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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दा नो॑ अग्ने धि॒या र॒यिं सु॒वीरं॑ स्वप॒त्यं स॑हस्य प्रश॒स्तम्। न यं यावा॒ तर॑ति यातु॒मावा॑न् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दाः । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । धि॒या । र॒यिम् । सु॒ऽवीर॑म् । सु॒ऽअ॒प॒त्यम् । स॒ह॒स्य॒ । प्र॒ऽश॒स्तम् । न । यम् । यावा॑ । तर॑ति । या॒तु॒ऽमावा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दा नो अग्ने धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम्। न यं यावा तरति यातुमावान् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दाः। नः। अग्ने। धिया। रयिम्। सुऽवीरम्। सुऽअपत्यम्। सहस्य। प्रऽशस्तम्। न। यम्। यावा। तरति। यातुऽमावान् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सोऽग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहस्याग्ने ! धिया यथाऽग्निर्धिया क्रियया सुवीरं स्वपत्यं प्रशस्तं रयिं नोऽस्मभ्यं ददाति। यं यातुमावान् यावा न तरति तद्विद्याधियाऽस्मभ्यं त्वं दाः ॥५॥

    पदार्थः

    (दाः) देहि (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) अग्निरिव विद्वन् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (रयिम्) धनम् (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तम् (स्वपत्यम्) शोभनान्यपत्यानि सन्ताना यस्मात्तम् (सहस्य) सहसि बले साधो (प्रशस्तम्) उत्तमम् (न) निषेधे (यम्) (यावा) यो याति (तरति) उल्लङ्घयति (यातुमावान्) गच्छन्मत्सदृशः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथाग्निविद्यया सुसन्ताना उत्तमशूरवीराः श्रेष्ठं धनं महान् यानवेगश्च प्रजायते तां सुविचारेण विविधक्रियया जनयत ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहस्य) बल में श्रेष्ठ (अग्नि) अग्नि के तुल्य तेजस्वी विद्वन् ! (धिया) बुद्धि वा कर्म से जैसे अग्नि क्रिया से (सुवीरम्) सुन्दर वीर जन (स्वपत्यम्) सुन्दर सन्तान जिससे हों उस (प्रशस्तम्) उत्तम (रयिम्) धन को (नः) हमारे लिये देता है (यम्) जिसकी (यातुमावान्) मेरे तुल्य चलता हुआ (यावा) गमनशील (न) नहीं (तरति) उल्लङ्घन करता, उस प्रकार की विद्या हमारे लिये बुद्धि से आप (दाः) दीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जिसे अग्नि-विद्या से सुन्दर सन्तान, उत्तम शूरवीर जन श्रेष्ठ धन और यानों का बड़ा वेग उत्पन्न हो, उस विद्या को उत्तम विचार और अनेक प्रकार की क्रियाओं से प्रकट करो ॥५॥

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    विषय

    यन्त्ररथवत् सर्वाग्रणी।

    भावार्थ

    अग्नि जिस प्रकार ( धिया ) कर्म द्वारा ( प्रशस्तं ) उत्तम ( सु-वीरं ) सुख से बहुतों को सञ्चालित करने में समर्थ ( स्व-पत्यं ) अपना ऐसा वेगयुक्त ( रयिं ) बल उत्पन्न करता है ( यं यावा ) पैरों से जाने वाला वा (यातुमावान् ) यानसाधनों अश्वादि का स्वामी भी पार नहीं करता अर्थात् विद्युत् से उत्पन्न यन्त्रवेग का पैदल वा सवारी भी मुकाबला नहीं कर सकती, इसी प्रकार हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! तू (धिया) उत्तम बुद्धि और कर्मकौशल से ( नः ) हमें (सुवीरं ) उत्तम वीरों से समृद्ध (स्वपत्यं = सु-अपत्यं) उत्तम सन्तान से युक्त (प्रशस्तं रयिम् ) प्रशंसनीय ऐश्वर्य ( दाः ) प्रदान कर ( यं ) जिसका ( यावा ) आक्रमणकारी और ( यातुमा वान् ) प्रयाण या पीड़ा देने में मेरे समान बल-सामर्थ्य वाला अन्य पुरुष वा सामान्य जन ( न तरति ) पार न कर सके, वैसा ऐश्वर्य न पा सके, उसकी तुलना भी न कर सके । इति त्रियोविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रशस्त धन की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार यज्ञाग्नि के समीप बैठे हुए परिवार के लोग यज्ञ की समाप्ति पर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे (अग्ने) = हमें आगे ले चलनेवाले प्रभो ! (न:) = हमें (धिया) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के द्वारा (रयिं दा:) = धन को दीजिये। हे (सहस्य) = हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का अभिभव करनेवाले प्रभो ! उस धन को दीजिये जो सुवीरम् उत्तम वीर जनों को जन्म देता है, अर्थात् हम सबको वीर बनाता है। (स्वपत्यम्) = उत्तम सन्तानवाला है तथा (प्रशस्तम्) = प्रशंसनीय है, अर्थात् प्रशस्त साधनों से ही जिसका अर्जन हुआ है। [२] हमारे लिये उस धन को दीजिये (यम्) = जिसको (यातुमावान्) = हिंसा की भावना से युक्त (यावा) = आक्रान्ता शत्रु (न तरति) = बाधित नहीं कर पाता।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हम यज्ञशील पुरुषों को वह धन दें जो हमें वीर बनाये, उत्तम सन्तानवाला करे, प्रशस्त जीवनवाला बनाये और चोर आदि से चुराया न जाये।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! ज्या अग्निविद्येने सुंदर सन्तान, उत्तम शूर वीर, श्रेष्ठ लोक व वेगवान याने उत्पन्न होतात त्या विद्येला उत्तम विचार व विविध क्रियांद्वारे प्रकट करा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O mighty fire and light of divinity, with luminous intelligence and noble action give us that honour and excellence of life and that brave, admirable and seasoned progeny worthy of us which no force would be able to violate or overcome.

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