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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कुत्सा॑य॒ शुष्ण॑म॒शुषं॒ नि ब॑र्हीः प्रपि॒त्वे अह्नः॒ कुय॑वं स॒हस्रा॑। स॒द्यो दस्यू॒न्प्र मृ॑ण कु॒त्स्येन॒ प्र सूर॑श्च॒क्रं वृ॑हताद॒भीके॑ ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कुत्सा॑य । शुष्ण॑म् । अ॒शुष॑म् । नि । ब॒र्हीः॒ । प्र॒ऽपि॒त्वे । अह्नः॑ । कुय॑वम् । स॒हस्रा॑ । स॒द्यः । दस्यू॑न् । प्र । मृ॒ण॒ । कु॒त्स्येन॑ । प्र । सूरः॑ । च॒क्रम् । वृ॒ह॒ता॒त् । अ॒भीके॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुत्साय शुष्णमशुषं नि बर्हीः प्रपित्वे अह्नः कुयवं सहस्रा। सद्यो दस्यून्प्र मृण कुत्स्येन प्र सूरश्चक्रं वृहतादभीके ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुत्साय। शुष्णम्। अशुषम्। नि। बर्हीः। प्रऽपित्वे। अह्नः। कुयवम्। सहस्रा। सद्यः। दस्यून्। प्र। मृण। कुत्स्येन। प्र। सूरः। चक्रम्। वृहतात्। अभीके ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 12
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजंस्त्वमह्नः प्रपित्वे कुत्साय कुयवं शुष्णमशुषं निबर्हीः सूरश्चक्रमिव कुत्सेन सहस्रा दस्यून् सद्यः प्रमृणाऽभीके प्रवृहतात् ॥१२॥

    पदार्थः

    (कुत्साय) निन्दिताय (शुष्णम्) शुष्कं नीरसम् (अशुषम्) असुरं दुःखम् (नि) (बर्हीः) उत्पाटय (प्रपित्वे) प्रकृष्टप्राप्ते (अह्नः) दिवसस्य (कुयवम्) कुत्सिता यवा यस्य तम् (सहस्रा) सहस्राणि (सद्यः) (दस्यून्) दुष्टान् चोरान् (प्र) (मृण) हिन्धि (कुत्स्येन) कुत्से वज्रे भवेन वेगेन (प्र) (सूरः) सूर्य्यः (चक्रम्) चक्रमिव वर्त्तमानं ब्रह्माण्डम् (वृहतात्) छिन्द्यात् (अभीके) समीपे ॥१२॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! भवान् वज्रादिशस्त्रैर्दस्यून् हत्वा सूर्य्यप्रतापी भवतु ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! आप (अह्नः) दिन के (प्रपित्वे) उत्तम प्रकार प्राप्त होने पर (कुत्साय) निन्दित व्यवहार के लिये (कुयवम्) निकृष्ट यव जिसके उस (शुष्णम्) रसरहित (अशुषम्) दुःख को (नि, बर्हीः) दूर करो और जैसे (सूरः) सूर्य्य (चक्रम्) चक्र के सदृश वर्त्तमान ब्रह्माण्ड को (कुत्सेन) वैसे वज्र में हुए वेग से (सहस्रा) सहस्रों (दस्यून्) दुष्ट चोरों को (सद्यः) शीघ्र (प्र) (मृण) नाश कीजिये (अभीके) समीप में (प्र, वृहतात्) छेदन कीजिये ॥१२॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! आप वज्र आदि शस्त्रों से दुष्ट चोरों का नाश करके सूर्य्य के सदृश प्रतापी हूजिये ॥१२॥

