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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 12
    ऋषिः - जमदग्निभार्गवः देवता - सूर्यः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    बट् सू॑र्य॒ श्रव॑सा म॒हाँ अ॑सि स॒त्रा दे॑व म॒हाँ अ॑सि । म॒ह्ना दे॒वाना॑मसु॒र्य॑: पु॒रोहि॑तो वि॒भु ज्योति॒रदा॑भ्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बट् । सू॒र्य॒ । श्रव॑सा । म॒हान् । अ॒सि॒ । स॒त्रा । दे॒व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ । म॒ह्ना । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र्यः॑ । पु॒रःऽहि॑तः । वि॒ऽभु । ज्योतिः॑ । अदा॑भ्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बट् सूर्य श्रवसा महाँ असि सत्रा देव महाँ असि । मह्ना देवानामसुर्य: पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बट् । सूर्य । श्रवसा । महान् । असि । सत्रा । देव । महान् । असि । मह्ना । देवानाम् । असुर्यः । पुरःऽहितः । विऽभु । ज्योतिः । अदाभ्यम् ॥ ८.१०१.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Surya, lord self-refulgent, by honour and fame you are great. In truth, you are great, generous lord, by your grandeur among the divinities. Lord of pranic energy, destroyer of the evil, prime high priest of creation in cosmic dynamics, omnipresent and infinite, light unsurpassable, eternal.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीव किंवा साधक ज्या महान प्रेरकापासून प्रेरणा घेतो त्याचे यशही महान असते. दिव्य वस्तूमध्येही दुष्ट भावना असतात त्यांना नियंत्रणात ठेवण्यासाठी परमात्म्याचे गुणगान केले पाहिजे. त्याचे तेज अत्यंत व्यापक आहे. ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (सूर्य) प्रभु! आप (बट्) सत्य ही (श्रवसा) कीर्ति के कारण (महान् असि) वन्दनीय हैं। (देव) हे दिव्य! आप (सत्रा) वस्तुतः (महान् असि) महान् हैं। (देवानाम्) दिव्यों में से आप (मह्ना) अपनी शक्ति से (असुर्यः) स्वार्थी जनों के नियामक, (पुरोहितः) हितोपदेष्टा हैं; (ज्योतिः) आप का तेज (विभुः) व्याप्त तथा (अदाभ्यम्) अक्षुण्ण है॥१२॥

    भावार्थ

    जीव या साधक जिस महान् परमात्मा से प्रेरणा लेता है, उसका यश भी अतिशय है; दिव्य वस्तुओं में भी दुष्टभावनायें हैं, उन्हें नियन्त्रण में रखने हेतु उसका गुणगान करना अपेक्षित है। उसका तेज नितान्त व्यापक है॥१२॥

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    विषय

    महान् प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( सूर्यवत् ) तेजस्विन् ! सर्वप्रकाशक सूर्य ! परमेश्वर ! तू ( बट् ) सत्य ही ( श्रवसा महान् असि ) अपने ज्ञान, और यश से महान् है। हे ( देव ) प्रकाशस्वरूप तू ( सत्रा ) सत्य के बल से ( महान् असि ) महान् है। तू ( मह्ना ) अपने महान् सामर्थ्य से ( असुर्यः ) प्राणों में रमण करने वाले जीवों का हितकारी, बलवानों में सब से बड़ा बलशाली, ( पुरोहितः ) सब के समक्ष साक्षिवत् विराजमान है। तू ( विभु ) सर्वव्यापक, ( अदाभ्यम् ) कभी नाश न होने वाला (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    [देवानाम्] असुर्यः पुरोहितः

    पदार्थ

    [१] हे (सूर्य) = सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक प्रभो! आप (बट्) = सचमुच ही (श्रवसा) = ज्ञान के हेतु से (महान् असि) = महान् हैं, पूजनीय हैं। आपके पूर्ण ज्ञान के कारण आपका बनाया यह संसार भी पूर्ण है। हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो! आप (सत्रा) = सचमुच ही महान् असि महान् हैं। [२] आप अपनी (मह्ना) = महिमा से (देवानां असुर्य:) = देवों के अन्दर प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाले हैं [असून् राति] और (पुरोहितः) = हितोपदेष्टा हैं। आप तो एक विभु व्यापक व (अदाभ्यम्) = अहिंस्य (ज्योतिः) = ज्योति हैं। आपके उपासक भी इस ज्योति से अपने जीवन को दीप्त कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अपने ज्ञान के कारण महान् हैं, वे एक पूर्ण [न्यूनता शून्य] सृष्टि को जन्म देते हैं। अपनी महिमा से देवों के अन्दर प्राणशक्ति का सञ्चार करते हैं और उन्हें हितकर प्रेरणा देते हैं। प्रभु एक व्यापक अहिंस्य ज्योति हैं।

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