ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 9
आ नो॑ य॒ज्ञं दि॑वि॒स्पृशं॒ वायो॑ या॒हि सु॒मन्म॑भिः । अ॒न्तः प॒वित्र॑ उ॒परि॑ श्रीणा॒नो॒३॒॑ऽयं शु॒क्रो अ॑यामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । य॒ज्ञम् । दि॒वि॒ऽस्पृश॑म् । वायो॒ इति॑ । या॒हि । सु॒मन्म॑ऽभिः । अ॒न्तरिति॑ । प॒वित्रे॑ । उ॒परि॑ । श्री॒णा॒नः । अ॒यम् । शु॒क्रः । अ॒या॒मि॒ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो यज्ञं दिविस्पृशं वायो याहि सुमन्मभिः । अन्तः पवित्र उपरि श्रीणानो३ऽयं शुक्रो अयामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । यज्ञम् । दिविऽस्पृशम् । वायो इति । याहि । सुमन्मऽभिः । अन्तरिति । पवित्रे । उपरि । श्रीणानः । अयम् । शुक्रः । अयामि । ते ॥ ८.१०१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vayu, vibrant sage of knowledge and science of yajna, come to our project of divine possibilities with your noble ideas and plans, and I, joining this programme with you, offer this bright performance of ours, pure within in purpose and bright and clear in form and structure.
मराठी (1)
भावार्थ
या सूक्तात वर्णन केलेल्या योगी पुरुषाला साधकाने त्याच्याकडून उपदेश ग्रहण करण्यासाठी प्रभूच्या गुणकीर्तन यज्ञात आमंत्रित करावे व आपल्या सुकृत्याद्वारे त्याच्या हृदयात स्थान प्राप्त करावे. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वायो) योगबल से व्यावहारिक कार्य करने वाले! (त्वम्) तू (नः) हमारे (दिविस्पृशम्) प्रकाशस्वरूप परमात्मा के साथ स्पर्श कराने वाले (यज्ञे) स्तुति यज्ञ में (सुमन्मभिः) शुभ विचारों अथवा विज्ञानों को साथ लिये (आ) उपस्थित हो। (शुक्रः) शुद्ध आचारवान् (अयम्) यह मैं उपासक (ते उपरि) तुझ पर (श्रीणानः) निर्भर रहते हुए, (पवित्रे अन्तः) तेरे शुद्ध अन्तःकरण में (अयामि) स्थान पा लूँ॥९॥
भावार्थ
साधक प्रस्तुत सूक्त में वर्णित योगी जन को अपने प्रभु के गुण कीर्तन यज्ञ में उसे शिक्षा ग्रहण करने हेतु आमन्त्रित करे और अपने सुकृत्यों से उसके हृदय में स्थान पाने का प्रयास करे॥९॥
विषय
विद्याभिलाषी जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वायो ) ज्ञानवन् ! बलवन् ! विद्वन् ! तू ( नः ) हमारे ( दिवि-स्पृशं ) मनःकामनागत, वा ज्ञान सम्बन्धी ( यज्ञं ) परस्पर के सत्संग को ( सुमन्मभिः ) उत्तम ज्ञानों सहित ( आयाहि ) प्राप्त हो। ( अयं ) यह मैं ( पवित्रे उपरि श्रीणानः ) पवित्र व्रत पर आश्रय लेता हुआ ( शुक्रः ) शुद्ध आचारवान् होकर ( ते अन्तः अयामि ) तेरे अन्तःकरण में स्थान प्राप्त करूं। वा ( ते अन्तः अयामि ) तेरे अन्तःकरण को बांधता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
विषय
दिविस्पृश यज्ञ
पदार्थ
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वायो) = [वा गतौ] जीवन को सदा गतिमय रखनेवाले पुरुष ! (नः) = हमारे (दिविस्पृशम्) = ज्ञान में स्पर्श करानेवाले (यज्ञम्) = ' माता, पिता, आचार्य' आदि देवों के पूजनरूप यज्ञ को (आयाहि) = तू प्राप्त हो [ यज् देवपूजायाम्] । [२] (अन्तः पवित्रे) = पवित्र हृदय में (सुमन्मभिः) = उत्तम मननपूर्वक की गई स्तुतियों से (अयम्) = यह (शुक्रः) = शरीर में उत्पन्न सोम उपरि (श्रीणानः) = ऊर्ध्वगतिवाला होता हुआ परिपक्व हो जाता है। (ते अयामि) = इस सोम को मैं तेरे लिये (अयामि) = प्राप्त कराता हूँ। यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। इसका शरीर में यही सर्वोत्तम विनियोग है।
भावार्थ
भावार्थ-'माता, पिता, आचार्य' आदि देवों के आदर व अनुगमन से मैं ज्ञान को बढ़ाऊँ । स्तुतियों के द्वारा हृदय को पवित्र करते हुए हम सोम की शरीर में ऊर्ध्व गति करें।
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