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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    नू ष्टु॒त इ॑न्द्र॒ नू गृ॑णा॒न इषं॑ जरि॒त्रे न॒द्यो॒३॒॑ न पी॑पेः। अका॑रि ते हरिवो॒ ब्रह्म॒ नव्यं॑ धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । स्तु॒तः । इ॒न्द्र॒ । नु । गृ॒णा॒नः । इष॑म् । ज॒रि॒त्रे । न॒द्यः॑ । न । पी॒पे॒रिति॑ पीपेः । अका॑रि । ते॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । ब्रह्म॑ । नव्य॑म् । धि॒या । स्या॒म॒ । र॒थ्यः॑ । स॒दा॒ऽसाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो३ न पीपेः। अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥२१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। स्तुतः। इन्द्र। नु। गृणानः। इषम्। जरित्रे। नद्यः। न। पीपेरिति पीपेः। अकारि। ते। हरिऽवः। ब्रह्म। नव्यम्। धिया। स्याम। रथ्यः। सदाऽसाः ॥२१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 21
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे हरिव इन्द्र ! त्वं गृणानस्सञ्जरित्रे नद्यो नेषन्नु पीपेर्यैस्सर्वैर्नु स्तुतोऽकारि तैस्ते तुभ्यं नव्यं ब्रह्म सदासा वयं धिया रथ्यो न कृतवन्तः स्याम ॥२१॥

    पदार्थः

    (नु) सद्यः। अत्र सर्वत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (स्तुतः) प्रशंसितः (इन्द्र) (नु) (गृणानः) प्रशंसन् (इषम्) अन्नाद्यैश्वर्यम् (जरित्रे) स्तावकाय (नद्यः) (न) इव (पीपेः) प्यायय (अकारि) (ते) तव (हरिवः) प्रशंसिताऽश्वः (ब्रह्म) असङ्ख्यं धनम् (नव्यम्) नवीनम् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (स्याम) (रथ्यः) रथेषु साधुः (सदासाः) दासैः सेवकैस्सह वर्त्तमानाः ॥२१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यो मनुष्यः परीक्षकः सर्वत्र प्रशंसितो नदीवत्प्रजानां तर्प्पकोऽश्व इव सुखेन स्थानान्तरं गमयिता भवेत् तं सर्वाधीशं कृत्वा सभृत्या वयं तदाऽज्ञायां वर्त्तित्वा सर्वे सततं सुखिनो भवेमेति ॥२१॥ अत्रेन्द्रराजाऽमात्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥२१॥ इति षोडशं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (हरिवः) उत्तम घोड़ों से युक्त (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् राजन् ! आप (गृणानः) प्रशंसा करते हुए (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये (नद्यः) नदियों के (न) सदृश (इषम्) अन्न आदि ऐश्वर्य की (नु) शीघ्र (पीपेः) वृद्धि करावें और जिन सब लोगों से (नु) शीघ्र (स्तुतः) आप प्रशंसित (अकारि) किये गये उन जनों से (ते) आपके लिये (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) सङ्ख्यारहित धन को (सदासाः) सेवकों के सहित वर्त्तमान हम लोग (धिया) बुद्धि वा कर्म से (रथ्यः) वाहनों के निमित्त मार्ग के सदृश सिद्ध कर चुकनेवाले (स्याम) हों ॥२१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य परीक्षा करनेवाला, सब जगह प्रशंसित और नदी के सदृश प्रजाओं के तृप्तिकर्त्ता, अश्वसमान सुखपूर्वक दूसरे स्थान को पहुँचानेवाला होवे, उसको सर्वाधीश करके नौकरों के सहित हम उसकी आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करके सब लोग निरन्तर सुखी होवें ॥२१॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा, मन्त्री और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥२१॥ यह सोलहवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    रथ्यः सदासाः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नु) = अब स्तुतः स्तुति किये गये आप (नु) = निश्चय से (गृणान:) = ज्ञान का उपदेश करते हुए, (जरित्रे) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाले स्तोता के लिए (इषम्) = प्रेरणा को न इस प्रकार (पीपे:) = आप्यायित करते हैं, जैसे कि (नद्यः) = नदियों को जल से। हम प्रभुस्तवन करते हैं और प्रभु द्वारा प्रेरणाओं से आप्यायित [वृद्ध] होते हैं। [२] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले प्रभो ! (ते) = आपकी प्राप्ति के लिए (नव्यम्) = अतिशयेन स्तुत्य ब्रह्म ज्ञान अकारि हमारे से किया जाता है। प्रशस्तज्ञान को प्राप्त करके ही हम आपकी प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं। हम (धिया) = ज्ञानपूर्वक कर्मों द्वारा (रथ्यः) = उत्तम शरीररूप रथवाले तथा (सदासा:) = [सदा+सा 'सन् संभक्तौ'] सदा सम्भजनशील व [स+दासा:] अपने को आपके प्रति अर्पण करनेवाले बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमें ज्ञानोपदेश करते हुए सत्कर्मों की प्रेरणा देंगे। परिणामतः उत्तम शरीर-रथवाले व प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले बनेंगे। सूक्त का संक्षेप में भाव यही है कि 'इन्द्र' का स्तवन करते हुए हम भी आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले 'इन्द्र' ही बनेंगे। इसी इन्द्र का स्तवन अगले सूक्त में भी है—

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    विषय

    प्रजाओं का उत्साह और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (नु स्तुतः) स्तुति करने योग्य और (नु गृणानः) अन्यों को उपदेश करता हुआ हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! विद्वन् ! तू (नद्यः न) जलों से नदियों के समान (जरित्रे) स्तुतिशील प्रजाजन और अध्ययनशील विद्यार्थी जन के हितार्थ (इषं) अन्न, वृष्टि एवं कामना को (पीपेः) पूर्ण कर । हे (हरिवः) मनुष्यों के स्वामिन्! अश्वों के स्वामिन् सेनापते ! (ते) तेरे लिये (नव्यं) अति उत्तमोत्तम (ब्रह्म) ऐश्वर्य उत्पन्न (अकारि) किया जाय, हम लोग (धिया) ज्ञान वाली बुद्धि और कर्म द्वारा (सदासाः) भृत्यों सहित वा सदा ऐश्वर्य भोक्ता और दानशील होते हुए (रथ्यः) रथों के स्वामी होकर (स्याम) रहें । इति विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो माणूस परीक्षक, सर्व स्थानी प्रशंसनीय व नदीप्रमाणे प्रजेचा तृप्तिकर्ता, अश्वाप्रमाणे सुखपूर्वक दुसऱ्या ठिकाणी पोचविणारा असेल तर त्याला सर्वाधीश करून नोकरांसह आम्ही त्याच्या आज्ञेनुसार वर्तन करून सर्व लोकांनी निरंतर सुखी व्हावे. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, appreciated, praised and worshipped, appreciating, approving and praising your devotees, create and give ample food and energy to the celebrants, like rivers flowing and swelling with waters. O lord of speed and transport, with the best of our intellect and imagination, the new homage and new song is created and offered to you. And, we pray, with the same intellect and imagination may we be chariot champions blest with divine gifts of prosperity and spirituality.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of ministers and government officials are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you have good horses, ad- mire the virtuous learned persons, grow more food grains and other kinds of wealth for the devotees of God, like the flooded rivers. Those who praise you on account of your virtues, they give admirable great wealth also to you. Let us be endowed with good intellect and good actions with all our attendants and be happy like a good charioteer reaching his destination in time.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let us elect our ruler, who examines truth, is admired everywhere and takes his subjects to progress like the rivers and takes to distant places like a horse. Let us always enjoy happiness along with our attendants being obedient to him.

    Foot Notes

    (इषम्) अन्नाद्यैश्वर्यम् इषमिति अन्ननाम (NG 2, 7) = Wealth in the form of food grains and other kinds. (पीपे:) प्यायय। = Multiply. (हरिवः) प्रशंसिताऽश्वः । हरी इन्द्रस्य (NG 1, 15 ) आदिष्टोपयोजननाम (ओ प्यांयीवृद्धौ) स्वा० = Having good horses.

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