ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 23
स मर्तो॑ अग्ने स्वनीक रे॒वानम॑र्त्ये॒ य आ॑जु॒होति॑ ह॒व्यम्। स दे॒वता॑ वसु॒वनिं॑ दधाति॒ यं सू॒रिर॒र्थी पृ॒च्छमा॑न॒ एति॑ ॥२३॥
स्वर सहित पद पाठसः । मर्तः॑ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽअ॒नी॒क॒ । रे॒वान् । अम॑र्त्ये । यः । आ॒ऽजु॒होति॑ । ह॒व्यम् । सः । दे॒वता॑ । व॒सु॒ऽवनि॑म् । द॒धा॒ति॒ । यम् । सू॒रिः । अ॒र्थी । पृ॒च्छमा॑नः । एति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स मर्तो अग्ने स्वनीक रेवानमर्त्ये य आजुहोति हव्यम्। स देवता वसुवनिं दधाति यं सूरिरर्थी पृच्छमान एति ॥२३॥
स्वर रहित पद पाठसः। मर्तः। अग्ने। सुऽअनीक। रेवान्। अमर्त्ये। यः। आऽजुहोति। हव्यम्। सः। देवता। वसुऽवनिम्। दधाति। यम्। सूरिः। अर्थी। पृच्छमानः। एति ॥२३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 23
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कः सेवनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे स्वनीकाग्ने ! यो रेवान् सन्नमर्त्ये हव्यमाजुहोति स देवता वसुवनिं दधाति यमर्थी पृच्छमानः सूरिरेति स मर्तः सुखयति ॥२३॥
पदार्थः
(सः) (मर्त्तः) मनुष्यः (अग्नेः) विद्याविनयादिभिः प्रकाशमान (स्वनीक) शोभनमनीकं सैन्यं यस्य तत्सम्बुद्धौ (रेवान्) बहुधनवान् (अमर्त्ये) मरणधर्मरहिते वह्नौ परमात्मनि वा (यः) (आजुहोति) समन्तात्प्रक्षिपति स्थिरीकरोति (हव्यम्) होतुं दातुमर्हं घृतादिद्रव्यं चित्तं वा (सः) (देवता) दिव्यगुणा (वसुवनिम्) धनानां सम्भाजनम् (दधाति) (यम्) (सूरिः) विद्वान् (अर्थी) प्रशस्तोऽर्थोऽस्याऽस्तीति (पृच्छमानः) (एति) प्राप्नोति ॥२३॥
भावार्थः
ये मनुष्या अग्निविद्यां विदित्वाऽस्मिन् सुगन्ध्यादिकं जुह्वत्यनेन कार्याणि साध्नुवन्ति ये च पृष्ट्वा ध्यात्वा परमात्मानं जानन्ति तानग्निर्धनाढ्यान् परमात्माविज्ञानवतश्च करोति ॥२३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किसका सेवन करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (स्वनीक) सुन्दर सेनावाले (अग्ने) विद्या और विनयादि से प्रकाशमान जन ! (यः) जो (रेवान्) बहुत धनवाला होता हुआ (अमर्त्ये) मरणधर्मरहित अग्नि वा परमात्मा में (हव्यम्) देने योग्य घृतादि द्रव्य वा चित्त को (आजुहोति) अच्छे प्रकार छोड़ता वा स्थिर करता है (सः, देवता) दिव्यगुणयुक्त वह (वसुवनिम्) धनों के सेवन को (दधाति) धारण करता है (यम्) जिसको (अर्थी) प्रशस्त प्रयोजनवाला (पृच्छमानः) पूछता हुआ (सूरिः) विद्वान् (एति) प्राप्त होता है (सः) वह (मर्तः) मनुष्य सुखी करता है ॥२३॥
भावार्थ
जो मनुष्य अग्निविद्या को जान के इस अग्नि में सुगन्ध्यादि का होम करते और इससे कार्यों को सिद्ध करते हैं और जो पूछ अच्छे प्रकार विचार और ध्यान कर के परमात्मा को जानते हैं, उनको अग्नि, धनाढ्य और परमात्मा विज्ञानवान् करता है ॥२३॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य।
भावार्थ
