ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 10
वेत्य॑ध्व॒र्युः प॒थिभी॒ रजि॑ष्ठै॒: प्रति॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑ । अधा॑ नियुत्व उ॒भय॑स्य नः पिब॒ शुचिं॒ सोमं॒ गवा॑शिरम् ॥
स्वर सहित पद पाठवेति॑ । अ॒ध्व॒र्युः । प॒थिऽभिः॑ । रजि॑ष्ठैः । प्रति॑ । ह॒व्यानि॑ । वी॒तये॑ । अध॑ । नि॒यु॒त्वः॒ । उ॒भ्य॑स्य । नः॒ । पि॒ब॒ । शुचि॑म् । सोम॑म् । गोऽआ॑शिरम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वेत्यध्वर्युः पथिभी रजिष्ठै: प्रति हव्यानि वीतये । अधा नियुत्व उभयस्य नः पिब शुचिं सोमं गवाशिरम् ॥
स्वर रहित पद पाठवेति । अध्वर्युः । पथिऽभिः । रजिष्ठैः । प्रति । हव्यानि । वीतये । अध । नियुत्वः । उभ्यस्य । नः । पिब । शुचिम् । सोमम् । गोऽआशिरम् ॥ ८.१०१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The high priest of yajna unhurting life, moving with love, goes forward by the simplest and most truthful ways of holy working with yajnic materials to create the fragrances of life. Then you, master of yajnic creations, taste and enjoy the soma of our creations both in pure form and as seasoned and strengthened with practical applications for the good of life.
मराठी (1)
भावार्थ
कोणत्याही प्रकारे हानीपासून बचाव करण्यासाठी व्यक्तीला सरळ मार्गाने चाललेच पाहिजे; परंतु त्याबरोबरच त्याने विद्वानाच्या ज्ञानयुक्त शुद्ध प्रेरणेला अवश्य ग्रहण केले पाहिजे. ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वीतये) भोग्यों की प्राप्ति हेतु (अध्वर्युः) स्वयं हानिरहित बने रहने का इच्छुक पुरुष (रजिष्ठैः) अत्यन्त सरल (पथिभिः) मार्गों से (हव्यानि प्रति) दानादानयोग्य पदार्थों की ओर (वेति) चलता है (अधा) कि चाहे (नियुत्व) नितरां शुभगुणी शक्तियों से युक्त साधक! (नः) हमारे (उभयस्य) उभयविध (शुचिम्) शुद्ध एवं (गवाशिरः) ज्ञान के साथ परिपक्व हुए (सोमम्) प्रेरणा नाम के व्यवहार को भी (पिब) भोग कर॥१०॥
भावार्थ
स्वयं को किसी भी भाँति हानि से बचाकर चलने वाले को सरलतम मार्गों से तो चलना ही चाहिये। किन्तु साथ ही उसे विद्वानों की ज्ञानयुक्त शुद्ध प्रेरणा को भी अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये॥१०॥
विषय
विद्याभिलाषी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( नियुत्वः ) नियुक्त शिष्यों के स्वामिन् गुरो ! (अध्वर्यु:) अपने अविनाश या रक्षा की कामना करता हुआ शिष्य ( रजिष्ठैः ) अति तेजस्वी ( पथिभिः ) सन्मार्गों से ( हव्यानि ) ग्रहण करने योग्य ज्ञानों को ( वीतये ) प्राप्त करने के लिये ( प्रति वेति ) तुझे प्राप्त होता है। तू ( नः ) हम में से ( उभयस्य ) दोनों की ( पिब ) पालना कर। (शुचिं) शुद्ध, व्रतचारी और ( गवाशिरं सोमम् ) गौ, वाणी के ऊपर विद्याभ्यासी दोनों प्रकार के शिष्यों की पालना कर। ( २ ) इसी प्रकार ( अध्वर्युः ) अहिंसा व्रत का इच्छुक जन अन्नों को भोग करने के लिये उत्तम २ मार्गों से जीवन व्यतीत करे। वह शुद्ध अन्नादि, वनस्पति और ( गवाशिरम् ) गौ आदि के दुग्ध और भूमिस्थ कन्द आदि फल का भोग करे इस प्रकार के वनस्थ का धर्म पालन करे। इति सप्तमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अध्वर्यु का ऋजुतम मार्गों से गमन
पदार्थ
[१] (अध्वर्युः) = यज्ञशील पुरुष (रजिष्ठैः पथिभिः) = ऋजुतम, सरल, छलछिद्रशून्य मार्गों से (वेति) = जाता है [गच्छति ] । यह (हव्यानि) = हव्य पदार्थों के सात्त्विक भोजनों के ही (प्रति वीतये) = प्रतिदिन भक्षण के लिये होता है। सात्त्विक भोजन से सात्त्विक बुद्धिवाला होकर, यह कुटिलता से कभी कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता। [२] हे (नियुत्वः) = कर्त्तव्यों में लगे हुए प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले जीव ! (नः) = हमारे (उभयस्य) = अभ्युदय व निःश्रेयस के साधक अथवा ज्ञान व बल दोनों के साधक (सोमं पिब) = सोम का तू शरीर में ही रक्षण कर। यह सोम (शुचिम्) = जीवन को पवित्र बनानेवाला है। (गवाशिरम्) = [गो-शृ] ज्ञान की वाणियों द्वारा सब मलिनताओं का संहार करनेवाला है। शरीर में सुरक्षित सोम मन को पवित्र व बुद्धि को दीप्त बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर सरल मार्गों से चलें, सात्त्विक भोजनों का सेवन करें। क्रियाशील बनकर सोम का रक्षण करें। सुरक्षित सोम पवित्रता व ज्ञानवृद्धि का साधन बनता है।
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