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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अच्छा॑ क॒विं नृ॑मणो गा अ॒भिष्टौ॒ स्व॑र्षाता मघव॒न्नाध॑मानम्। ऊ॒तिभि॒स्तमि॑षणो द्यु॒म्नहू॑तौ॒ नि मा॒यावा॒नब्र॑ह्मा॒ दस्यु॑रर्त ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । क॒विम् । नृ॒ऽम॒नः॒ । गाः॒ । अ॒भिष्टौ॑ । स्वः॑ऽसाता । म॒घ॒ऽव॒न् । नाद॑मानम् । ऊ॒तिऽभिः॑ । तम् । इ॒ष॒णः॒ । द्यु॒म्नऽहू॑तौ । नि । मा॒याऽवा॑न् । अब्र॑ह्मा । दस्युः॑ । अ॒र्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा कविं नृमणो गा अभिष्टौ स्वर्षाता मघवन्नाधमानम्। ऊतिभिस्तमिषणो द्युम्नहूतौ नि मायावानब्रह्मा दस्युरर्त ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ। कविम्। नृऽमनः। गाः। अभिष्टौ। स्वःऽसाता। मघऽवन्। नाधमानम्। ऊतिऽभिः। तम्। इषणः। द्युम्नऽहूतौ। नि। मायाऽवान्। अब्रह्मा। दस्युः। अर्त ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे नृमणो मघवन् ! स्वर्षाता त्वमूतिभिरभिष्टौ द्युम्नहूतौ गा नाधमानं कविं चाच्छेषणो यो मायावानब्रह्मा दस्युरर्त्त तं त्वं नीषणो निस्सारय ॥९॥

    पदार्थः

    (अच्छ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (कविम्) विद्वांसम् (नृमणः) नृषु मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ (गाः) वाचः (अभिष्टौ) अभीष्टसिद्धौ (स्वर्षाता) सुखस्यान्तं प्राप्तः (मघवन्) बहुधनयुक्त (नाधमानम्) ऐश्वर्य्यं कुर्वाणम् (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (तम्) (इषणः) प्रेरयेः (द्युम्नहूतौ) धनयशसोर्हूतिः प्राप्तिर्यस्यां तस्याम् (नि) (मायावान्) कुत्सितप्रज्ञायुक्तः (अब्रह्मा) अवेदवित् (दस्युः) दुष्टस्वभावः (अर्त्त) नश्यतु ॥९॥

    भावार्थः

    हे राजँस्त्वं कपटिनो मूर्खान् दस्यून् हत्वा धार्मिकान् विदुषः सत्कृत्य प्रशंसितः सन्नस्माकं राजा भव ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (नृमणः) मनुष्यों में मन रखनेवाले (मघवन्) बहुत धन से युक्त ! (स्वर्षाता) सुख के अन्त को प्राप्त आप (ऊतिभिः) रक्षण आदि से (अभिष्टौ) अभीष्ट की सिद्धि होने पर (द्युम्नहूतौ) धन और यश की प्राप्ति जिसमें उसमें (गाः) वाणियों को (नाधमानम्) ईश्वरीय भाव को पहुँचाते हुए (कविम्) विद्वान् को (अच्छ) उत्तम प्रकार प्रेरणा करें और जो (मायावान्) निकृष्ट बुद्धियुक्त (अब्रह्मा) वेद को नहीं जाननेवाला (दस्युः) दुष्ट स्वभावयुक्त पुरुष का (अर्त्त) नाश हो (तम्) उसको आप (नि, इषणः) निकालें ॥९॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! आप कपटी, मूर्ख और दुष्ट स्वभाववाले मनुष्यों का नाश करके और धार्मिक विद्वानों का सत्कार करके प्रशंसित हुए हम लोगों के राजा हूजिये ॥९॥

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    विषय

    मायावान् 'अब्रह्मा व दस्यु' का विनाश

    पदार्थ

    [१] हे (नृमण:) = [नृभिः मन्यते] उन्नतिपथ पर चलनेवालों से मननीय (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (अभिष्टौ) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का आक्रमण होने पर (स्वः सातौ) = प्रकाश की प्राप्ति के निमित्त (नाधमानम्) = याचना करते हुए (कविं अच्छा गाः) = ज्ञानीपुरुष की ओर प्राप्त होते हैं और (तम्) = उसको (ऊतिभिः) = रक्षणों के द्वारा (इषण:) = उन्नतिपथ पर प्रेरित करते हैं। [२] इन (द्युम्नहूतौ) = [द्युम्नस्य धनस्य हूतिः यस्यां] धन की पुकारवाले युद्ध में (मायावान्) = छल कपटवाला, (अब्रह्मा) = अज्ञानी (दस्युः) = विनाश की वृत्तिवाला पुरुष (नि अर्त) = विनष्ट होता है [नीचे जाता है, is trampled upon] |

    भावार्थ

    भावार्थ- संसार-संग्राम में कवि [ज्ञानी] अन्ततः विजयी होता है। छली, अज्ञानी व विध्वंस की वृत्तिवाला विनष्ट होता है।

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    विषय

    शत्रु को पराजय करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (नृमणः) मनुष्यों के हितों और उत्तम नायक पुरुषों में अपना चित्त देने हारे ! हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! तू (स्वर्षाता) सुख, प्रकाश, धन और शत्रु को सन्ताप और अधीनों को आज्ञा वचन प्रदान करता हुआ, (अभिष्टौ) अभीष्ट सिद्धि के लिये (नाधमानं कविं) शरण याचना करते हुए क्रान्तदर्शी विद्वान् पुरुष को (अच्छ गाः) प्रभु के तुल्य प्राप्त हो और (नाधमानं कविं अच्छ गाः) विद्यैश्वर्य सम्पन्न विद्वान् को शिष्यवत् प्राप्त हो। अथवा (गाः नाधमानं कविं अच्छ) गौओं, भूमियों और वेद वाणियों या आज्ञाओं की याचना करते हुए विद्वान् तू दाता, गुरु वा शासक प्राप्त हो । तू (द्युम्नहूतौ) धन की प्राप्ति कराने वाले संग्रामादि कार्य में (तम्) उसको (ऊतिभिः) रक्षाकारी सेनादि साधनों से (अच्छ इषणः) आगे बढ़ा । और (मायावान्) कुटिल मायावी (अब्रह्मा) अवेदज्ञ वा विशाल धन बल से रहित (दस्युः) प्रजा-नाशक शत्रु (नि अर्त) सर्वथा नष्ट हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! तू कपटी, मूर्ख व दुष्ट स्वाभावाच्या माणसांचा नाश करून धार्मिक विद्वानांचा सत्कार करून प्रशंसित हो व आमचा राजा बन. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, winner of the light of heaven and harbinger of light on earth, lover of humanity, lord of glory, for the sake of desired goals and for the achievement of honour, wealth and excellence, inspire the poet, promote language and education, advance the seeker, scientist and researcher, with protection and incentive, and whoever be the clever exploiter opposed to knowledge, social good and general well being, let him be defeated.

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