ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 12
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
तमर्व॑न्तं॒ न सा॑न॒सिं गृ॑णी॒हि वि॑प्र शु॒ष्मिण॑म् । मि॒त्रं न या॑त॒यज्ज॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । अर्व॑न्तम् । न । सा॒न॒सिम् । गृ॒णी॒हि । वि॒प्र॒ । शु॒ष्मिण॑म् । मि॒त्रम् । न । या॒त॒यत्ऽज॑नम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमर्वन्तं न सानसिं गृणीहि विप्र शुष्मिणम् । मित्रं न यातयज्जनम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । अर्वन्तम् । न । सानसिम् । गृणीहि । विप्र । शुष्मिणम् । मित्रम् । न । यातयत्ऽजनम् ॥ ८.१०२.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O vibrant scholar and dedicated yajaka, adore and sing in praise of Agni, victorious giver of wealth and success like an archer getting the target, powerful inspirer of humanity for action and advancement as a friend.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या गुणांची वंदना करणारा, त्याच्या दिव्य गुणांना शीघ्र ग्रहण करण्याचा प्रयत्न करणाऱ्या माणसाला परमेश्वरही मित्राप्रमाणे साह्य करतो व त्याला शीघ्रतेने लक्ष्याकडे पोचवितो. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (विप्र) बुद्धिमान्! तू (तम्) उस प्रसिद्ध, (अर्वन्तं न) लक्ष्य पर शीघ्र पहुँचने वाले अश्व के तुल्य (सानसिम्) शीघ्र ही अर्जित कराने वाले (मित्रम् न) स्नेही मित्र के समान (जनम्) मानव को (यातयत्) उद्योग के लिये प्रेरणा देते हुए ज्ञान स्वरूप परमेश्वर का (गृणीहि) गुणगान कर॥१२॥
भावार्थ
प्रभु के गुणों का गान करनेवाले, उसके दिव्य गुणों को शीघ्र ग्रहण करने का प्रयास करनेवाले मानव को परमेश्वर भी मित्र की भाँति सहायता करता है और उसे शीघ्रातिशीघ्र लक्ष्य पर पहुँचा देता है॥१२॥
विषय
सर्व प्रकाशक, परम सुखदायक प्रभु की स्तुति भक्ति और उपासना।
भावार्थ
हे ( विप्र ) बुद्धिमान् मनुष्य ! तू (तम्) उस ( अर्वन्तम् ) अश्व के समान ( सानसिम् ) जीवन मार्ग के परम सुखदायक, ( शुष्मिणम् ) उत्तम बलों से युक्त, ( मित्रं ) मित्र के समान ( यातयत्-जनम् ) समस्त मनुयों को प्रेम से प्रयत्न, उद्योग कराने वाले प्रभु की (गृणीहि) स्तुति कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
अर्वन्तं न, मित्रं न
पदार्थ
[१] हे (विप्र) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले साधक ! तू (तम्) = उस (अर्वन्तं न) = [अव्] शत्रुओं का संहार करनेवाले के समान (सानसिम्) = सम्भजनीय (शुष्मिणम्) = शत्रु-शोषक बलवाले प्रभु को (गृणीहि) = स्तुत कर । प्रभु तेरे भी काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करेंगे और तुझे शक्ति प्राप्त करायेंगे। [२] उस प्रभु का तू स्तवन कर जो (मित्रं न) = एक पापों से बचानेवाले [प्रमीते: त्रायते] सखा के समान (यातयज्जनम्) = लोगों को उत्तम कर्मों में यत्नशील करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमारे वासनात्मक शत्रुओं का संहार करेंगे और हमें शक्ति देते हुए एक मित्र की तरह उत्तम कर्मों में प्रेरित करेंगे।
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