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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 7
    ऋषिः - जमदग्निभार्गवः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    आ मे॒ वचां॒स्युद्य॑ता द्यु॒मत्त॑मानि॒ कर्त्वा॑ । उ॒भा या॑तं नासत्या स॒जोष॑सा॒ प्रति॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मे॒ । वचां॑सि । उत्ऽय॑ता । द्यु॒मत्ऽत॑मानि । कर्त्वा॑ । उ॒भा । या॒त॒म् । ना॒स॒त्या॒ । स॒ऽजोष॑सा । प्रति॑ । ह॒व्यानि॑ । वी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मे वचांस्युद्यता द्युमत्तमानि कर्त्वा । उभा यातं नासत्या सजोषसा प्रति हव्यानि वीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मे । वचांसि । उत्ऽयता । द्युमत्ऽतमानि । कर्त्वा । उभा । यातम् । नासत्या । सऽजोषसा । प्रति । हव्यानि । वीतये ॥ ८.१०१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O men and women of the mortal world engaged in creative and cooperative economy, committed to truth and immortal values, listen to my words inspired by the brilliance of divinity, and, together in love and friendship, turn them to practical application and truth of achievement to create valuable materials for yajnic enjoyment of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपदेष्टा आप्त विद्वानाच्या यथार्थ ज्ञानाने भरलेल्या उपदेशांना कधी न टाळणारे स्त्री-पुरुष जर त्यांच्यानुसार परस्पर संगत करून सहकार्य करून चालले तर त्यांना भोग्य पदार्थांची कमी राहणार नाही. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    उपदेश देने वाला विद्वान् कहता है कि हे (नासत्या) कभी असत्य आचरण न करने वाले ज्ञानी नर-नारियो! (उभा) तुम दोनों (मे) मेरे (उद्यता) द्वारा कथित (द्युमत्तानि) यथार्थ ज्ञान रूपी प्रकाश से भलीभाँति प्रकाशित (वचांसि) उपदेश वाक्यों को (कर्त्वा) कार्यरूप में परिणत करोगे तो (सजोषसा) परस्पर प्रीतिपूर्वक संगत हुए (वीतये) भोग हेतु (हव्यानि प्रति) देने और लेने योग्य पदार्थों की ओर ही (यातम्) बढ़ोगे॥७॥

    भावार्थ

    उपदेशक विद्वान् के यथार्थ ज्ञान से परिपूर्ण उपदेशों को कभी न टालने वाले नर-नारी यदि उनके अनुसार एक-दूसरे को साथ लेकर चलें तो उन्हें उचित भोग्य पदार्थों की कभी कमी न होगी॥७॥

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    विषय

    विद्याभिलाषी जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) प्रमुख, असत्याचरण न करने वाले स्त्रीपुरुषो ! आप दोनों ( मे ) मेरे ( उद्यता ) उपस्थित ( द्युमत्-तमानि ) ज्ञानप्रकाश से युक्त ( कर्त्ता ) कार्य रूप से करने योग्य ( वचांसि ) वचनों को ( आयातम् ) प्राप्त करो। और ( उभा सजोषसा ) दोनों प्रेम से युक्त होकर ( हव्यानि वीतये प्रति यातम् ) उत्तम अन्न खाने के लिये लौट जाया करो। विद्वानों के उत्तम २ व्याख्यानादि सुनने के लिये स्त्री पुरुष वा शिष्य शिष्या जन विद्वानों के पास आया करें और भोजनार्थ पुनः घरों या आश्रमों पर चले जाया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जमदग्निर्भार्गव ऋषिः। देवताः—१—५ मित्रावरुणौ। ५, ६ आदित्याः। ७, ८ अश्विनौ। ९, १० वायुः। ११, १२ सूर्यः। १३ उषाः सूर्यप्रभा वा। १४ पवमानः। १५, १६ गौः॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ६, ७, ९, ११ विराड् बृहती। १२ भुरिग्बृहती। १० स्वराड् बृहती। ५ आर्ची स्वराड् बृहती। १३ आर्ची बृहती। २, ४, ८ पंक्तिः। ३ गायत्री। १४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १५ त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्युमत्तम वचन व कर्म

    पदार्थ

    [१] प्राणापान ‘नासत्या' कहलाते हैं-नासिका में होनेवाले हैं तथा सब असत्यों को दूर करनेवाले हैं। हे नासत्या प्राणापानो! (मे) = मेरे (द्युमत्तमानि) = अतिशयेन ज्योतिर्मय ज्ञान के प्रकाश से युक्त (वचांसि) = वचन (उद्यता) = उद्यत हैं। (कर्त्वा) = मेरे कर्म भी उद्यत हैं। (उभा) = आप दोनों (सजोषसा) = समानरूप से प्रीतिवाले होते हुए (आयातम्) = हमें प्राप्त होवो। आपके द्वारा ही इन द्युमत्तम वचनों व कर्मों का सम्भव होगा। [२] आप दोनों (हव्यानि) = हव्य पदार्थों के सात्त्विक भोजनों के (वीतये) = भक्षण के लिये (प्रति) [ यातम् ] = प्रतिदिन प्राप्त होवो। अर्थात् हमारे प्राणापान सात्त्विक भोजनों को ही करनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा हम ज्योतिर्मय ज्ञान की वाणियों को प्राप्त हों तथा ज्योतिर्मय कर्मों को करनेवाले बनें। इस साधना में हमारा भोजन बड़ा सात्त्विक हो ।

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