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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 6
    ऋषिः - जमदग्निभार्गवः देवता - आदित्याः छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    ते हि॑न्विरे अरु॒णं जेन्यं॒ वस्वेकं॑ पु॒त्रं ति॑सॄ॒णाम् । ते धामा॑न्य॒मृता॒ मर्त्या॑ना॒मद॑ब्धा अ॒भि च॑क्षते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । हि॒न्वि॒रे॒ । अ॒रु॒णम् । जेन्य॑म् । वसु॑ । एक॑म् । पु॒त्रम् । ति॒सॄ॒णाम् । ते । धामा॑नि । अ॒मृताः॑ । मर्त्या॑नाम् । अद॑ब्धाः । अ॒भि । च॒क्ष॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते हिन्विरे अरुणं जेन्यं वस्वेकं पुत्रं तिसॄणाम् । ते धामान्यमृता मर्त्यानामदब्धा अभि चक्षते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । हिन्विरे । अरुणम् । जेन्यम् । वसु । एकम् । पुत्रम् । तिसॄणाम् । ते । धामानि । अमृताः । मर्त्यानाम् । अदब्धाः । अभि । चक्षते ॥ ८.१०१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    They, Mitra, Varuna and Aryaman, love, judgement and will of divinity in nature, Aditi, bring forth, move and inspire the one, refulgent, victorious, shelter home of life, protector and illuminator of the three, heaven, earth and the middle regions, the sun, child of Aditi, and they, immortal, undaunted and invincible, all round watch and protect the homes and regions of the mortals.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पुरुष मैत्री, दानशीलता, श्रेष्ठता इत्यादी गुणांचे पालन करतो, आत्मविज्ञानी विद्वान त्याला प्रेरित करतात. ते त्याला अशा गुणांचा उपदेश करतात की ज्यांना धारण करण्याने तो सुखाने जीवन व्यतीत करतो. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) वे विद्वान् (तिसृणाम्) तीनों--मित्र, अर्यमा एवं वरुण--के (एकम्) एक समान (पुत्रम्) पालित संरक्षित उस पुत्र को जो (अरुणम्) तेजस्वी है; (जेन्यम्) जयशील है, (हिन्विरे) प्रेरणा देते हैं। (ते अमृताः) वे अपनी कीर्ति से अमर या आत्मविज्ञानी विद्वान् प्रेरक (अदब्धाः) सदा सतर्क रहकर (मर्त्यानाम्) मरणधर्मा मनुष्यों को (धामानि) उनके निर्भर करने योग्य बलों का (अभि, चक्षते) उपदेश देते हैं॥६॥

    भावार्थ

    जो व्यक्ति मित्रता, दानशीलता एवं श्रेष्ठता आदि गुणों का पालन करता है--निश्चय ही आत्मविज्ञानी विद्वान् उसे प्रेरित करते हैं--वे उसे ऐसे गुणों का उपदेश देते हैं कि उन्हें धारण कर वह सुख से जीवन बिता सकता है॥६॥

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    विषय

    शासकों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( ते ) वे ( अरुणं ) तेजस्वी, अमित वीर्यवान्, ( जेन्यं ) विजयशील ( वसु ) सब को सुखपूर्वक बसाने वाले, ( तिसॄणां ) तीनों लोकों के एक अद्वितीय सूर्य के समान उत्तम, मध्यम, निकृष्ट तीनों प्रकार की प्रजाओं के बीच ( एकं ) एक अद्वितीय ( पुत्रं ) बहुतों के रक्षक को (हिन्विरे) बढ़ावें। (ते) वे (अमृताः) कभी नाश न होने वाले, (अदब्धाः) किसी से भी न मारे जाकर ( मर्त्यानां धामानि ) मनुष्यों के सब स्थानों का ( अभि चक्षते ) निरीक्षण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    एकं जेन्यं वसु

    पदार्थ

    [१] (ते) = वे गत मन्त्रों में वर्णित 'मित्र, अर्यमा व वरुण' (अरुणम्) = तेजस्वी [ॠ गतौ ] हमें गतिशील बनानेवाले, (जेन्यम्) = विजयशील (वसु) = धन को (हिन्विरे) = प्राप्त कराते हैं। जो वसु (एकम्) = अद्वितीय है। तथा (तिसृणाम्) = शरीर, मन व बुद्धिरूपी पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक नामक तीनों लोकों का (पुत्रम्) = [पुनातित्रायते] पवित्र करनेवाला व त्राण करनेवाला है। [२] (अमृताः) = [न मृतं येभ्यः] मृत्यु से ऊपर उठानेवाले (अदब्धा:) = किसी से हिंसित न होनेवाले (ते) = वे मित्र, अर्यमा और वरुण (मर्त्यानाम्) = मनुष्यों के (धामानि) = तेजों का अभिचक्षते ध्यान करते हैं, रक्षण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्नेह, संयम व निर्देषता के द्वारा हमारा जीवन पवित्र व सुरक्षित बना रहता है। इनसे हमारे शरीर, मन व बुद्धि का तेज कायम रहता है।

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