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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 20
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद॑ग्ने॒ कानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑ । ता जु॑षस्व यविष्ठ्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒ग्ने॒ । कानि॑ । कानि॑ । चि॒त् । आ । ते॒ । दारू॑णि । द॒ध्मसि॑ । ता । जु॒ष॒स्व॒ । य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदग्ने कानि कानि चिदा ते दारूणि दध्मसि । ता जुषस्व यविष्ठ्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अग्ने । कानि । कानि । चित् । आ । ते । दारूणि । दध्मसि । ता । जुषस्व । यविष्ठ्य ॥ ८.१०२.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 20
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, whatever little fuel we possess, whatever potential to destroy the evil and negativities of life, we offer in service. Whatever weaknesses we possess, we offer into your powers of fiery purification. O power most youthful, pray accept all that with pleasure.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या प्रकारे भौतिक अग्नी विदारणीय लाकडांना विदीर्ण करतो व त्यांचे भक्षण करतो, त्याच प्रकारे जर आम्ही निष्कपटीपणाने आपल्या सर्व विदारणीय दोषांना व दुर्भावनांना प्रभूला अर्पण केले तर आपल्या सर्व अवगुणांना त्या प्रभूच्या गुणांच्या प्रकाशात प्रत्यक्ष पाहिल्यास आमचे अवगुण स्वत: नष्ट होतात. आत्मनिरीक्षणाने आत्मशुद्धी होते. ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप अग्रणी! (कानि कानिचित्) किन्हीं-किन्हीं भी (दारूणि) चीरने व ध्वस्त करने योग्य अपने दुर्गुणों, दुर्भावनाओं को ते आपकी विनाशक शक्तियों में (दध्मसि) हम झोंकें, तब आप (ता) उनको, हे (यविष्ठ्य) बलवन्! (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक सेवन करो॥२०॥

    भावार्थ

    जिस भाँति भौतिक अग्नि विदारणीय काष्ठखण्डों को विदीर्ण कर उनका भक्षण कर जाता है; उसी प्रकार यदि हम निष्कपटता से अपने सारे विदारणीय दोषों तथा दुर्भावनाओं को प्रभु को अर्पित कर अपने सब अवगुणों को उसके गुणों के प्रकाश में प्रत्यक्ष देखें तो हमारे अवगुण स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं।॥२०॥

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    विषय

    सर्व प्रकाशक, परम सुखदायक प्रभु की स्तुति भक्ति और उपासना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ( यत् ) जो हम ( कानि कानिचित् ) कई २ प्रकार के ( दारूणि ) नाना काष्ठ ( आदध्मसि ) आधान करते हैं हे ( यविष्ठ्य ) सर्वशक्तिमन् ! तू ( ता ) उन २ को ( जुषस्व ) स्वीकार कर। जैसे अग्नि परशु से काटी हुई, छोटी २ समिधाओं को सुगमता से जला देता है उसी प्रकार विद्वान् आचार्य भी गर्भाधान आदि संस्कारों से संस्कृत आत्माओं को सहज ही ज्ञानवान् कर देता है, परन्तु यहां उसके पास सभी प्रकार के ( ‘दारु’ = धारु अर्थात् वत्स ) बालक आवेंगे उनको विद्वान् गुरु प्रेमपूर्वक स्वीकार कर विद्या से उज्ज्वल करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    दारूणि दानवृत्तियाँ

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यत्) = जो (कानि कानि चित्) = जिन किन्हीं भी छोटी-मोटी (दारूणि) = [दा=दाने] दानवृत्तियों को [दारु:- दाता] (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये (दध्यसि) = धारण करते हैं। इन सांसारिक सम्पत्तियों का त्याग व दान ही हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराता है। [२] हे (यविष्ठ्य) = हमारे से बुराइयों को पृथक् करनेवाले प्रभो ! (ता जुषस्व) = उन हमारे दानों को आप प्रीतिपूर्वक स्वीकार करिये। ये धनों के त्याग हमें आपका प्रिय बनायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सदा दानशील बनें। यही पवित्र बनने का व प्रभु को प्राप्त करने का मार्ग है।

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