ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 15
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प॒दं दे॒वस्य॑ मी॒ळ्हुषोऽना॑धृष्टाभिरू॒तिभि॑: । भ॒द्रा सूर्य॑ इवोप॒दृक् ॥
स्वर सहित पद पाठप॒दम् । दे॒वस्य॑ । मी॒ळ्हुषः॑ । अना॑धृष्टाभिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । भ॒द्रा । सूर्यः॑ऽइव । उ॒प॒ऽदृक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पदं देवस्य मीळ्हुषोऽनाधृष्टाभिरूतिभि: । भद्रा सूर्य इवोपदृक् ॥
स्वर रहित पद पाठपदम् । देवस्य । मीळ्हुषः । अनाधृष्टाभिः । ऊतिऽभिः । भद्रा । सूर्यःऽइव । उपऽदृक् ॥ ८.१०२.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The seat of the refulgent, generous and virile divinity, Agni, with undaunted powers of protection is auspicious and blissful, shining like an inner sun and the second inner eye with inward light and vision.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या अंत:करणात शांतीचा निवास असतो. निश्चितपणे ते सुखवर्षक प्रभूचे आवासस्थान बनते व नंतर ज्ञानस्वरूप प्रभू सूर्याप्रमाणे अशा साधकाला सर्व काही देतो, दर्शवितो - संपूर्ण ज्ञान देतो. माणूस आपल्या दर्शनशक्तीने किंवा डोळ्यांनीच पाहतो; परंतु सूर्य त्यात सहायक असतो. तो उपनेत्राचे कार्य करतो. अंत:करणात स्थित ज्ञानस्वरूप प्रभूची शक्ती ही जगाला दाखविण्यासाठी उपासकांची उपनेत्र बनते. ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मीळ्हुषः) सुखदायक (देवस्य) दिव्य प्रभु का (पदम्) यह शान्ति सदन (अनाधृष्टाभिः) अपराजेय (ऊतिभिः) रक्षा तथा सहायताओं सहित (सूर्य इव) सर्वद्रष्टा सूर्य के तुल्य (भद्रा) कल्याणकारी (उपदृक्) उपनेत्र होता है॥१५॥
भावार्थ
जिस अन्तःकरण में शान्ति होती है, निश्चय ही वह सुखवर्षक प्रभु का ही आवास स्थान बनता है और फिर ज्ञानस्वरूप प्रभु सूर्य की भाँति ऐसे साधक को सभी कुछ दिखला देते हैं--अन्तःकरण में स्थित ज्ञानस्वरूप प्रभु की शक्ति भी संसार को दिखाने के लिये उपासक हेतु उपनेत्र बनती है॥१५॥
विषय
सर्व प्रकाशक, परम सुखदायक प्रभु की स्तुति भक्ति और उपासना।
भावार्थ
( मीदुषः देवस्य ) सब सुखों के वर्षक, सब सुखों के दाता, सब ज्ञानों और लोकों के प्रकाशक प्रभु का ( पदं ) स्वरूप ( अनाधृतष्टाभिः ऊतिभिः ) किसी से न पराजित होने वाली रक्षाकारिणी सेनाओं से राजा के पद के समान, अधर्षणीय शक्तियों से युक्त है। वह स्वयं भी (सूर्यः इव) सूर्य के समान ( भद्रा ) कल्याणकारक ( उपदृक् ) समीप स्थित देखने वाली चक्षु के समान सर्व ज्ञान का प्रकाशक है। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
शत्रुओं से अधर्षण व अन्धकार विनाश
पदार्थ
[१] (मीढुषः) = सब सुखों का सेचन करनेवाले (देवस्य) = प्रकाशमय प्रभु का (पदम्) = स्थान (अनाधृष्टाभिः) = शत्रुओं से अधर्षणीय (ऊतिभिः) = रक्षणों से युक्त है। जब हम प्रभु का स्मरण करते हैं, तो कोई भी वासनात्मक शत्रु हमारा धर्षण नहीं कर पाता। [२] इस प्रभु की (उपदृक्) = उपदृष्टि (सूर्य: इव) = सूर्य के समान है, सूर्य की तरह सब अन्धकार को दूर करनेवाली है और (भद्रा) = कल्याणकर है। जब हम प्रभु के समीप उपस्थित होते हैं और प्रभु की कृपादृष्टि को प्राप्त करते हैं, तो हमारा सब अन्धकार विनष्ट हो जाता है और हम वास्तविक कल्याण को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु में स्थित होने का प्रयत्न करें, उस समय कोई भी शत्रु हमारा धर्षण न कर पायेगा। प्रभु की कृपादृष्टि हमारे सब अन्धकार को दूर कर देगी। उस समय हमारा कल्याण ही कल्याण होगा।
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