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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 14
    ऋषिः - जमदग्निभार्गवः देवता - पवमानः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र॒जा ह॑ ति॒स्रो अ॒त्याय॑मीयु॒र्न्य१॒॑न्या अ॒र्कम॒भितो॑ विविश्रे । बृ॒हद्ध॑ तस्थौ॒ भुव॑नेष्व॒न्तः पव॑मानो ह॒रित॒ आ वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽजाः । ह॒ । ति॒स्रः । अ॒ति॒ऽआय॑म् । ई॒युः॒ । नि । अ॒न्याः । अ॒र्कम् । अ॒भितः॑ । वि॒वि॒श्रे॒ । बृ॒हत् । ह॒ । त॒स्थौ॒ भुव॑नेषु । अ॒न्तरिति॑ । पव॑मानः । ह॒रितः॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजा ह तिस्रो अत्यायमीयुर्न्य१न्या अर्कमभितो विविश्रे । बृहद्ध तस्थौ भुवनेष्वन्तः पवमानो हरित आ विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽजाः । ह । तिस्रः । अतिऽआयम् । ईयुः । नि । अन्याः । अर्कम् । अभितः । विविश्रे । बृहत् । ह । तस्थौ भुवनेषु । अन्तरिति । पवमानः । हरितः । आ । विवेश ॥ ८.१०१.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Three orders of evolutionary creation, sattva or thought, rajas or energy, and tamas or matter, and three regions of the cosmos, heaven, earth and the middle regions proceed to expansive existence at the beginning of the Being manifesting into Becoming, and others, all biological forms depend upon the self-refulgent sun. The infinite spirit of divinity abides immanent in the cosmos, and pure, and sanctifying all forms, manifests in all directions of space and greenery of the earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या प्रभूच्या सृष्टीत उत्कृष्ट, मध्यम, निकृष्ट तीन प्रकारच्या रचना आहेत. ज्या विनाशशील आहेत. उरलेल्या कारणरूप शक्ती तशाच असतात. तो प्रभू सर्व लोकात सर्व दिशा-प्रदिशांमध्ये व्याप्त आहे. ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तिस्रः) तीन प्रकार की [उत्तम, मध्यम एवं निकृष्ट] (प्रजाः) कारण रूप प्रकृति आदि तो (अत्यायं ईथुः युः) लुप्त हो गई थीं; (अन्याः) दूसरी (अर्कम्) उस स्तुत्य के (अभितः) चतुर्दिक् (नि, विविश्रे) निविष्ट हो गई। (ह) निश्चय वह (बृहत्) बृहत् (पवमानः) पावन करता हुआ (भुवनेषु अन्तः) लोकों में (हरितः) दिशाओं में (आ विवेश) अधिकारारूढ़ हो गया॥१४॥ तस्थौ ?

    भावार्थ

    परमात्मा की इस सृष्टि में उत्कृष्ट, मध्यम तथा निकृष्ट तीन प्रकार की रचनायें हैं जो विनाशशील हैं; शेष कारणरूपा शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं; वह प्रभु सभी दिशाओं-प्रदिशाओं में व्याप्त रहता है॥१४॥

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    विषय

    महान् प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    ( तिस्रः प्रजाः ) तीनों प्रकार की प्रजाएं ( अति-आयम् ) सब को अतिक्रमण करके विराजमान प्रभु को ही ( ईयुः ) प्राप्त होती हैं। अथवा—तीन प्रजाएं ( अत्यायम् ईयुः ) अतिक्रमण कर गति करती हैं जैसे—पक्षी गण, भूमि को छोड़कर आकाश से विचरते हैं वे तीन प्रकार के हैं, जैसे—गव, वगध और चेरपाद। और ( अन्याः ) दूसरी प्रजाएं ( अर्कम् अभितः ) सूर्यवत् अन्न का आश्रय लेकर ( विविश्रे ) स्थित हैं ! ( भुवनेषु अन्तः ) लोक में ( बृहत् पवमानः ) बड़ा भारी परम पावन, प्रभु ( तस्थौ ) विराजता है, वह ही ( हरितः अविवेश ) सब दिशाओं में वायुवत् व्यापक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    तिस्रः प्रजाः - अन्याः

    पदार्थ

    [१] (ह) = निश्चय से (तिस्रः प्रजाः) = ' पुत्रैषणा, वित्तैषणा व लोकैषणा' रूप तीन एषणाओं के अन्दर चलनेवाली (तिस्रः प्रजाः)= ये तीन प्रकार की प्रजायें (अति आयम्) = अतिशयेन गति को, आवागमन को जन्म-मरण के चक्र को (ईयुः) = प्राप्त होती हैं। (अन्याः) = इन एषणाओं से ऊपर उठ जानेवाली दूसरी प्रजायें (अर्क अभितः) = उस अर्चनीय [पूजनीय] परमात्मा के चारों ओर प्रभु के समीप (निविविश्रे) = निवेशवाली होती हैं। ये प्रभु की भक्ति में प्रवृत्त होती हैं । [२] ये प्रजायें प्रभु का स्मरण इस रूप में करती हैं कि वह (बृहत्) = महान् प्रभु (ह) = निश्चय से (भुवनेषु अन्तः) = सब लोकों व प्राणियों के अन्दर (तस्थौ) = स्थित हैं। (पवमानः) = सब प्रजाओं को पवित्र करनेवाले वे प्रभु (हरितः आविवेश) = सब दिशाओं में व्याप्त हैं। कोई भी स्थान प्रभु की व्याप्ति से पृथक् नहीं है। ये सर्वव्यापक प्रभु हमारे अन्दर भी व्याप्त होकर हमें पवित्र कर रहे हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - एषणात्रय में चलनेवाली प्रजायें आवागमन के चक्र से ऊपर नहीं उठ पातीं। प्रभु के उपासक ही पवित्र जीवनवाले बनकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं। आवागमन के चक्र से ये ही बच पाते हैं।

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