers of their waves like mists.$(If you know the Maruts, you know what they touch and proclaim.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (Maruts) is taught further in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The winds are like the brave soldiers who being most wise roar like lions, are full of might like the elephants, are destroyers of their foes, are knowers of everything important and helpers in the accomplishment of all good deeds, making people sleep at nights without much anxiety by arranging for their watch, going to help the afflicted persons. They [winds] by their speed and other attributes which help in the accomplishment of works with their might, restrain the substances and indicate or make the clouds. You must use them properly in your works.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पिशा इव) यथा बलयुक्तावयवन्तो गजाः ॥ = Like the mighty elephants. (सुपिशा: ) सुष्ठु पिशन्ति अवयुवन्ति ये ते = Those who shatter. (क्षपः) रात्री: क्षपेति रात्रिनाम (निध० १.७) = Nights. (अहिमन्ययवः) ये अहिं मेघं मानयन्ति ज्ञापयन्तिते । = Which indicate clouds.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara used in the Mantre. O men, you should know that all strength, force, life, hearing and other faculties are mostly dependent upon the winds.
Translator's Notes
पिश-अवयवे । अहिरीति मेघनाम (निघ० १.१० )
Subject of the mantra
Then how are those aforesaid air, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =those, (ete) =these, (pracetasaḥ)=those with strong consciousness, (supiśaḥ)=These have the best limbs, (sabādhaḥ)=restrain with substances only, (ahimanyavaḥ)=cloud informer, (it)=only, (ṛṣṭibhiḥ)=achievers of behaviour, (pṛṣatībhiḥ)=They have the qualities of coming and going, (kṣapaḥ) =during night,(sam) =well, (jinvataḥ) =satisfying, (viśvavedasaḥ) =The one who knows and achieves all deeds, (vāyavaḥ) =winds, (śavasā) =by force, (siṃhāiva) =like a lion and, (piśāiva)=Like an elephant with strong limbs, (balā) =force and, (avayavavantaḥ)=having organs, (gajā) =of elephant, (iva) =like, (nānadati) =utter words again and again, (tān) =to them, [vāyuoṃ]=to winds, (kāryyeṣu) =in deeds, (saṃprayojayata) =use well.
English Translation (K.K.V.)
O humans! All of you, those who have high consciousness and good components, they restrain along with the substances. Those who give information about clouds are the ones who provide the benefits and have the qualities of coming and going. Satisfied well at night, the one who knows and achieves all the actions, is like a lion with the power of wind and like an elephant with strong limbs, having strength and limbs, like an elephant, utters words again and again, Use those winds well in your work.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as figurative at two places in this mantra. O humans! As long as strength, bravery, life, hearing, thinking etc. are your activities, know that till then all activities take place only due to the proximity of air.
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