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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
    ऋषिः - जमदग्निभार्गवः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    वर्षि॑ष्ठक्षत्रा उरु॒चक्ष॑सा॒ नरा॒ राजा॑ना दीर्घ॒श्रुत्त॑मा । ता बा॒हुता॒ न दं॒सना॑ रथर्यतः सा॒कं सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वर्षि॑ष्ठऽक्षत्रौ । उ॒रु॒ऽचक्ष॑सा । नरा॑ । राजा॑ना । दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मा । ता । बा॒हुता॑ । न । दं॒सना॑ । र॒थ॒र्य॒तः॒ । सा॒कम् । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वर्षिष्ठक्षत्रा उरुचक्षसा नरा राजाना दीर्घश्रुत्तमा । ता बाहुता न दंसना रथर्यतः साकं सूर्यस्य रश्मिभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वर्षिष्ठऽक्षत्रौ । उरुऽचक्षसा । नरा । राजाना । दीर्घश्रुत्ऽतमा । ता । बाहुता । न । दंसना । रथर्यतः । साकम् । सूर्यस्य । रश्मिऽभिः ॥ ८.१०१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Leading men of most generous and disciplined strength and energy of body and mind, with broad vision, refulgent, and steeped in the knowledge of revelation over long time study and discussion, like heroes of mighty arms in action, rise high with the rays of the sun by virtue of divine love and service.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाचे बाहू संकटे आल्यावरही कार्य करत राहतात. रात्र व दिवस निरंतर आपापले कार्य करत राहतात. याच प्रकारे जे स्त्री-पुरुष आपापले कर्तव्य निभावतात ते अतिशय बलवान, दीर्घदर्शी व दीर्घश्रुत बनतात. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ता नराः) वे नर-नारी जो मित्रता तथा श्रेष्ठत्व के गुणों को साथ-साथ निबाहते हैं, या दिवस व रात्रि के तुल्य जिनकी जोड़ी है, (वर्षिष्ठक्षत्रा) अतिशय बढ़े बल से युक्त (उरुचक्षसा) दीर्घदर्शी, (राजाना) तेजस्वी, (दीर्घश्रुत्तमाः) दीर्घकाल तक वेदादि शास्त्रों को सुनने वालों में सर्वोपरि (बाहुता न) दोनों भुजाओं के तुल्य (सूर्यस्य रश्मिभिः साकम्) सूर्य की किरणों के सहित (दंसना) कर्मों पर (रथर्यतः) आरूढ़ होते हैं॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य की भुजाएं बाधाओं की विद्यमानता में अपना कार्य करती रहती हैं; रात-दिन निरन्तर अपना-अपना कृत्य करते रहते हैं। इसी भाँति जो नर-नारी अपना-अपना कर्त्तव्य पूर्ण करते रहते हैं वे बड़े बलवान्, दीर्घदर्शी व दीर्घश्रुत रहते हैं॥२॥

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    विषय

    दो नायकोंवत् मेघ और वायु।

    भावार्थ

    वे दोनों मित्र और वरुण, (वर्षिष्ठ-क्षत्रा) अति बलशाली, प्रचुर वर्षा लाने वाले वीर्य जलादि से युक्त ( उरु-चक्षसा ) विशाल दर्शन वाले ( नरा ) उत्तम दो नायकों के तुल्य ( राजाना ) तेजस्वी, ( दीर्घ-श्रुत्तमा ) बहुश्रुत हैं। ( ता ) वे दोनों (बाहुता न) दो बाहुओं के समान ( दंसना ) नाना कर्म ( रथर्यतः ) करते हैं। उसी प्रकार वायु और मेघ दोनों मित्र और वरुण हैं। वे (वर्षिष्ठ-क्षत्रा) दोनों प्रचुर वर्षा लाने वाले बल और जल से युक्त, (ऊरु-चक्षसा) बहुत रूपों में दीखने वाले, (नरा) उत्तम सुख प्राप्त कराने वाले (राजाना) विद्युद् आदि से प्रदीप्त (दीर्घश्रुत्तमा) दूर से ही गर्जन रूप में सुनाई देने वाले हैं, वे मानो ( बाहुता न ) प्रजापति की दो बाहुओं के समान ( सूर्यस्य रश्मिभिः साकं ) सूर्य की किरणों के साथ ( दंसना स्थर्यतः ) बहुत से कर्म करते हैं। उन दोनों से वृष्टि, अन्नोत्पत्ति और ऋतु परिवर्त्तन आदि होते हैं । राष्ट्र में वे दोनों अधिकारी न्याय-शासन और सैन्य विभाग हैं। वे सूर्यवत् तेजस्वी राजा के रश्मिरूप मर्यादा, कानूनों वा प्रणिधियों, गुप्तचरों के द्वारा वा तेजस्वी आदि गुणों से बहुत से कार्य सम्पादन करते हैं।

    टिप्पणी

    सूर्य रश्मियों की प्रणिधियों से तुल्यता- न तस्य मण्डले राज्ञो न्यस्तप्रणिधिदीधितेः। अदृष्टमभवत् किञ्चित् व्यभ्रस्येव विवस्वतः॥ ४८ ॥ रश्मियों की गुणों से उपमा जैसे इन्दोरगतयः पद्मे सूर्यस्य कुमुदेंऽशवः। गुणास्तस्य विपक्षेपि गुणिनो लेभिरेऽन्तरम् ॥ ७५ ॥ ( रघु० १७ )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    मित्रावरुणौ

    पदार्थ

    [१] मित्र और वरुण, अर्थात् स्नेह व द्वेष-निवारण [निर्दोषता] के भाव (वर्षिष्ठक्षत्रा) = अतिशयेन प्रवृद्ध बलवाले हैं और (उरु चक्षसा) = विशाल दृष्टि व ज्ञान प्रकाशवाले हैं। ये (नराः) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले, (राजाना) = जीवन को दीप्त बनानेवाले व (दीर्घश्रुत्तमा) = अन्धकार विदारक शास्त्र ज्ञानवाले हैं। मित्र और वरुण हमें विद्वान् बनाते हैं। [२] (ता) = वे मित्र और वरुण (बाहुता न) = दोनों भुजाओं के समान, (सूर्यस्य रश्मिभिः साकम्) = सूर्य की किरणों के साथ (दंसना रथर्यतः) = कर्मों को प्राप्त करते हैं। स्नेह व निर्देषता के भावों के होने पर मनुष्य ज्ञान के प्रकाश में यज्ञादि उत्तम कार्यों में तत्पर रहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के भाव हमारे बल का वर्धन करते हैं, दृष्टि को विशाल बनाते हैं, हमें उन्नतिपथ पर ले चलते हैं। दीप्त व ज्ञानयुक्त जीवनवाला बनाते हैं। यज्ञ आदि कर्मों में हमें प्रवृत्त रखते हैं।

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