( यः ) जो पुरुष ( अमर्त्ये ) न मरने वाले, अविनाशी आत्मा वा परमेश्वर में ( हव्यम् ) अग्नि में हव्य के समान देने योग्य चित्त की ( आ जुहोति ) आहुति देता है हे ( स्वनीक अग्ने ) उत्तम बलशालिन् ! स्वप्रकाश अग्ने ! (सः मर्त्त:) वह मनुष्य (रेवान् ) रयि अर्थात् भौतिक देहांश का उत्तम स्वामी होकर रहता है । ( यं ) जिस परमेश्वर को ( सूरिः ) विद्वान् ज्ञानी और ( अर्थी) अभ्यर्थना करने वाला, अर्थार्थी, वा ज्ञानार्थी कामनायुक्त पुरुष ( पृच्छमानः ) विद्वानों से ब्रह्म विषयक शक्तियों, ऐश्वर्यो और ज्ञानों का देने हारा पुरुष (वसु-वनिं) उत्तम ऐश्वर्य, समस्त जीवगणों को ( दधाति ) न्यायानुसार प्रदान करता है। उसी प्रकार हे ( स्वनीक अग्ने ) उत्तम सैन्य के स्वामिन् ! राजन् ! जो तुझे विशेष जानकर कर आदि देता है वह राष्ट्रवासी जन धनसम्पन्न हो जाता है।, (सः) और वह अर्थी, धनार्थी और न्यायार्थी उसके पास धर्म वा व्यवहार विषयक प्रश्न करता हुआ आता है, वह देवस्वरूप राजा उसके जो धनादि का न्यायपूर्वक विभाग करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञशीलता व ऐश्वर्यशालिता
पदार्थ
[१] हे (स्वनीक) = उत्तम तेजवाले (अग्ने) = यज्ञाग्ने ! (स मर्तः) = वह मनुष्य (रेवान्) = ऐश्वर्यशाली होता है, (यः) = जो (अमर्त्ये) = कभी नष्ट न होनेवाले, प्रतिदिन प्रज्वलित होनेवाले तुझमें (हव्यं आजुहोति) = हव्य पदार्थों की आहुति देता है। यज्ञशीलता ऐश्वर्यशालिता का कारण बनती है। [२] (सः) = वह (देवता) = सब कुछ देनेवाला अग्नि (वसुवनिं दधाति) = धन का संविभाग करनेवाले यज्ञशील पुरुष को धारण करता है। वह अग्नि उसका धारण करता है, (यम्) = जिसको कि (सूरि:) = ज्ञानी (अर्थी) = चाहनेवाला पुरुष (पृच्छमानः) = जानने की कामनावाला होता हुआ, पूछता हुआ (एति) = प्राप्त होता है। ज्ञानी जिज्ञासु यज्ञाग्नि के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की कामनावाला होता है। यह यज्ञाग्नि ही तो सब ऐश्वर्य वृद्धि का कारण बनती है।
भावार्थ
भावार्थ- जो नित्य प्रति यज्ञ करता है, वह ऐश्वर्यशाली बनता है। यह यज्ञाग्नि दानशील पुरुष का धारण करती है। समझदार जिज्ञासु यज्ञाग्नि के विषय में अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे अग्निविद्या जाणून या अग्नीत सुगंध इत्यादीचा होम करतात व कार्य सिद्ध करतात, विद्वानांना विचारून तसेच ध्यान करून परमेश्वराला जाणतात त्यांना अग्नी धनवान व परमेश्वर विज्ञानवान करतो. ॥ २३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and life, noble of flames and potent of forces, blest is that mortal with wealth of life who offers holy libations to the immortal fire of yajna. The immortal lord bears immense wealth and honour of life to gift the man of enlightenment who calls upon the lord in a mood of prayer and supplication.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal