ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
इ॒मे नरो॑ वृत्र॒हत्ये॑षु॒ शूरा॒ विश्वा॒ अदे॑वीर॒भि स॑न्तु मा॒याः। ये मे॒ धियं॑ प॒नय॑न्त प्रश॒स्ताम् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । नरः॑ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु । शूराः॑ । विश्वाः॑ । अदे॑वीः । अ॒भि । स॒न्तु॒ । मा॒याः । ये । मे॒ । धिय॑म् । प॒नय॑न्त । प्र॒ऽश॒स्ताम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे नरो वृत्रहत्येषु शूरा विश्वा अदेवीरभि सन्तु मायाः। ये मे धियं पनयन्त प्रशस्ताम् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठइमे। नरः। वृत्रऽहत्येषु। शूराः। विश्वाः। अदेवीः। अभि। सन्तु। मायाः। ये। मे। धियम्। पनयन्त। प्रऽशस्ताम् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
राज्ञा कीदृशा अमात्याः कर्त्तव्या इत्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! य इमे शूरा नरो वृत्रहत्येषु विश्वा अदेवीर्माया निवार्य्य मे प्रशस्तां धियमभि पनयन्त ते तव कार्य्यकराः सन्तु ॥१०॥
पदार्थः
(इमे) वर्त्तमानाः (नरः) न्याययुक्ताः (वृत्रहत्येषु) सङ्ग्रामेषु (शूराः) (विश्वाः) समग्राः (अदेवीः) अदिव्या अशुद्धाः (अभि) आभिमुख्ये (सन्तु) भवन्तु (मायाः) कपटछलयुक्ताः प्रज्ञाः (ये) (मे) मम (धियम्) प्रज्ञाम् (पनयन्त) स्तुवन्ति व्यवहरन्ति वा (प्रशस्ताम्) उत्तमाम् ॥१०॥
भावार्थः
हे राजन् ! ये शत्रूणां छलैर्वञ्चिता न स्युस्सङ्ग्रामेषूत्साहिताः शौर्योपेता युध्येयुः सर्वतो गुणान् गृहीत्वा दोषाँस्त्यजेयुस्त एव तवाऽमात्याः सन्तु ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा को कैसे मन्त्री करने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (ये) जो (इमे) वर्त्तमान (शूराः) शूरवीर (नरः) न्याययुक्त पुरुष (वृत्रहत्येषु) संग्रामों में (विश्वाः) समस्त (अदेवीः) अशुद्ध (मायाः) कपट छलयुक्त बुद्धियों को निवृत्त करके (मे) मेरी (प्रशस्ताम्) प्रशंसित (धियम्) उत्तम बुद्धि का (अभि, पनयन्त) सम्मुख स्तुति वा व्यवहार करते हैं, वे आपके कार्य्य करनेवाले (सन्तु) हों ॥१०॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो शत्रुओं के छलों से ठगे हुए न हों, संग्रामों में उत्साह को प्राप्त, शूरतायुक्त युद्ध करें, सब ओर से गुणों को ग्रहण कर दोषों को त्यागें, वे ही आपके मन्त्री हों ॥१०॥
विषय
उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे राजन् ( ये ) जो ( मे ) मुझ राष्ट्रवासी जन के हितार्थ ( प्रशस्तां ) अति उत्तम ( धियं ) बुद्धि को ( पनयन्त) उपदेश करते हैं ( इमे ) ये ( नरः ) उत्तम लोग ( शूराः ) शूरवीर होकर ( वृत्र-हत्येषु ) शत्रुओं को मारने के निमत्त संग्रामों में (विश्वाः ) समस्त ( अदेवीः ) अशुभ ( मायाः ) शत्रुकृत छलादि वञ्चनाओं को (अभि सन्तु) पराजित कर दूर करें। इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
आसुरी माया का अभिभव
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि (ये) = जो भी जीव (मे) = मेरी (प्रशस्ताम्) = प्रशस्त (धियम्) = ज्ञानपूर्वक की गई स्तुति को (पनयन्त) = [स्तुवन्ति=कुर्वन्ति] उच्चरित करते हैं, (इमे नरः) = ये नर (वृत्रहत्येषु) = संग्रामों (शूराः) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले होते हैं और (विश्वा:) = सब (अदेवी:) = आसुरी (मायाः) = मायाओं में को, छलछिद्र आदि को (अभिसन्तु) = अभिभूत कर लेते हैं। [२] वस्तुतः प्रभुस्तवन से ये प्रभु के तेज से तेजस्वी बनते हैं और सब आसुरभावों का विनाश करके पवित्र जीवनवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तवन करते हुए हम अध्यात्म संग्राम में विजयी बनें और आसुरभावों को दूर करें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तुझे मंत्री शत्रूकडून फसविले गेलेले नसावेत. त्यांनी युद्धात उत्साहाने व शौर्याने युद्ध करावे. सगळीकडून गुण ग्रहण करून दोषांचा त्याग करणारे असावेत. ॥ १० ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
All these leaders of the world, best and bravest in the battles of life against evil, who approve and admire my work and intelligence consecrated to you, are unchallengeable. The wiles and tactics of the wicked would be dull and ineffective before the brave dedicated to you, O light and leader of the world.
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