ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
व॒व॒क्ष इन्द्रो॒ अमि॑तमृजी॒ष्यु१॒॑भे आ प॑प्रौ॒ रोद॑सी महि॒त्वा। अत॑श्चिदस्य महि॒मा वि रे॑च्य॒भि यो विश्वा॒ भुव॑ना ब॒भूव॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठव॒व॒क्षे । इन्द्रः॑ । अमि॑तम् । ऋ॒जी॒षी । उ॒भे इति॑ । आ । प॒प्रौ॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । अतः॑ । चि॒त् । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । वि । रे॒चि॒ । अ॒भि । यः । विश्वा॑ । भुव॑ना । ब॒भूव॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ववक्ष इन्द्रो अमितमृजीष्यु१भे आ पप्रौ रोदसी महित्वा। अतश्चिदस्य महिमा वि रेच्यभि यो विश्वा भुवना बभूव ॥५॥
स्वर रहित पद पाठववक्षे। इन्द्रः। अमितम्। ऋजीषी। उभे इति। आ। पप्रौ। रोदसी इति। महिऽत्वा। अतः। चित्। अस्य। महिमा। वि। रेचि। अभि। यः। विश्वा। भुवना। बभूव ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो जगदीश्वर इन्द्र इवाभि बभूव यतश्चिदस्य महिमा वि रेचि यो विश्वा भुवना दधात्यत उभे रोदसी महित्वा आ पप्रावृजीषी सन्नमितं ववक्षे स एव सर्वेभ्यो महान् वेद्यः ॥५॥
पदार्थः
(ववक्षे) वहति (इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा (अमितम्) अपरिमितम् (ऋजीषी) ऋजुः (उभे) द्वे (आ) (पप्रौ) व्याप्नोति (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (महित्वा) महत्त्वेन (अतः) (चित्) अपि (अस्य) (महिमा) (वि) (रेचि) विरिच्यते (अभि) (यः) (विश्वा) सर्वाणि (भुवना) भुवनानि (बभूव) ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सर्वेभ्यो जगदीश्वरस्य महिमानमधिकं जानन्ति तेऽत्र महीयन्ते ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो जगदीश्वर (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश राजा (अभि, बभूव) हुआ जिससे (चित्) भी (अस्य) इसका (महिमा) बड़प्पन (वि, रेचि) विशेष करके शोभित होता है और जो (विश्वा) सम्पूर्ण (भुवना) भुवनों को धारण करता है (अतः) इससे (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (महित्वा) महत्त्व से (आ, पप्रौ) व्याप्त करता है और (ऋजीषी) सरल हुआ (अमितम्) परिमाणरहित पदार्थ (ववक्षे) प्राप्त करता है, वही सब से बड़ा समझना चाहिये ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सब से जगदीश्वर का बड़प्पन अधिक जानते हैं, वे इस जगत् में प्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं ॥५॥
विषय
अनन्त प्रभु
पदार्थ
[१] (ऋजीषी) = ऋजुता [सरलता] की प्रेरणा देनेवाले (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (अमितं ववक्षे) = असीम वृद्धिवाले होते हैं [वक्ष् to grow]। इतनी वृद्धिवाले कि (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (महित्वा) = अपनी महिमा से (आपप्रौ) = पूरित कर लेते हैं । [२] वस्तुतः (अतः चित्) = इन द्यावापृथिवी से भी (अस्य) = इन प्रभु की (महिमा) = महिमा (विरेचि) = अतिरिक्त होती है। ये द्यावापृथिवी उसकी महिमा को अपने अन्दर समा लेने में समर्थ नहीं होते। 'पादोऽस्य विश्वा भूतानि' ये सब भूत तो उस प्रभु के चतुर्थांश में ही समा जाते हैं। प्रभु तो वे हैं, (यः) = जो कि (विश्वा भुवना) = सब भुवनों को (अभिबभूव) = अभिभूत किये हुए हैं। 'एतावान् अस्य महिमा' ये सब भुवन प्रभु की महिमा हैं, 'अतो ज्यायाँश्च पूरुषः' प्रभु इससे बहुत अधिक हैं। प्रभु इस सारे ब्रह्माण्ड को अपने एक देश में लिये हुए हैं। अनन्त हैं वे प्रभु ।
भावार्थ
भावार्थ– द्यावापृथिवी उस प्रभु की महिमा को प्रकट कर रहे हैं। प्रभु इनसे महान् हैं, ये तो प्रभु के एक देश में ही स्थित हैं ।
विषय
राजा का विनय धारण, भरण, रक्षणादि से पिता तुल्य होना ।
भावार्थ
जिस प्रकार (इन्द्रः) मेघ तमस् को विदारण करने वाला सूर्य (अमितं) अविनाशी और अनन्त प्रकाश को (ववक्षे) धारण करता है और (महित्वा रोदसी आ पप्रौ) महान् सामर्थ्य से भूमि और आकाश दोनों को तेज से पूर्ण करता है, (यः विश्वा भुवना अभि बभूव) जो समस्त लोकों में व्यापता है (अस्य महिमा अतः विरेचि) उसका महान् सामर्थ्य इस लोक से बहुत बड़ा है । उसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा (अमितं) अपरिमित और शत्रुओं से न नाश करने योग्य बल, सामर्थ्य (ववक्षे) धारण करता है (इन्द्रः) विद्वान् आचार्य (अमितं ववक्षे) अविज्ञात तत्व वा अविनाशी वेद-ज्ञान का प्रवचन करे । वह (ऋजीषी) ऋजु सरल मार्ग से प्रजाजनों वा शिष्यजनों को ले जाने हारा, धार्मिक (महित्वा) अपने महान् सामर्थ्य और पूज्यपद से (रोदसी) माता और पिता दोनों के पदों को स्वयं पूर्ण करता है । राजा और आचार्य दोनों प्रजा वा शिष्य के मा बाप के समान है। और (यः) जो (विश्वा) समस्त (भुवना) प्रजाओं को (अभि बभूव) अपने वश करता है (अतः चित्) इसी कारण (अस्य) इसका (महिमा) महान् सामर्थ्य (विरेचि) इस राष्ट्र से कहीं बढ़ कर होता है । इति सप्तदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
प्रजानां विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः ॥ रघुवंशे कालिदासः ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सर्वात अधिक जगदीश्वराचा मोठेपणा जाणतात, ती या जगात प्रतिष्ठा प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord supreme of nature and Rtam, the law of nature, wields and sustains both heaven and earth, immeasurable though they are. He pervades both and transcends them with his power and grandeur. For this very reason, his power and grandeur too exceeds everything else of the universe since he pervades, transcends and presides over all the regions of the universe in existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the enlightened persons are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men you should know that God is the Greatest or Supreme Being. He sustains all universe by His infinite greatness like the sun, who pervades and surpasses all and fills heaven and earth with His magnitude. He is the symbolic of uprightness and upholds this infinite universe. Because of His vastness, He has surpassed all the regions and exceeds the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are respected in the world who understand the glory and majesty of God to be the highest.
Translator's Notes
This mantra clearly tells that God is Omnipresent and Omnipotent. The idea of Indra being a particular deity residing in heaven is irreverent here, as well as incorrect. इन्द्र मित्रं वरुणमग्निमाहुः एकं सवित्रा is another proof from the Vedas to prove the first point.
Foot Notes
(विरेचि) विरिच्यते । = Surpasses. (ववक्षे ) वहति । = Bears, Upholds, Sustains.
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