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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ए॒वेदिन्द्रा॑य वृष॒भाय॒ वृष्णे॒ ब्रह्मा॑कर्म॒ भृग॑वो॒ न रथ॑म्। नू चि॒द्यथा॑ नः स॒ख्या वि॒योष॒दस॑न्न उ॒ग्रो॑ऽवि॒ता त॑नू॒पाः ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । इत् । इन्द्रा॑य । वृ॒ष॒भाय॑ । वृष्णे॑ । ब्रह्म॑ । अ॒क॒र्म॒ । भृग॑वः । न । रथ॑म् । नु । चि॒त् । यथा॑ । नः॒ । स॒ख्या । वि॒ऽयोष॑त् । अस॑त् । नः॒ । उ॒ग्रः । अ॒वि॒ता । त॒नू॒ऽपाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवेदिन्द्राय वृषभाय वृष्णे ब्रह्माकर्म भृगवो न रथम्। नू चिद्यथा नः सख्या वियोषदसन्न उग्रोऽविता तनूपाः ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। इत्। इन्द्राय। वृषभाय। वृष्णे। ब्रह्म। अकर्म। भृगवः। न। रथम्। नु। चित्। यथा। नः। सख्या। विऽयोषत्। असत्। नः। उग्रः। अविता। तनूऽपाः ॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 20
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरमात्यादिकर्मचारिविषयमाह ॥

    अन्वयः

    यथा राजानः सख्या वियोषदुग्रस्तनूपाः सन्नोन्वविताऽसत्तस्मा इदेव वृषभाय वृष्ण इन्द्राय भृगवो रथं न ब्रह्म चिद्वयमकर्म ॥२०॥

    पदार्थः

    (एव) (इत्) अपि (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यप्रदाय (वृषभाय) वृषभ इव बलिष्ठाय (वृष्णे) बलिष्ठाय (ब्रह्म) महद्धनम् (अकर्म) कुर्य्याम (भृगवः) देदीप्यमानाः शिल्पिनः (न) इव (रथम्) (नु) सद्यः (चित्) (यथा) (नः) अस्माकम् (सख्या) मित्रेण (वियोषत्) सन्दधीत (असत्) भवेत् (नः) अस्माकम् (उग्रः) तेजस्वी (अविता) रक्षकः (तनूपाः) शरीरपालकः ॥२०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा शिल्पिनो विद्यया पदार्थसम्प्रयोगेण विमानादीनि निर्माय श्रीमन्तो भूत्वा मित्राण्यभ्यर्चन्ति तथैव राजसत्कृता वयं राज्ञैश्वर्य्यं वर्धयित्वा सर्वान् राजादीन् सत्कुर्याम ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मन्त्री आदि कर्मचारियों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यथा) जैसे राजा (नः) हमारे (सख्या) मित्र के साथ (वियोषत्) धारण करे (उग्रः) तेजस्वी (तनूपाः) शरीर का पालन करनेवाला हुआ (नः) हम लोगों का (नु) शीघ्र (अविता) रक्षक (असत्) होवे (इत्, एव) उसी (वृषभाय) बैल के सदृश बलिष्ठ (वृष्णे) वीर्यवान् (इन्द्राय) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले के लिये (भृगवः) प्रकाशमान (रथम्) वाहन के (न) सदृश (ब्रह्म, चित्) बड़े भी धन को हम लोग (अकर्म) सिद्ध करें ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे शिल्पीजन विद्या के साथ पदार्थों के संयोग से विमान आदि की रचना करके धनवान् होकर मित्रों का सत्कार करते हैं, वैसे ही राजा से सत्कार किये गये हम लोग राजा से ऐश्वर्य की वृद्धि करके सब राजा आदिकों का सत्कार करें ॥२०॥

