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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा शूने॑ अग्ने॒ नि ष॑दाम नृ॒णां माशेष॑सो॒ऽवीर॑ता॒ परि॑ त्वा। प्र॒जाव॑तीषु॒ दुर्या॑सु दुर्य ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । शूने॑ । अ॒ग्ने॒ । नि । स॒दा॒म॒ । नृ॒णाम् । मा । अ॒शेष॑सः । अ॒वीर॑ता । परि॑ । त्वा॒ । प्र॒जाऽव॑तीषु । दुर्या॑सु । दु॒र्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा शूने अग्ने नि षदाम नृणां माशेषसोऽवीरता परि त्वा। प्रजावतीषु दुर्यासु दुर्य ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। शूने। अग्ने। नि। सदाम। नृणाम्। मा। अशेषसः। अवीरता। परि। त्वा। प्रजाऽवतीषु। दुर्यासु। दुर्य ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेते राजादयः किं न कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! याऽवीरता तथा नृणां मध्ये मा निषदाम शूने सैन्येऽशेषसः त्वा मा परि नि षदाम। हे दुर्य ! यतः प्रजावतीषु दुर्यासु सुखेन नि षदाम तथा विधेहि ॥११॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (शूने) शूः सद्यः करणं विद्यते यस्मिँस्तस्मिन् सैन्ये। अत्र शू इति क्षिप्रनाम। (निघं०२.१५) तस्मात्पामादित्वान्मत्वर्थीयो नः प्रत्ययः। (अग्ने) पावक इव तेजस्विन् (नि) नितराम् (सदाम) सीदेम (नृणाम्) नायकानाम् (मा) (अशेषसः) निःशेषाः (अवीरता) वीरभावरहितता (परि) (त्वा) त्वाम् (प्रजावतीषु) प्रशस्तप्रजायुक्तासु (दुर्यासु) गृहेषु भवासु रीतिषु (दुर्य्य) गृहेषु वर्त्तमान ॥११॥

    भावार्थः

    हे क्षत्रियकुलोद्भवा राजपुरुषा यूयं कातरा मा भवत विरोधेन परस्परेण सहयुध्वा निःशेषा मा सन्तु सनातन्या राजनीत्या प्रजाः पालयित्वा यशस्विनो भवत ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर ये राजादि क्या न करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् ! जो (अवीरता) वीरों का अभाव है उससे (नृणाम्) नायकों में (मा, निषदाम) निरन्तर स्थित न हों (शूने) शीघ्रकारिणी सेना में (अशेषसः) सम्पूर्ण हम (त्वा) तेरे (मा)(परि) सब ओर से निरन्तर स्थित हों। हे (दुर्य्य) घरों में वर्त्तमान ! जिस कारण (प्रजावतीषु) प्रशस्त सन्तानों से युक्त (दुर्यासु) घरों में हुई रीतियों में सुखपूर्वक निरन्तर स्थित हों, वैसा कीजिये ॥११॥

    भावार्थ

    हे क्षत्रिय-कुल में हुए राजपुरुषो ! तुम कातर मत होओ। विरोध से परस्पर युद्ध करके निःशेष मत होओ। सनातन राजनीति से प्रजाओं का पालन कर कीर्त्तिवाले होओ ॥११॥

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    विषय

    प्रधान नायक का वरण

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्रणीनायक ! तेजस्विन् ! राजन् ! हे ( दुर्य ) गृहों के स्वामिन् ! हम ( अशेषसः ) विना पुत्र सन्तानादि के होकर (शूने ) सुखयुक्त, सम्पन्न, वा शून्य गृह में भी ( मा नि सदाम ) कभी न बैठें । और ( नृणां ) मनुष्यों के बीच में हम ( त्वा परि ) तेरे अधीन रहते हुए ( अवीरता ) वीरता से रहित होकर भी ( मा नि सदाम ) उच्च प्रतिष्ठा को प्राप्त न करें। और (प्रजावतीषु दुर्यासु) प्रजाओं से युक्त गृह में बसी स्त्रियों के बीच रहते हुए भी हम (अशेषसः अवीरता) (मा निषदाम ) पुत्रादि से रहित और वीर्य शौर्यादि से रहित होकर घरों में न बैठे रहें, प्रत्युत हम पुत्रवान्, वीर, और प्रजावान् हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः–१–१८ एकादशाक्षरपादैस्त्रिपदा विराड् गायत्री । १९—२५ त्रिष्टुप् ।। पंचविशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रजावतीषु दुर्यासु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वा) = आपको (परि) [चरन्त:] = उपासित करते हुए हम (नृणाम्) = अन्य मनुष्यों के घरों में ही (मा निषदाम) = मत बैठे रहें। दूसरों पर ही बोझ न बने रहें। (मा शूने) = शून्य घरों में, दरिद्रता से व्याप्त घरों में हमारा निवास न हो, और इन अपने भी सम्पन्न घरों में (अशेषसः) [शेष = पुत्र] = पुत्ररहित मान हों। अवीरता तथा (अवीरता) = से युक्त न हों। [२] हे (दुर्य) = हमारे घरों के रक्षक प्रभो! आपकी उपासना करते हुए हम (प्रजावतीषु दुर्यासु) = उत्तम सन्तानोंवाले घरों में निवास करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के उपासक बनें। औरों पर बोझ न बने रहें। अपने घरों में दरिद्रता से रहित होकर, उत्तम सन्तानोंवाले व वीरता से युक्त होकर निवास करें। ऋषिः- वसिष्ठः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे क्षत्रिय कुलोत्पन्न राजपुरुषांनो ! तुम्ही भयभीत होऊ नका, विरोधाने परस्पर युद्ध करून निःशेष होऊ नका, सनातन राजनीतीने प्रजेचे पालन करून कीर्ती मिळवा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light and fire, may we never sit idle in a state of depression or in a state of swollen pride. Among our men, let there be none without descendants. O lord sustainer of happy homes, let there be no trace of cowardice among the happy communities settled in happy homes wholly dedicated to you.

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