ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
प्र यो वां॑ मित्रावरुणाजि॒रो दू॒तो अद्र॑वत् । अय॑:शीर्षा॒ मदे॑रघुः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यः । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । अ॒जि॒रः । दू॒तः । अद्र॑वत् । अयः॑ऽशीर्षा । मदे॑ऽरघुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यो वां मित्रावरुणाजिरो दूतो अद्रवत् । अय:शीर्षा मदेरघुः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यः । वाम् । मित्रावरुणा । अजिरः । दूतः । अद्रवत् । अयःऽशीर्षा । मदेऽरघुः ॥ ८.१०१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Mitra and Varuna, love and judgement of divinity, light and dark of life, sun and ocean of the cosmos, external pranic energy and internal udanic energy, the person who is wise and learned and eliminates the negativities and undesirables of life, and with his wisdom and values, realises you both achieves the golden heights of wisdom and intrepid happiness in the simplest way at the shortest time.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनपथाचे यात्री असणाऱ्या स्त्री-पुरुषामधून पुरुष ज्ञानी व मननशील असावा. अनर्थांना आपल्या मार्गापासून दूर करणारा असावा. दोघांपैकी अधिक वेगाने काम करणारा असावा. ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (मित्रावरुणा) नर-नारियो! (वाम्) तुम दोनों में से (यः) जो (अजिरः) ज्ञानवान् है वह (अयःशीर्षा) गतिशील मस्तिष्क वाला, (मदेरघुः) हर्षित अतः कर्मठ; (दूतः) जीवन पथ पर आने वाले विघ्नों को भगाने वाला (प्र, अद्रवत्) गमनशील रहता है॥३॥
भावार्थ
जीवनपथ के यात्री नर-नारियों में से पुरुष साथी ज्ञानी एवं मननशील हो; अनर्थों को अपने मार्ग से हटाने वाला हो और दोनों में से अपेक्षया अधिक गति से कार्य करे॥३॥
विषय
राष्ट्र के न्याय और सैन्य-विभाग के अध्यक्षों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( मित्रा-वरुणा ) मित्र अर्थात् दिनवत् प्रजा के प्राणों के रक्षक और अर्थात् रात्रिवत् सब को सुख देने वाले राजा शासकादि जनो ! ( यः ) जो ( वां ) तुम दोनों का ( अजिरः ) वेग से जाने वाला, (दूतः) दूत ( प्र अद्रवत् ) देश देशान्तर जाता हो वह (अय:-शीर्षा ) लोहे के शिर वाला, दृढ़ विचार और (मदे रघुः ) हर्षादि से प्रफुल्लगति हो। शिर लोहे का हो अर्थात् उस के विचार दृढ़ और रहस्यों के छिपाने में कठोर हों। अथवा—( अयः ते शीर्षा ) उस के शिर पर स्वर्णीय मुकुट या पद का चिन्ह आदि हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अजिरः दूतः
पदार्थ
[१] हे (मित्रावरुणा) = स्नेह व द्वेषनिवारण के भावो ! (यः) = जो (वाम्) = आपके (प्रति प्र अद्रवत्) = प्रकर्षेण गतिवाला होता है वह (अजिरः) = क्रियाशीलता द्वारा सब मलों को परे फेंकनेवाला व (दूतः) = अध्यात्म शत्रुओं को संतप्त करनेवाला होता है, राग-द्वेष उसके समीप नहीं फटकते। [२] यह मित्र और वरुण का उपासक (अयः शीर्षा) = हिरण्यालंकृत सिरवाला, अर्थात् स्थिर ज्ञान से सुशोभित मस्तिष्कवाला व (मदेरघुः) = उल्लासजनक सोम के सुरक्षित होने से तीव्र गतिवाला होता है । यह स्फूर्ति से कार्यों को करनेवाला होता है। स्नेह व निर्देषता के भाव हमें क्रियाशील व सब वासनाओं को संतप्त करनेवाला
भावार्थ
भावार्थ- बनाते हैं। इनसे हम स्थिरज्ञान से सुशोभित मस्तिष्कवाले व उल्लासपूर्वक कर्त्तव्य कर्मों को करनेवाले बनते हैं।
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