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    विषय

    प्रभु से रक्षणीय

    पदार्थ

    [१] (भृगवः) = ज्ञानदीप्त शिल्पी (न) = जैसे (रथम्) = रथ को बनाते हैं, (एवा) = इसी प्रकार (इत्) = निश्चय से (वृषभाय) = शक्तिशाली (वृष्णे) = सुखों का वर्षण करनेवाले इन्द्राय परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (ब्रह्म अकर्म) = स्तुति को करते हैं। यह प्रभुस्तवन ही हमारी जीवनयात्रा की पूर्ति के लिए रथ बन जाता है। [२] हम ब्रह्म [स्तुति व ज्ञान] को इसलिए करते हैं कि वे प्रभु (नः) = हमारी (सख्या) मित्रताओं को (नू चित् वियोषत्) = पृथक् नहीं कर देते, अर्थात् इस ज्ञान से ही हमारी प्रभु के साथ मित्रता बनी रहती है। इस ज्ञान से ही वे (उग्रः) = तेजस्वी प्रभु (नः) = हमारे (अविता) = रक्षक व (तनूपाः) = शरीरों का पालन करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान व स्तुति द्वारा प्रभु की मित्रता पाकर प्रभु से रक्षणीय होते हैं।

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    विषय

    प्रजाओं का उत्साह और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (भृगवः रथं न) लोह आदि धातु को तपा कर नाना पदार्थ बनाने वाले, गतिशील साधनों को धारण करने वाले विद्वान् शिल्पी लोग जिस प्रकार (रथम्) वेग से जाने योग्य रथ को बना कर तैयार करते हैं (एव इत्) उसी प्रकार हम लोग (वृषभाय) बलवान् (वृष्णे) राजा के प्रबन्ध करने में कुशल, (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् पुरुष के लिये हम (ब्रह्म अकर्म) महान् ऐश्वर्य उत्पन्न करें, उस महान् सुखों के वर्षक प्रभु के लिये (ब्रह्म) वेद का मनन उच्चारण आदि करें। (यथा) जिससे (नू चित्) शीघ्र ही वह (नः) हमें (सख्या) हमारे मित्र गण से (वि योषत्) मिलाये रक्खे अथवा (नू चित् नः सख्या वियोषत्) हमारे साथ किये मित्रभावों को पृथक् न करे, न तोड़े । वह (उग्रः) बलवान् (अविता) रक्षक (नः) हमारे (तनूपाः) शरीरों का रक्षक (असत्) बना रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे शिल्पी (कारागीर) विद्येने पदार्थांचा संयोग करून विमान इत्यादींची रचना करून धनवान बनून मित्रांचा सत्कार करतात, तसेच राजाकडून सत्कार झालेल्या आम्ही सर्वांनी ऐश्वर्याची वाढ करून राजा इत्यादींचा सत्कार करावा. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus for Indra, lord of glory, virile and generous, let us create wealth and offer songs of homage and celebration just as the Bhrgus, scientists and engineers, create and offer the chariot, so that he may not forsake us but firmly retain our friendship, and, bright and blazing as he is, he may continue to be our protector and saviour of our body and the social order.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the ministers and other state officials are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May the king be ever in unison with our friends? May he be fierce against the foes? May he be the defender of our homes and protect our bodies? The resplendent technicians manufacture aero planes and other vehicles, and we collect much wealth (in the form of revenues etc.) for the king. He is the giver of great prosperity, mighty like the bull, and is very vigorous.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile in the mantra. As technicians and engineer's manufacture aircraft and other vehicles through know- ledge and the application of various articles. They have become rich and honor their friends, in the same manner, because of being respected by the king and increasing the prosperity of the State, let us honor the king and others.

    Foot Notes

    (भगवः) देदीप्यमानाः शिल्पिनः । भृगवः, भ्रस्ज-पाके । परिपक्वविज्ञानाः = Artisans shining with their virtues. (ब्रह्म) महद्धनम् । ब्रह्मेति धननाम (NG 2, 10) = Great wealth.

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