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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वम॑ग्ने सु॒हवो॑ र॒ण्वसं॑दृक्सुदी॒ती सू॑नो सहसो दिदीहि। मा त्वे सचा॒ तन॑ये॒ नित्य॒ आ ध॒ङ्मा वी॒रो अ॒स्मन्नर्यो॒ वि दा॑सीत् ॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽहवः॑ । र॒ण्वऽस॑न्दृक् । सु॒ऽदी॒ती । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । दि॒दी॒हि॒ । मा । त्वे इति॑ । सचा॑ । तन॑ये । नित्ये॑ । आ । ध॒क् । मा । वी॒रः । अ॒स्मत् । नर्यः॑ । वि । दा॒सी॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने सुहवो रण्वसंदृक्सुदीती सूनो सहसो दिदीहि। मा त्वे सचा तनये नित्य आ धङ्मा वीरो अस्मन्नर्यो वि दासीत् ॥२१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। सुऽहवः। रण्वऽसन्दृक्। सुऽदीती। सूनो इति। सहसः। दिदीहि। मा। त्वे इति। सचा। तनये। नित्ये। आ। धक्। मा। वीरः। अस्मत्। नर्यः। वि। दासीत् ॥२१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 21
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वानत्र कथं वर्तेतेत्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहसः सूनोऽग्ने ! सुहवः रण्वसंदृग्यथा नर्यो वीरोऽस्मन्मा विदासीन्नित्ये त्वे तनये सचा मा धक् तथा त्वं सुदीती अस्मान् दिदीहि ॥२१॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अग्ने) पावक इव विद्यया प्रकाशमान विद्वन् (सुहवः) सुस्तुतिः (रण्वसंदृक्) रमणीयं यः सम्यक् पश्यति सः (सुदीती) उत्तमया दीप्त्या (सूनो) तनय (सहसः) बलवतः (दिदीहि) प्रकाशय (मा) (त्वे) त्वयि (सचा) सम्बन्धेन (तनये) सन्ताने (नित्ये) सदा कर्त्तव्ये कर्मणि (आ) (धक्) दहेः (मा) (वीरः) (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (नर्यः) नृषु साधुः (वि) (दासीत्) विगतदानो भवेत् ॥२१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वान् ! यथाऽस्माकं बन्धवोऽस्मद्विरोधिनो न भवन्ति यथा मातरि तनयस्तनये माता प्रेम्णा सह वर्त्तते तथैव भवानस्माभिः सह वर्त्तताम् ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् इस जगत् में कैसे वर्ते, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहसः) बलवान् के (सूनो) पुत्र (अग्ने) अग्नि के तुल्य विद्या से प्रकाशमान विद्वन् ! (सुहवः) सुन्दर स्तुतियुक्त (रण्वसंदृक्) रमणीय सम्यक् देखनेवाला जैसे (नर्यः) मनुष्यों में उत्तम (वीरः) वीर (अस्मत्) हम से (मा) मत (वि, दासीत्) दान से रहित हो वा (नित्ये) सब काल में करने योग्य कर्म में (त्वे) आप (तनये) सन्तान में (सचा) सम्बन्ध से (मा, आ, धक्) अच्छे प्रकार मत जलाइये, वैसे (त्वम्) आप (सुदीती) उत्तम दीप्ति से हमको (दिदीहि) प्रकाशित कीजिये ॥२१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जैसे हमारे बन्धु लोग हमारे विरोधी नहीं होते, जैसे माता में पुत्र, पुत्र के विषय में माता प्रेम के साथ वर्त्तती है, वैसे ही आप भी हमारे साथ वर्तिये ॥२१॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( सहसः सूनुः अग्निः रण्वसंदृक् सुदीती दीप्यते ) बलपूर्वक उत्पन्न किया अग्नि, विद्युत् उत्तम कान्ति से चमकता और रम्य रूप से दीखता और रम्य पदार्थों को दिखाता है । वह ( मा अधङ् ) इमें भस्म न करे और ( मा वि दासीत् ) किसी प्रकार पीड़ा न पहुंचावे उसी प्रकार हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी पुरुष ! ( त्वं ) तू (सु-हव:) उत्तम दानशील, और उत्तम गुणों और पदार्थों का ग्रहण और भोजन करने हारा वा शुभ नामा तथा ( रण्व-संदृक् ) रमणीय, रूप से दीखने और उत्तम सुखजनक उपायों वा रम्य आत्मतत्व को ठीक प्रकार से सम्यक्-दृष्टि से देखने हारा हो। हे ( सहसः सूनो ) बलवान् वीर्यवान् पुरुष के पुत्र ! एवं उत्तम बल सैन्यादि के संचालक ! तू ( सुदीती ) उत्तम दीप्ति से ( दिदीहि ) चमक और सबको प्रिय लग । (सचा ) सम्बन्ध से (त्वे तनये ) तेरे सदृश पुत्र रहने पर तू अपने पितृजनों को ( मा आ धङ् ) दग्ध न कर, अपने दुराचरणों और कुलक्षणों से माता पिता को न सता । इसी प्रकार ( वीरः नर्यः ) हमारा पुत्र वीर और मनुष्यों का हितकारी होकर ( मा वि दासीत् ) विनष्ट न हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'उत्तम सुशील योग्य व दीर्घायु' सन्तान

    पदार्थ

    हे (सहसः सूनो:) = बल के पुत्र, अत्यन्त बलवन् (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (सुहवः) = लिये सुगमता से पुकारने योग्य होइये। (रण्वसन्दृक्) = रमणीय सन्दर्शनवाले आप (सुदीती) = उत्तम दीप्ति से (दिदीहि) = दीप्त होइये। हम अपने हृदयों में सदा आपके प्रकाश को देखें। [२] (सचा) = सहायभूत - हमें दग्ध हुए-हुए (त्वे) = आप [त्वम् सा०] (नित्ये तनये) = औरस पुत्र के विषय में (मा आधक्) हमें दग्ध न करिये। न तो हम औरस सन्तान के अभाव के कारण दग्ध हों और न ही उसके विकृत आचरण के कारण परेशान हों। हमारे औरस सन्तान 'सुशील, सदाचारी व योग्य' हों। तथा (अस्मत्) = हमारे से (नर्यः) = नरहितकारी (वीरः) = यह वीर सन्तान (मा विदासीत्) = मत उपक्षीण हो जाये। यह अल्पायु होकर हमारे से छिन न जाये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखें। हमारे औरस पुत्र अपने आचरण से हमें सुखी करें तथा ये दीर्घायु हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसे आपले बंधू आपल्याविरुद्ध नसतात, माता व पुत्र एकमेकांशी प्रेमाने वागतात तसे तुम्हीही आमच्याबरोबर वागा. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light, invoked with love and eagerly responsive, blissful of form and bright of flame, born of omnipotence, you shine and illuminate. Let not the devotee, always dedicated to you in holy work for the child’s sake, be consumed by the fire of evil. Let the noble and brave son never be indifferent and callous toward us.

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