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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मो अ॑ग्ने वी॒तत॑मानि ह॒व्याज॑स्रो वक्षि दे॒वता॑ति॒मच्छ॑। प्रति॑ न ईं सुर॒भीणि॑ व्यन्तु ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मो इति॑ । अ॒ग्ने॒ । वी॒तऽत॑मानि । ह॒व्या । अज॑स्रः । व॒क्षि॒ । दे॒वऽता॑तिम् । इच्छ॑ । प्रति॑ । नः॒ । ई॒म् । सु॒र॒भीणि॑ । व्य॒न्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमो अग्ने वीततमानि हव्याजस्रो वक्षि देवतातिमच्छ। प्रति न ईं सुरभीणि व्यन्तु ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमो इति। अग्ने। वीतऽतमानि। हव्या। अजस्रः। वक्षि। देवऽतातिम्। इच्छ। प्रति। नः। ईम्। सुरभीणि। व्यन्तु ॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं प्राप्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! येनाऽजस्नो देवतातिमच्छ वक्ष्यनेन न इमो सुरभीणि वीततमानि हव्या च नः प्रति ईं व्यन्तु ॥१८॥

    पदार्थः

    (इमो) इमानि। अत्र विभक्तेरोकारादेशः। (अग्ने) (वीततमानि) अतिशयेन व्याप्तुं समर्थानि (हव्या) दातुं योग्यानि (अजस्रः) निरन्तरः (वक्षि) वहसि (देवतातिम्) दिव्यसुखप्रापकं यज्ञम् (अच्छ) सम्यक् (प्रति) (नः) (ईम्) (सुरभीणि) सुगन्ध्यादिगुणसहितानि (व्यन्तु) प्राप्तुवन्तु ॥१८॥

    भावार्थः

    मनुष्या यथाग्ना उत्तमानि हवींषि हत्वा जलादीनि संशोध्य सर्वोपकारं साध्नुवन्ति तथैव वर्त्तताम् ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् विद्वन् ! जिससे (अजस्रः) निरन्तर (देवतातिम्) उत्तम सुख देनेवाले यज्ञ को (अच्छ) अच्छे प्रकार (वक्षि) प्राप्त करते हैं इससे (इमो) इन (सुरभीणि) सुगन्धि आदि गुणों के सहित (वीततमानि) अतिशयकर व्याप्त होने को समर्थ (हव्या) देने योग्य वस्तुओं को (नः) हमारे (प्रति) प्रति (ईम्) सब ओर से (व्यन्तु) प्राप्त करें ॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्य जैसे अग्नि में उत्तम हविष्यों का होम कर जल आदि को शुद्ध करके सब के उपकार को सिद्ध करते हैं, वैसे वर्त्ताव करना चाहिये ॥१८॥

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    विषय

    उससे अग्निहोत्रवत् व्यवहार।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! प्रतापयुक्त ! विद्वन, ज्ञानवन् ! जिस प्रकार अग्नि ( देवतातिम् हव्या वहति ) यज्ञ को प्राप्त कर उसमें हव्य चरु आदि ग्रहण करता है उसी प्रकार तू भी ( इमा ) ये (वीत-तमानि ) उक्त कामना योग्य ( हव्या ) अन्नादि ग्राह्य पदार्थों को ( वक्षि ) धारण कर और ( वीत-तमानि हव्या ) खूब ज्ञानप्रकाशक, कामना योग्य, सुन्दर, ग्राह्य ज्ञानों का ( वक्षि ) धारण कर, दूसरों तक पहुंचा और उपदेश कर । तू ( अजस्रः ) अहिंसित, अपीड़ित होकर ( देवतातिम् अच्छ ) शुभ गुणों को प्राप्त कर और (नः ) हमें (सुरभीणि) उत्तम शक्तिप्रद अन्न (ईम्) सब प्रकार से (प्रति व्यन्तु) प्रति दिन प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    नित्य यज्ञ द्वारा सुरभि पदार्थों का सब देवों में पहुँचना

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = यज्ञ की अग्नि! तू (अजस्रः) = अनवरत हुआ हुआ, कभी न बुझता हुआ, (उ) = निश्चय से (इमा) = इन (वीततमानि) = अतिशयेन कान्त [सुन्दर] (हव्यानि) = हव्य पदार्थों को (देवतातिम् अच्छ) = देवसमूह के प्रति (वक्षि) = ले जा। इन हव्य पदार्थों को तू वायु आदि देवों में पहुँचानेवाला हो । 'अग्नौ प्रास्ता दुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते' अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य तक पहुँचती है। अग्नि से सूक्ष्मकणों में विभक्त हुए-हुए ये हव्य पदार्थ सर्वत्र आकाश में फैल जाते हैं और सारे वायुमण्डल का शोधन करते हैं। [२] (नः) = हमारे इन (सुरभीणि) = सुगन्धित हव्य पदार्थों को (ईम्) = निश्चय से प्रति (व्यन्तु) = प्रति दिन ये सब देव चाहें, अर्थात् प्रतिदिन यज्ञ के द्वारा ये उन सब देवों में पहुँचें।

    भावार्थ

    भावार्थ-नियमित अग्निहोत्र के द्वारा सुगन्धित हव्य पदार्थ सूक्ष्म कणों में विभक्त होकर सारे वायुमण्डल में पहुँचते रहें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी अग्नीत उत्तम हवींची आहुती दिली जाते व जल शुद्ध करून सर्वांवर उपकार केला जातो तसे माणसांनी वागावे. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, life of life, universal power, carry well these cherished, holiest and most expansive oblations offered to you in honour of the divinities and, in consequence, let the sweets and fragrances of nature come to us from all sides.

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