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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उप॒ यमेति॑ युव॒तिः सु॒दक्षं॑ दो॒षा वस्तो॑र्ह॒विष्म॑ती घृ॒ताची॑। उप॒ स्वैन॑म॒रम॑तिर्वसू॒युः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । यम् । एति॑ । यु॒व॒तिः । सु॒ऽदक्ष॑म् । दो॒षा । वस्तोः॑ । ह॒विष्म॑ती । घृ॒ताची॑ । उप॑ । स्वा । ए॒न॒म् । अ॒रम॑तिः । व॒सु॒ऽयुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप यमेति युवतिः सुदक्षं दोषा वस्तोर्हविष्मती घृताची। उप स्वैनमरमतिर्वसूयुः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। यम्। एति। युवतिः। सुऽदक्षम्। दोषा। वस्तोः। हविष्मती। घृताची। उप। स्वा। एनम्। अरमतिः। वसुऽयुः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरग्निविद्या किंवत्किं जनयतीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यथा युवतिर्दोषावस्तोः सुदक्षं यं पतिमुपैति यथा हविष्मती घृताची चन्द्रमुपैति यथाऽरमतिर्वसूयुः [स्वा]स्वभार्य्यैनं युवानं प्रियं पतिं प्राप्य सुखमुपैति तथाऽग्निविद्यां प्राप्य यूयं सततं मोदध्वम् ॥६॥

    पदार्थः

    (उप) (यम्) हृद्यं पतिम् (एति) प्राप्नोति (युवतिः) प्राप्तयौवना कन्या (सुदक्षम्) सुष्ठुबलयुक्तम् (दोषा) रात्रिः (वस्तोः) दिनम् (हविष्मती) बहूनि हवींषि ग्राह्यवस्तूनि विद्यन्ते यस्यां सा (घृताची) रात्रिः। घृताचीति रात्रिनाम। (निघं०१.७) (उप) (स्वा) स्वकीया (एनम्) विवाहितम् (अरमतिः) न विद्यते पूर्वा रमती रमणे गृहस्थक्रिया यस्याः सा (वसूयुः) या वसूनि द्रव्याणि कामयति सा ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽहर्निशमुद्यमेन विद्यया वह्निविद्यां जनयन्ति ते प्रियस्त्रीपुरुषवन्महान्तमानन्दं प्राप्नुवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर अग्नि-विद्या किसके तुल्य क्या उत्पन्न करती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे (युवतिः) युवावस्था को प्राप्त कन्या (दोषा, वस्तोः) रात्रि दिन (सुदक्षम्) अच्छे बलयुक्त (यम्) जिस पति को (उप, एति) समीप से प्राप्त होती है जैसे (हविष्मती) ग्रहण करने योग्य बहुत वस्तुओंवाली (घृताची) रात्री चन्द्रमा को (उप) प्राप्त होती है तथा जैसे (अरमतिः) जिस के गृहस्थ के तुल्य रमण किया नहीं वह (वसूयुः) द्रव्यों की कामना करनेवाली (स्वा) अपनी स्त्री (एनम्) इस विवाहित प्रियपति को प्राप्त होके सुख पाती है, वैसे अग्निविद्या को प्राप्त होके तुम लोग निरन्तर आनन्दित होओ ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो दिन रात उद्यम और विद्या के द्वारा अग्निविद्या को प्रकट करते हैं, वे परस्पर प्रीति रखनेवाले की पुरुषों के तुल्य बड़े आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥६॥

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    विषय

    वरवत् प्रधान नायक का वर्णन।

    भावार्थ

    ( हविष्मती घृताची दोषा वस्तोः सुदक्षं ) घृत, चरु आदि हविष्यान्न से युक्त, घृत से पूर्ण आहुति जिस प्रकार दिन रात्रि, सायं प्रातः उत्तम दाह करने वाले अग्नि को प्राप्त होती है और ( युवतिः दोषा वस्तोः ) युवति स्त्री जिस प्रकार दिन रात्रि काल में निवासार्थ उत्तम कुशल पुरुष के पास ( हविष्मती ) उत्तम अन्न का भोजन कर (घृताची ) घृत आदि स्त्रिग्ध पदार्थ अंग में लगाकर ( उप एति ) प्रिय पुरुष को प्राप्त होती है और जिस प्रकार ( वसू-युः ) वसु, २४ वर्ष के ब्रह्मचर्य के पालक युवा पुरुष को चाहने वाली ( अरमति ) पूर्व रति को न प्राप्त हुई, ब्रह्मचारिणी ( स्वा ) स्वयं ( उप एति) प्राप्त होती है उसी प्रकार ( यम् ) जिस (सु-दक्षं ) उत्तम कर्मकुशल, अग्नि के समान प्रतापी पुरुष को ( हविष्मती ) ग्राह्य अन्न ऐश्वर्यादि से युक्त (घृताची ) तेज, अन्नादि से पूर्ण भूमि या प्रजा ( उपएति ) प्राप्त होती है, (वसू-युः) अपने बसाने वाले प्रभु और नाना धनों की कामना करती हुई (अरमतिः) अन्य कहीं विश्राम सुख न पाकर ( स्वा ) उसकी निजी सम्पत्ति सी बन कर ( एनम् ) उसको ही ( उप एति ) प्राप्त होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रातः-सायं अग्निहोत्र

    पदार्थ

    [१] (यम्) = जिस (सुदक्षम्) उत्तम बल की कारणभूत अग्नि को (दोषा वस्तोः) = प्रातः सायं (हविष्मती) = प्रशस्त हविवाली (घृताची) = [घृतम् अञ्चति] घृत से युक्त (युवतिः) =अग्नि के साथ घृत को सम्पृक्त करनेवाली जुहू [चम्मच] (उप एति) = समीपता से प्राप्त होती है। (एनम्) = इस अग्नि को (स्वा) = अपनी (अरमति:) = दीप्ति उप [एति] प्राप्त होती है। जुहू से घृत को प्राप्त करके अग्नि चमक उठती है। [२] (वसूयुः) = ये अग्नि की दीप्ति यज्ञशील पुरुषों के लिये वसुओं की कामनावाली होती है, अर्थात् यज्ञशील पुरुष सब वसुओं को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-यज्ञाग्नि में प्रशस्त हवि व घृत का सम्पर्क होने पर यह यज्ञाग्नि होता के लिये वसुओं को प्राप्त करानेवाली होती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे रात्रंदिवस उद्योग करून विद्येद्वारे अग्निविद्या प्रकट करतात ते परस्पर प्रेम करणाऱ्या स्त्री-पुरुषांप्रमाणे अत्यंत आनंद प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The creative vitality of Agni is active and operative day and night: the youthful maiden approaches her versatile lover and stays with him in marriage for life, the yajna ladle overflowing with ghrta reaches the kindled fire of the vedi, the rich dark night looks up to the moon and terminates with the sun, the virgin nature, divine lord’s own consort, with the passion for creation, joins him for ever and creates the living world.

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