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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पा॒हि नो॑ अग्ने र॒क्षसो॒ अजु॑ष्टात्पा॒हि धू॒र्तेरर॑रुषो अघा॒योः। त्वा यु॒जा पृ॑तना॒यूँर॒भि ष्या॑म् ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒हि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । र॒क्षसः॑ । अजु॑ष्टात् । पा॒हि । धू॒र्तेः । अर॑रुषः । अ॒घ॒ऽयोः । त्वा । यु॒जा । पृ॒त॒ना॒ऽयून् । अ॒भि । स्या॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाहि नो अग्ने रक्षसो अजुष्टात्पाहि धूर्तेरररुषो अघायोः। त्वा युजा पृतनायूँरभि ष्याम् ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पाहि। नः। अग्ने। रक्षसः। अजुष्टात्। पाहि। धूर्तेः। अररुषः। अघऽयोः। त्वा। युजा। पृतनाऽयून्। अभि। स्याम् ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केन कस्मात् के रक्षणीया इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वं नो रक्षसः पाहि नोऽजुष्टाद्धूर्तेरररुषोऽघायोः पाहि त्वा युजा वर्त्तमानोऽहं पृतनायूनभि ष्याम् ॥१३॥

    पदार्थः

    (पाहि) (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्युदिव वर्त्तमान राजन्नुपदेशक वा (रक्षसः) दुष्टाचाराज्जनात् (अजुष्टात्) धर्म्ममसेवमानात् (पाहि) (धूर्तेः) धूर्त्तात् (अररुषः) भृशं हिंसकात् (अघायोः) आत्मनोऽघमिच्छतः (त्वा) त्वया। विभक्तिव्यत्ययः (युजा) युक्तेन (पृतनायून्) सेनां कामयमानान् (अभि) आभिमुख्ये (स्याम्) भवेयम् ॥१३॥

    भावार्थः

    स एव राजाऽध्यापक उपदेशकः कर्मकर्ता वा श्रेष्ठो भवति यः स्वयं धार्मिको भूत्वाऽन्यानपि धार्मिकान् कुर्यात् ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    किस करके किससे किसकी रक्षा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्युत् अग्नि के तुल्य वर्त्तमान राजन् या उपदेशक ! आप (नः) हमको (रक्षसः) दुष्टाचारी मनुष्यों से (पाहि) बचाइये। हमारी (अजुष्टात्) धर्म का सेवन न करते हुए अधर्मी (धूर्तेः) धूर्त (अररुषः) शीघ्र मारनेवाले (अघायोः) आत्मा को पाप की इच्छा करते हुए से (पाहि) रक्षा कीजिये (युजा) युक्त हुए (त्वा) तुम्हारे साथ वर्त्तमान मैं (पृतनायून्) सेनाओं को चाहते हुओं के (अभि, ष्याम्) सम्मुख होऊँ ॥१३॥

    भावार्थ

    वही राजा अध्यापक उपदेशक वा कर्म करनेहारा श्रेष्ठ होता है, जो आप धर्मात्मा होकर अन्यों को भी धार्मिक करे ॥१३॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) अग्रणीनायक, अग्निवत् तेजस्विन् ! विद्वन् ! आप ( अजुष्टात् ) धर्म का सेवन न करने वाले तथा अप्रीति युक्त, ( रक्षसः ) अतिक्रोधी, अतिहिंसक, ( आघायोः ) पापाचारी, पापमय जीवन व्यतीत करने वाले, सदा अन्यों पर पाप, छल हत्यादि का प्रयोग करने वाले दुर्जन से भी ( नः पाहि ) हमारी रक्षा करो। मैं ( त्वा युजा ) तुझ सहायक से ( पृत्नायून ) सेना वा संग्राम के इच्छुक शत्रुओं को भी ( अभि स्याम् ) पराजित करने में समर्थ होऊ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    उत्तम संग

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! आप (अजुष्टात्) = जो कभी भी प्रीतिपूर्वक प्रभु के उपासन में नहीं प्रवृत्त होता उस (रक्षसः) = राक्षसीभाव से (नः पाहि) = हमारा रक्षण करिये। (धूर्ते:) = हिंसक, (अररुषः) = अदाता, (अघायोः) = पाप की कामनावाले पुरुष से भी (पाहि) = हमें बचाइये । हम ऐसे पुरुषों के संग में न पड़े रह जायें। [२] हे प्रभो ! मैं (त्वा युजा) = आप साथी से, आपको मित्र रूप में पाकर (पृतनायून्) = हमारे पर आक्रमण करनेवाले (शत्रु) = सैन्यों को, आसुरभावों को (अभिष्याम्) = अभिभूत करनेवाला बनूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ-राक्षसीभावों से हम दूर हों। हमारा संग हिंसक अदाता पापेच्छु पुरुषों के साथ न हो । प्रभु को साथी बनाकर आक्रमण करनेवाले शत्रु- सैन्यों को हम पराभूत करनेवाले हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो स्वतः धर्मात्मा बनून इतरांनाही धार्मिक बनवितो तोच राजा, अध्यापक, उपदेशक किंवा कर्मकर्ता श्रेष्ठ असतो. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of all power and inexhaustible energy, save us from monsters void of love, loyalty and friendship. Protect us against the wicked, violent and sinful. With you as friend, ally and protector, let me face and overthrow even whole armies of adversaries.

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