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    विषय

    अशुषशुष्ण का निवर्हण

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (कुत्साय) = वासनासंहार की वृत्तिवाले इस उपासक के लिए (अशुषम्) = [अशूषं] जिस से किसी भी सुख का सम्भव नहीं, उस (शुष्णम्) = शोषण करनेवाले कामासुर को आप (नि बर्ही:) = विनष्ट करते हैं । (अह्नः प्रपित्वे) = दिन के (प्रक्रम) = में प्रारम्भ में ही (कुयवम्) = कुयव नामक असुर को भी नष्ट करते हैं। 'कुयव' अर्थात् बुराई को हमारे साथ मिलानेवाला। इस बुराई का हमारे साथ सम्पर्क करनेवाली वृत्ति को आप विनष्ट करते हैं। [२] हे प्रभो ! आप (कुत्स्येन) = वासना विनाश में उत्तम क्रियाशीलता रूप वज्र द्वारा (सद्यः) = शीघ्र ही (सहस्रा) = हजारों (दस्यून्) = दास्यव वृत्तियों को (प्रमृणः) = नष्ट करते हैं। (सूरः) = यह ज्ञानीपुरुष (अभीके) = आपकी समीपता में (चक्रम्) = शत्रु सैन्य को (प्रवृहतात्) = छिन्न करनेवाला हो । ज्ञानीपुरुष प्रभु का आत्मतुल्य प्रिय भक्त होता हुआ प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न बनता है और काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं को विनष्ट कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वासनासंहार के लिए सदा उद्यत रहें। प्रभु के उपासक बनकर प्रभु की शक्ति द्वारा शत्रुसंहार करनेवाले हों ।

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    विषय

    दुष्टों का दमन और दलन ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे सेनापते ! तू (कुत्साय) वेदों के उपदेश करने वाले ज्ञानी पुरुष के उपकार के लिये वा निन्दित व्यवहार के दमन के लिये (अशुषं) सुखादि से रहित दुःख वा दुःखदायी और अन्यों द्वारा न शोषण होने वाले (शुष्णं) स्वपक्ष का शोषण करने वाले शत्रु को (नि बर्हीः) विनाश कर । और (अन्हः प्रपित्वे) अविनाशी, बल प्राप्त हो जाने पर (सहस्रा) हज़ारों, (कुयवम्) कुत्सित यव अर्थात् निन्दित संगी या द्वेषी पुरुष को भी (नि बर्हीः) विनाश कर और तू (कुत्स्येन) निन्दित जनों के योग्य एवं शत्रु को काट गिराने वाले वज्र शस्त्रास्त्र युक्त सैन्य से (सद्यः दस्यून् प्र मृण) बहुत शीघ्र प्रजा के विनाशकों को आगे बढ़कर नाश कर । और (अभीके) समीप या संग्राम में विद्यमान (चक्रं) पर सैन्य चक्र को (सूरः) सूर्य तुल्य तेजस्वी होकर (प्र वृहतात्) विनाश किया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! तू वज्र इत्यादी शस्त्रांनी दुष्ट चोरांचा नाश करून सूर्याप्रमाणे पराक्रमी हो. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For the sake of the wise and discriminate, you root out persistent want and drought. On the rise of the day you overthrow a thousand forms of pettiness and stinginess. You destroy the evil and the wicked by your thunderous force and, like the solar orb, scatter the enemy forces all round.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the king are further elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! with the dawn risen, all miseries get away. The miseries are the results of contemptible dealings or insipid harmful bad food. As the sun sets, the planets in motion and dispels all darkness quickly. Likewise a king destroys thousands of wicked thieves and smashes them as soon as they reach near you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! with powerful weapons like thunderbolt you kill the thieves, robbers and other wicked persons. You become mighty like the sun.

    Foot Notes

    (शुष्णम्) शुष्कं नीरसम् । = Insipid. (अशुषम् ) असुरं दुःखम् । = Misery which is like a demon. (कुत्सेनं) कुत्से वज्रे भवेन वेगेन । कुत्स इति वज्रनाम (NG 2, 20) । = With rapidity like that of the thunderbolt. (अभीके) समीपे । प्रपित्वे अभीके-इत्यासन्नस्य । प्रपित्वे प्राप्ते अभीके अभ्यक्ते (NKT 3, 4, 20) = Near.

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