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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒भिर्नृभि॑रिन्द्र त्वा॒युभि॑ष्ट्वा म॒घव॑द्भिर्मघव॒न्विश्व॑ आ॒जौ। द्यावो॒ न द्यु॒म्नैर॒भि सन्तो॑ अ॒र्यः क्ष॒पो म॑देम श॒रद॑श्च पू॒र्वीः ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒भिः । नृऽभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । त्वा॒युऽभिः॑ । त्वा॒ । म॒घव॑त्ऽभिः । म॒घ॒ऽव॒न् । विश्वे॑ । आ॒जौ । द्यावः॑ । न । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । सन्तः॑ । अ॒र्यः । क्ष॒पः । म॒दे॒म॒ । श॒रदः॑ । च॒ । पू॒र्वीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एभिर्नृभिरिन्द्र त्वायुभिष्ट्वा मघवद्भिर्मघवन्विश्व आजौ। द्यावो न द्युम्नैरभि सन्तो अर्यः क्षपो मदेम शरदश्च पूर्वीः ॥१९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एभिः। नृऽभिः। इन्द्र। त्वायुऽभिः। त्वा। मघवत्ऽभिः। मघऽवन्। विश्वे। आजौ। द्यावः। न। द्युम्नैः। अभि। सन्तः। अर्यः। क्षपः। मदेम। शरदः। च। पूर्वीः ॥१९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 19
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजकर्त्तव्यताविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र राजन् ! वयमेभिस्त्वायुभिर्मघवद्भिर्नृभिः सह विश्व आजौ द्यावो न द्युम्नैः सह त्वाऽऽश्रिताः सन्तोऽर्य्य इव पूर्वीः क्षपश्शरदश्चाभि मदेम ॥१९॥

    पदार्थः

    (एभिः) पूर्वोक्तैः (नृभिः) नेतृभिः (इन्द्र) शत्रूणां विदारक (त्वायुभिः) त्वां कामयमानैः (त्वा) त्वाम् (मघवद्भिः) बहुपूजितधनयुक्तैः (मघवन्) बह्वैश्वर्य्य (विश्वे) समग्रे (आजौ) सङ्ग्रामे (द्यावः) किरणाः (न) इव (द्युम्नैः) यशोधनयुक्तैः (अभि) (सन्तः) वर्त्तमानाः (अर्य्यः) स्वामी (क्षपः) रात्रीः (मदेम) आनन्देम (शरदः) शरदृतून् (च) (पूर्वीः) पुरातनीः ॥१९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये धार्मिकैः शरीरात्मबलैः सत्यं कामयमानैः स्वराज्यैर्भवैर्धनाढ्यैः पुरुषैः सह दृढं सन्धिं कृत्वा शत्रून् विजित्य राज्यं प्रशंसन्ति ते सूर्य्यप्रकाश इव कीर्त्तिमन्तो धनिनो भूत्वा सर्वदाऽऽनन्दिता भवन्ति ॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजजन के लिये करने योग्य विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥१९॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) बहुत ऐश्वर्य्य से युक्त (इन्द्र) शत्रुओं के नाशकारक राजन् ! हम लोग (एभिः) इन पूर्वोक्त (त्वायुभिः) आपकी कामना करते हुए (मघवद्भिः) बहुत श्रेष्ठ धनों से युक्त (नृभिः) नायक मनुष्यों के साथ (विश्वे) सम्पूर्ण (आजौ) संग्राम में (द्यावः) किरणों के (न) तुल्य और (द्युम्नैः) यशरूप धन से युक्त सत्पुरुषों के साथ (त्वा) आपके आश्रय का (सन्तः) वर्ताव करते हुए (अर्य्यः) स्वामी के तुल्य (पूर्वीः) पुरानी (क्षपः) रात्रियों और (शरदः) शरद् ऋतुओं भर (च) भी (अभि, मदेम) सब ओर से आनन्द करें ॥१९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो लोग धार्मिक शरीर और आत्मा के बल से युक्त सत्य की कामना करते हुए अपने राज्य में हुए धनयुक्त पुरुषों के साथ दृढ़ मेल कर और शत्रुओं को जीत के राज्य की प्रशंसा करते हैं, वे सूर्य्य के प्रकाश के सदृश कीर्तियुक्त और धनी होकर सब काल में आनन्दित होते हैं ॥१९॥

