ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
अव॑ स्य शू॒राध्व॑नो॒ नान्ते॒ऽस्मिन्नो॑ अ॒द्य सव॑ने म॒न्दध्यै॑। शंसा॑त्यु॒क्थमु॒शने॑व वे॒धाश्चि॑कि॒तुषे॑ असु॒र्या॑य॒ मन्म॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । स्य॒ । शू॒र॒ । अध्व॑नः । न । अन्ते॑ । अ॒स्मिन् । नः॒ । अ॒द्य । सव॑ने । म॒न्दध्यै॑ । शंसा॑ति । उ॒क्थम् । उ॒शना॑ऽइव । वे॒धाः । चि॒कि॒तुषे॑ । अ॒सु॒र्या॑य । मन्म॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव स्य शूराध्वनो नान्तेऽस्मिन्नो अद्य सवने मन्दध्यै। शंसात्युक्थमुशनेव वेधाश्चिकितुषे असुर्याय मन्म ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअव। स्य। शूर। अध्वनः। न। अन्ते। अस्मिन्। नः। अद्य। सवने। मन्दध्यै। शंसाति। उक्थम्। उशनाऽइव। वेधाः। चिकितुषे। असुर्याय। मन्म ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे शूर ! योऽस्मिन् सवनेऽद्य मन्दध्यै नोऽस्मानुशनेव वेधा उक्थं मन्म शंसात्यसुर्य्याय चिकितुषे नः सवनेऽन्ते शंसाति तमध्वनो गन्तारं त्वं नाव स्य ॥२॥
पदार्थः
(अव) विरोधे (स्य) अन्तं प्रापय (शूर) शत्रूणां हिंसक (अध्वनः) मार्गस्य (न) निषेधे (अन्ते) समीपे (अस्मिन्) (नः) अस्माकम् (अद्य) (सवने) क्रियाविशेषयज्ञे (मन्दध्यै) मन्दितुमानन्दितुम् (शंसाति) शंसेत (उक्थम्) वक्तुं योग्यं शास्त्रम् (उशनेव) यथाकामाः (वेधाः) मेधावी (चिकितुषे) विज्ञापनाय (असुर्याय) असुरेष्वविद्वत्सु भवायाविदुषे (मन्म) विज्ञानम् ॥२॥
भावार्थः
हे राजन् ! ये धीमन्तः सर्वेभ्यो विद्याः कामयमाना उपदेशका भवेयुस्तान् सततं रक्ष ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शूर) शत्रुओं के नाशक ! जो (अस्मिन्) इस (सवने) क्रियाविशेषरूप यज्ञ में (अद्य) आज (मन्दध्यै) आनन्द करने को (नः) हम लोगों के (उशनेव) सदृश कामना करता हुआ (वेधाः) बुद्धिमान् जन (उक्थम्) कहने योग्य शास्त्र और (मन्म) विज्ञान को (शंसाति) प्रशंसित करे (असुर्याय) अविद्वानों में उत्पन्न अविद्वान् पुरुष के लिये (चिकितुषे) जनाने को हम लोगों के क्रियाविशेष यज्ञ में (अन्ते) समीप में प्रशंसित करे, उस (अध्वनः) मार्ग के जानेवाले को आप (न) न (अव) विरोध में (स्य) अन्त को प्राप्त कराओ ॥२॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो बुद्धिमान् सब से विद्याओं की कामना करते हुए उपदेशक हों, उनकी निरन्तर रक्षा करो ॥२॥
विषय
इन्द्रियाश्वों को विषय बन्धन से छुड़ाना
पदार्थ
[१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (अध्वनः अन्ते न) = जिस प्रकार मार्ग समाप्ति पर अश्वों को खोलते हैं, उसी प्रकार आप (नः) = हमारे (अस्मिन् सवने) = इस जीवनयज्ञ (अद्य) = आज (मन्दध्यै) = आनन्दप्राप्ति के लिए (अव स्य) = [षोऽन्तकर्मणि] इन्द्रियाश्वों को विषयों के बन्धन से मुक्त करिए। [२] (उशनाः इव) = सर्वहित की कामना करते हुए उपासक के समान यह भक्त (उक्थम्) = स्तोत्रों का शंसन करता है। इस प्रभुभक्ति से ही इसकी उदार लोकहितात्मक वृत्ति बनी रहती है। (वेधाः) = यह ज्ञानी बनकर (चिकितुषे) = उस सर्वज्ञ (असुर्याय) = प्राणशक्ति का संचार करनेवालों में उत्तम प्रभु के लिए (मन्म) = मननीय ज्ञान को प्राप्त करता है। जितना जितना ज्ञान प्राप्त करता चलता है, उतना उतना प्रभु के समीप होता जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारी इन्द्रियों को विषयबन्धन से मुक्त करें, ताकि हम जीवनयात्रा ठीक से पूर्ण कर सकें। हम ज्ञानवर्धन करते हुए प्रभु के स्तोता बनें ।
