ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 13
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं पिप्रुं॒ मृग॑यं शूशु॒वांस॑मृ॒जिश्व॑ने वैदथि॒नाय॑ रन्धीः। प॒ञ्चा॒शत्कृ॒ष्णा नि व॑पः स॒हस्रात्कं॒ न पुरो॑ जरि॒मा वि द॑र्दः ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । पिप्रु॑म् । मृग॑यम् । शू॒शु॒ऽवांस॑म् । ऋ॒जिश्व॑ने । वै॒द॒थि॒नाय॑ । र॒न्धीः॒ । प॒ञ्चा॒शत् । कृ॒ष्णा । नि । व॒पः॒ । स॒हस्रा॑ । अत्क॑म् । न । पुरः॑ । ज॒रि॒मा । वि । द॒र्दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं पिप्रुं मृगयं शूशुवांसमृजिश्वने वैदथिनाय रन्धीः। पञ्चाशत्कृष्णा नि वपः सहस्रात्कं न पुरो जरिमा वि दर्दः ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। पिप्रुम्। मृगयम्। शूशुऽवांसम्। ऋजिश्वने। वैदथिनाय। रन्धीः। पञ्चाशत्। कृष्णा। नि। वपः। सहस्रा। अत्कम्। न। पुरः। जरिमा। वि। दर्दरिति दर्दः ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 13
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजंस्त्वं वैदथिनाय ऋजिश्वने पिप्रुं शूशुवांसं मृगयं रन्धीः। अत्कं जरिमा न पुरः पञ्चाशत्सहस्रा कृष्णा निवपो दुष्टान् वि दर्दः ॥१३॥
पदार्थः
(त्वम्) (पिप्रुम्) व्यापकम् (मृगयम्) मृगमाचक्षाणम् (शूशुवांसम्) बलेन वृद्धम् (ऋजिश्वने) ऋजुगुणैर्वृद्धाय (वैदथिनाय) विज्ञानवतोऽपत्याय (रन्धीः) हिंस्याः (पञ्चाशत्) (कृष्णा) कृष्णानि सैन्यानि (नि) (वपः) सन्तनुहि (सहस्रा) सहस्राणि (अत्कम्) अतति व्याप्नोति तं वायुम् (न) इव (पुरः) (जरिमा) अतिशयेन जरा (वि) (दर्दः) विदारय ॥१३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । राजादिराजपुरुषैः सेनायां सहस्राणि वीरान् रक्षयित्वा विनयेन जरा रूपाणि बलानि हरतीव शत्रूणां बलं शनैः शनैर्हत्वा शुद्धा नीतिः प्रचारणीया ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (त्वम्) आप (वैदथिनाय) विज्ञानवाले के पुत्र के लिये (ऋजिश्वने) सरलता आदि गुणों से बढ़े हुए पुरुष के लिये (पिप्रुम्) व्यापक (शूशुवांसम्) बल से वृद्ध (मृगयम्) मृग को ढूँढनेवाले का (रन्धीः) नाश करो और (अत्कम्) व्याप्त होनेवाले वायु को (जरिमा) अतिवृद्ध अवस्था के (न) सदृश (पुरः) आगे (पञ्चाशत्) पचास और (सहस्रा) सहस्रों (कृष्णा) कृष्णवर्णवाले सैन्यजनों का (नि, वपः) विस्तार करो और दुष्ट पुरुषों का (वि, दर्दः) नाश करो ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । राजा आदि राजपुरुषों को चाहिये कि सेना में हजारों वीरों को रखके और नम्रता से वृद्धावस्था जैसे रूप और बलों को हरती है, वैसे ही शत्रुओं के बल को धीरे-धीरे नष्ट कर शुद्ध नीति का प्रचार करो ॥१३॥
विषय
'पिप्रु, मृगय और शूशुवान्' का संहार
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (वैदथिनाय) = ज्ञानयज्ञ का विस्तार करनेवाले तथा (ऋजिश्वने) = [ऋजुश्वि] सरलता के मार्ग से गति करनेवाले के लिए (पिप्रुम्) = [प्रा पूरणे] अपना ही पूरण करनेवाले आत्मम्भरि [= अत्यन्त स्वार्थी] को, (मृगयम्) = [मृग अन्वेषणे] औरों के घरों में ढूँढ़ ढूँढ़ कर सम्पत्ति-हरण करनेवाले को तथा (शूशुवांसम्) = अन्याय्य मार्गों से धनाहरण करके फूले हुए धनाभिमानी को (रंधी:) = विनष्ट करते हैं। इनके विनाश का भाव यही है कि इस 'ऋजिश्वा वैदथिन' में आप स्वार्थ, चोरी व धनाभिमान की भावना उत्पन्न नहीं होने देते। [२] इसी प्रकार (पंचाशत्) = पचासों सहस्त्रा हजार प्रकार की कृष्णा कालिमा ली हुई पाप- भावनाओं को (निवपः) = आप विनष्ट करते हैं । (न) = जैसे (जरिमा) = बुढ़ापा (अत्कम्) = रूप को विनष्ट करता है, इसी प्रकार आप (पुर:) = असुर पुरियों को (विदर्द:) = विदीर्ण कर देते हैं। इस उपासक के शरीर में काम, क्रोध व लोभ आदि आसुरभाव नहीं पनप पाते। ये इसके जीवन को नरक नहीं बना देते ।
भावार्थ
भावार्थ- उपासक स्वार्थ, चोरी व धनाभिमान से ऊपर उठता है और असुरों को अपने अन्दर निवासस्थान नहीं बनाने देता।
विषय
सैकड़ों सहस्रों परसैन्यों का उच्छेद ।
भावार्थ
हे राजन् ! (त्वं) तू (वैदथिनाय) यज्ञवान् वा विज्ञान और ऐश्वर्यवान् प्रजागण के सन्तान रूप (ऋजिश्वने) उत्तम सरल व्यवहारों से बढ़ने वाले, ऋजु, धर्म-मार्ग में चलने वाले इन्द्रियों से युक्त धर्मात्मा के हित के लिये (पिप्रुं) राष्ट्र में फैले हुए (मृगयं) दूसरों के धनादि खोजने वाले (शुशुवांसं) बल में बढ़ने वाले दुष्ट पुरुष को (रन्धीः) अपने वस कर । और तू अपने (पञ्चाशत्) ५० (सहस्रा) हज़ार (कृष्णा) शत्रु बल का कर्षण करने में समर्थ सैन्यों को (नि वपः) स्थान २ पर रख, और शत्रु के इतने सैन्यों को निर्मूल कर । और (जरिमा) बुढ़ापा (अत्कं न) जिस प्रकार रूप को नाश कर देता है उसी प्रकार तू (पुरः) शत्रुओं के नगरों को (वि दर्दः) विविध प्रकारों से छिन्न भिन्न कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजा व राजपुरुषांनी सेनेमध्ये हजारो वीरांना ठेवावे व वृद्धावस्था जशी रूप व बल नष्ट करते तसे शत्रूचे बल हळूहळू नष्ट करून नम्रतेने शुद्ध नीतीचा प्रचार करावा. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
For the sake of the man of rectitude and continuance of law abiding generations of the pious yajnics, you subdue the swollen and wide spread wastours, hunters of forest wealth and destroyers of social good. Create a new force of fifty thousand warriors and like a storm of wind blow off the enemy strongholds, changing the old outmoded forms for the new.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal