ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
आ यस्ते॑ अग्न इध॒ते अनी॑कं॒ वसि॑ष्ठ॒ शुक्र॒ दीदि॑वः॒ पाव॑क। उ॒तो न॑ ए॒भिः स्त॒वथै॑रि॒ह स्याः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठआ । यः । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । इ॒ध॒ते । अनी॑कम् । वसि॑ष्ठ । शुक्र॑ । दीदि॑ऽवः । पाव॑क । उ॒तो इति॑ । नः॒ । ए॒भिः । स्त॒वथैः॑ । इ॒ह । स्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यस्ते अग्न इधते अनीकं वसिष्ठ शुक्र दीदिवः पावक। उतो न एभिः स्तवथैरिह स्याः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठआ। यः। ते। अग्ने। इधते। अनीकम्। वसिष्ठ। शुक्र। दीदिऽवः। पावक। उतो इति। नः। एभिः। स्तवथैः। इह। स्याः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः केन तेजस्विनी सेना कार्येत्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने वह्निरिव वर्त्तमान वसिष्ठ शुक्र दीदिवः पावक राजन् यस्य ते तवाऽनीकं योऽग्निरा इधते तस्यैभिः स्तवथैरिह नो रक्षकः स्या उतो अपि वयं तदग्निबलेनैव ते रक्षकाः स्याम ॥८॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यः) (ते) तव (अग्ने) पावक इव (इधते) प्रदीपयति (अनीकम्) सैन्यम् (वसिष्ठ) अतिशयेन वसो (शुक्र) आशुकारिन् वीर्यवन् (दीदिवः) विजयं कामयमान (पावक) पवित्र (उतो) (नः) अस्माकम् (एभिः) (स्तवथैः) (इह) अस्मिन् राज्ये (स्याः) भवेः ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजपुरुषा अग्निविद्ययाऽऽग्नेयास्त्रादीनि निर्माय स्वसैन्यं सुप्रकाशितं कृत्वा न्यायेन प्रजापालकास्स्युस्ते दीर्घसमयं राज्यं महैश्वर्य्या जायन्ते ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को किससे सेना तेजस्विनी करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान (वसिष्ठ) अतिशय कर वसने और (शुक्र) शीघ्रता करनेवाले पराक्रमी (दीदिवः) विजय की कामना करते हुए (पावक) पवित्र राजन् ! जिस (ते) आपकी (अनीकम्) सेना को (यः) जो अग्नि (आ, इधते) प्रदीप्त प्रकाशित कराता है, उस अग्नि की (एभिः) इन (स्तवथैः) स्तुतियों से (इह) इस राज्य में (नः) हमारे रक्षक (स्याः) हूजिये (उतो) और भी हम लोग उस अग्नि के बल से ही आपके रक्षक होवें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजपुरुष अग्निविद्या से आग्नेयास्त्रादि को बना के अपनी सेना को अच्छे प्रकार प्रकाशित करके न्याय से प्रजा के पालक हों, वे दीर्घ समय तक राज्य को पाके महान् ऐश्वर्यवाले होते हैं ॥८॥
विषय
सेना, दण्ड को तीक्ष्ण करे।
भावार्थ
जिस प्रकार अग्नि वा विद्युत् अपने चमकाने वाले पुरुष को ही प्राप्त होता है उसको उत्तम प्रकाश आदि कार्य भी देता है उसी प्रकार हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! हे ( वसिष्ठ ) बसने वालों में सबसे श्रेष्ठ ! हे ( शुक्र ) कान्तिमन् शुक्र ! हे ( दीदिवः ) तेजस्विन् ! हे (पावक ) अग्निवत् पंक्तिपावन ! अन्यों के दोषों के शोधक ! ( यः ) जो ( ते ) तेरे ( अनीकं ) तेजोवत् सैन्य बल को ( आ इधते ) अति दीप्त करता है, उसे उत्तेजित वा बलवान् बनाता है उस प्रजावर्ग ( उत ) और ( नः ) उनके समान हमें भी ( एभिः स्तवथैः ) इन स्तुति योग्य वचनों, कर्मोंसहित (इह स्याः ) यहां प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
'वसिष्ठ-शुक्र-दीदिवः पावक'
पदार्थ
[१] हे (वसिष्ठ) = अतिशयेन (वसुमत्तम) = सब वसुओं से सम्पन्न ! शुक्र अत्यन्त पवित्र ! (दीदिवः) = दीप्त ! (पावक) = पवित्र करनेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यः ते) = जो आपका बनता है वह (अनीकम्) = बल व तेज को (आ इधते) = सर्वथा दीप्त करता है। वस्तुतः वह आपके तेज से तेजस्वी बनता है। [२] (उत) = और (उ) = निश्चय से (नः) = हमारे से किये जानेवाले (एभिः) = इन (स्तवथैः) = स्तोत्रों के द्वारा (इह स्याः) = यहाँ हमारे जीवन में आप होइये। जितना-जितना हम अपने जीवन में आपका धारण कर सकेंगे उतना उतना ही आपके तेज से तेजस्वी बनेंगे। तभी हम (वसुमान्) = पवित्र व दीप्त बनेंगे, औरों को पवित्र करनेवाले होंगे। सो हमारी तो यही कामना है कि आपका स्तवन करते हुए आपको अपने में धारण करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासक प्रभु के तेज से तेजस्वी होता है। वसुमान् पवित्र दीप्त बनकर पवित्र करनेवाला होता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजपुरुष अग्निविद्येने आग्नेयास्त्र इत्यादी निर्माण करून आपल्या सेनेला चांगल्या प्रकारे प्रशिक्षित करून प्रसिद्धीला आणतात व न्यायाने प्रजेचे पालन करतात ते दीर्घकाळ राज्य करून महान ऐश्वर्यवान होतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine fire of life, Agni, destroyer, purifier and recreator, haven and home of the living world and blazing ruler, let your power and forces which shine all round shine on and illuminate our life, and, with all these our songs of praise and prayer, stay with us as protector and promoter and strengthen us for our self defence and protection.
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