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    विषय

    सदा प्रभुस्तवन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (मघवन्) = सब ऐश्वर्योंवाले प्रभो !(त्वायुभि:) = तेरी प्राप्ति की कामनावाले, अतएव (मघवद्भिः) = [मघ- ऐश्वर्य, यज्ञ 'मख'] ऐश्वर्यो का यज्ञों में विनियोग करनेवाले (एभिः नृभिः) = इन मनुष्यों के साथ, अर्थात् सदा ऐसे पुरुषों के संग में रहते हुए, (विश्वे आजौ) = सब युद्धों में (अर्यः) = शत्रुओं को (अभिसन्तः) = अभिभूत करते हुए (क्षपः) = रात्रियों में (च) = तथा (पूर्वीः शरदः) = इन [वह्नी: सा०] जीवन के बहुत वर्षों में त्वा मदेम आपको स्तुतियों से प्रीणित करें, अर्थात् हम सदा आपका स्तवन करनेवाले बनें। आपका सच्चा स्तवन यही है कि हम संयोग से उत्तम वृत्तिवाले होते हुए इस जीवन संग्राम में वासनाओं से अभिभूत न हों। [२] वासनाओं को अभिभूत करते हुए हम इस प्रकार दीप्त हों (न) = जैसे कि (द्यावः) = द्युलोक (द्युम्नै:) = ज्योतियों से दीप्त होते हैं। सत्संग ही हमारी इस ज्ञानवृद्धि का कारण बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभुप्रवण यज्ञशील लोगों के सम्पर्क में अपने ज्ञान को बढ़ाते हुए वासनाओं को विनष्ट करें। प्रभुस्मरण करते हुए जीवनयात्रा में आगे बढ़ें।

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    विषय

    सर्वोपरि राजा और प्रभु । प

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! हे अज्ञाननाशक राजन् ! विद्वन् ! हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (एभिः) इन (त्वायुभिः) तुझे चाहने वाले, तेरे प्रेमी (मघवद्भिः) उत्तम धन सम्पन्न (एभिः नृभिः) इन नायक पुरुषों सहित हम (विश्वे) सब लोग (आजौ) युद्ध (द्युम्न्नैः द्यावः न) तेजों सहित सूर्य किरणों के तुल्य धनों से सम्पन्न होकर (अर्यः) शत्रुओं को (अभि सन्तः) पराजित करते हुए (पूर्वीः क्षपः शरदः च) पूर्व की पुरातन और आगामी भी बहुत सी रातों और वर्षों तक (मदेम) हर्षयुक्त होकर रहे और आगे भी रहें । अर्थात् सब दिनों, सब वर्षों सुख से रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे लोक धार्मिक, शरीर व आत्मा यांच्या बलाने युक्त, सत्याची कामना करत आपल्या राज्यातील धनवान पुरुषांबरोबर दृढ संघटन करून शत्रूंना जिंकून राज्याची प्रशंसा करतात, ते सूर्याच्या प्रकाशाप्रमाणे कीर्तीयुक्त व धनवान बनून सर्व काळी आनंदित होतात. ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of glory, commander of the world’s honour and excellence, lord of wealth and grace, with all these leaders of men, your lovers and celebrants all, wealthy, powerful and honourable, and with all our wealth and power, we pray, let us all shine being brilliant as sunrays in the battle of life and let us enjoy and celebrate life and the lord all nights and days and seasons all the year round on top of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the rulers are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you destroy enemies and possess abundant wealth. May we enjoy happiness in all days, nights and seasons in the company of leading men, endowed with admirable wealth. May we seek shelter in you in the course of battles in the company of the illustrious and wealthy men like you. You are our master and resplendent like rays of the sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Such persons always enjoy bliss who attain good reputation like the rays of the sun and become rich having conquered their enemies and have made firm alliance with righteous people. Endowed with physical and spiritual strength, always keen for truth, wealthy, and born in the same your country, they praise their country on account of good acts and policies of its men and rulers.

    Foot Notes

    (आजौ) सङ्ग्रामे | आजौ इति संग्रामनाम (NG 2, 17) = In the battle. (द्युम्नैः) यशोधनयुक्त:। द्युम्नमिति धननाम (NG 2, 10) द्युम्न द्योततेर्यशो वा अन्नं वेति ( Nkts 1,5 ) = Endowed with good reputation and wealth. (अर्य्य:) स्वामी । अयं इतीश्वरनाम (NG 2, 22) = Master, Lord.

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