विषय
विद्वान् आचार्य के कर्त्तव्य । मार्गावसान में अश्वों के तुल्य शिष्यों को आवकाश प्रदान ।
भावार्थ
हे (शूर) शूरवीर पुरुष ! (अद्य) आज (सवने) ऐश्वर्य द्वारा अभिषेक करने वा अध्यापन के अवसर में (अन्ते) अन्त में (नः) हमें (मन्दध्यै) हर्षित आनन्द प्रसन्न होने के लिये (अध्वनः अन्तेन) मार्ग की समाप्ति पर अश्वों के समान (अव स्य) मुक्त कर । जिससे हम आनन्द विनोद प्राप्त कर सकें, (वेधाः) विद्वान् उपदेष्टा (चिकितुषे) ज्ञान प्राप्त करने वाले (असुर्याय) अज्ञान से युक्त विद्यार्थी के (मन्म) मनन करने योग्य (उक्थम्) वचन वेद मन्त्रादि का (उशना इव) कामनावान्, प्रीति युक्त बन्धु के तुल्य (शंसाति) अनुशासन वा प्रवचन करे । अध्यात्म में—(सवने) परमेश्वरोपासना में या संसार में हमें परमेश्वर (अध्वनः अन्ते) संसार मार्ग के अन्त में परमानन्द में आनन्द लाभ करने के लिये मुक्त करे वह परम ज्ञानी प्रभु हम ‘असुर्य’ लोकवासी अज्ञानी को ज्ञान-वचन वेद का उपदेश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जे बुद्धिमान लोक सर्वांच्या विद्येची कामना बाळगून उपदेशक बनतात त्यांचे निरंतर रक्षण कर. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, such as you are, guard us in this yajnic programme of holy living so that we may enjoy life and you too be happy with us. Guard us, pray, O Ruler, as you would the boundaries of the path of progress. Forsake us not till the end. The wise celebrant like a poet and lover sings songs of adoration and speaks words of wisdom to enlighten the simple innocents eager to learn and pray.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The rulers duties are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave king ! you destroy enemies. Do not put an end to their life. Always protect a preacher who admires the Shastras and the knowledge in order to gladden us in this Yajna, which is yet another name of a genuine desire of the welfare of all. Protect a noble travelling preacher because he tries to enlighten less fortunate and ignorant persons living near the site of our Yajna.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! you should always protect the wise preachers because they desire to make all people highly learned.
Foot Notes
(सवने) क्रियाविशेषयज्ञे । सवनम् इति यज्ञ नाम (NG 3, 17 ) = In a particular Yajna. (उक्थम्) वक्तुं योग्यं शास्त्रम् । = Shastra that is worth teaching. (वेधा:) मेधावी । वेधा इति मेधा विनाम । (NG 3, 15) = Genius (स्व) अन्तं प्रापय । = Destroy.
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