ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 5
ऋषिः - जमदग्निभार्गवः
देवता - मित्रावरुणौ, आदित्याः
छन्दः - स्वरडार्चीबृहती
स्वरः - मध्यमः
प्र मि॒त्राय॒ प्रार्य॒म्णे स॑च॒थ्य॑मृतावसो । व॒रू॒थ्यं१॒॑ वरु॑णे॒ छन्द्यं॒ वच॑: स्तो॒त्रं राज॑सु गायत ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । मि॒त्राय॑ । प्र । अ॒र्य॒म्णे । स॒च॒थ्य॑म् । ऋ॒त॒व॒सो॒ इत्यृ॑तऽवसो । व॒रू॒थ्य॑म् । वरु॑णे । छन्द्य॑म् । वचः॑ । स्तो॒त्रम् । राज॑ऽसु । गा॒य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र मित्राय प्रार्यम्णे सचथ्यमृतावसो । वरूथ्यं१ वरुणे छन्द्यं वच: स्तोत्रं राजसु गायत ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । मित्राय । प्र । अर्यम्णे । सचथ्यम् । ऋतवसो इत्यृतऽवसो । वरूथ्यम् । वरुणे । छन्द्यम् । वचः । स्तोत्रम् । राजऽसु । गायत ॥ ८.१०१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lover of truth and eternal laws and values of cosmic truth, sing together, sing in the home and sing on joyous occasions collective, homely and celebrative songs in honour of Mitra, lord of love and universal friendship, Aryaman, lord of the paths of rectitude, and Varuna, lord of judgement and wisdom. Sing hymns of adoration for all the refulgent divinities.
मराठी (1)
भावार्थ
पुरुषार्थी माणसांनी आपल्या जीवनात स्नेहशील, दानशील श्रेष्ठ व दीप्तिवान बनण्यासाठी परमेश्वराच्या त्या त्या गुणांचे गायन करावे. ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (ऋतावसो) यथार्थतारूपधन से धनी जनो! (मित्राय) मित्र हेतु (सचथ्यम्) सामूहिक (वरुथ्यम्) पारिवारिक एवं (छन्द्यम्) प्रीतिकर (स्तोत्रं वचः) स्तुतिवचन का (प्र, गायत) गायन करो; इसी भाँति (अर्यम्णे) दानशील हेतु (प्र) गायन करो; (वरुणे) श्रेष्ठ के प्रति और (राजसु) दीप्तिशीलों के प्रति भी स्तुति वचन कहो॥५॥
भावार्थ
पुरुषार्थी मानव स्वजीवन में स्नेहशील, दानशील, श्रेष्ठ तथा दीप्तिमान् बनने हेतु परमेश्वर के उन गुणों का गान करे॥५॥
विषय
प्रजा की राजा से विशेष याचनाएं।
भावार्थ
हे (ऋत-वसो ) सत्य के धनी ! तू ( मित्राय ) स्नेही जन, ( अर्यमणे ) शत्रुओं के नियन्ता और ( वरुणे ) श्रेष्ठ जन के लिये ( सचथ्यम् ) सेवायोग्य, आदरणीय, मेल मिलाप के और ( वरूथ्यम् ) दुःखवारक तथा ( छन्द्यं ) चित्तवृत्ति के अनुकूल ( वचः ) वचन का ( प्र ) प्रयोग कर। और हे ( मनुष्यो ) आप लोग ( राजसु ) राजा, तेजस्त्री जनों में उक्त प्रकार के ( स्तोत्रं ) स्तुति वचन का ( गायत ) गान करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
विषय
मित्र, अर्यमा व वरुण' का स्तवन
पदार्थ
[१] हे (ऋतावसो) = ऋतरूपी वसुवाले, यज्ञ को ही अपना धन बनानेवाले, उपासक (मित्राय) = स्नेह की देवता के लिये (सचथ्यम्) = मेल में उत्तम, सम्यक् मेल के करानेवाले (वचः) = वचन का (प्र) [गाय]= यत्न कर। (अर्यम्णे) = [ अरीन् यच्छति] शत्रुओं का नियमन करनेवाले अर्यमा के लिये (वरूथ्यम्) = उत्तम कवच काम करनेवाले वचन का प्र [गाय] गायन कर। इसी प्रकार (वरुणे) = वरुण के विषय में, द्वेष निवारण के पवित्र भाव के विषय में, (छन्द्यं वचः) = छादन में, उत्तम रक्षण में उत्तम वचन को बोल । मित्र, अर्यमा व वरुण की आराधना करता तू 'मित्र, अर्यमा और वरुण' ही बन । [२] (राजसु) = जीवन को दीप्त बनानेवाले इन 'मित्र, अर्यमा व वरुण' के विषय में (स्तोत्रम्) = स्तोत्र का (गायत) = गायन करो। इनका स्तवन करते हुए 'स्नेह, संयम व निर्दोषता' को धारण करो।
भावार्थ
भावार्थ- हम काम-क्रोध-लोभ के आक्रमण से बचकर स्नेह व निर्देषता का भाव धारण करते हुए प्रभु विषयक प्रश्नों को करें, प्रभु को पुकारें, प्रभु विषयक संवादों को करें । निरन्तर कर्त्तव्य कर्मों में लगे रहने के द्वारा हम इन शत्रुओं के आक्रमण से अपने को बचानेवाले हों।
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