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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स न॒ ईळा॑नया स॒ह दे॒वाँ अ॑ग्ने दुव॒स्युवा॑ । चि॒किद्वि॑भान॒वा व॑ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । ईळा॑नया । स॒ह । दे॒वान् । अ॒ग्ने॒ । दु॒व॒स्युवा॑ । चि॒कित् । वि॒भा॒नो॒ इति॑ विऽभानो । आ । व॒ह॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स न ईळानया सह देवाँ अग्ने दुवस्युवा । चिकिद्विभानवा वह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । ईळानया । सह । देवान् । अग्ने । दुवस्युवा । चिकित् । विभानो इति विऽभानो । आ । वह ॥ ८.१०२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, brilliant lord of omniscience, along with this reverent and worshipful voice of prayer and divine knowledge, bring us brilliant and generous divinities of nature and humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सुशिक्षित व मधुरवाणीने प्रभूचे भजन - त्याचे गुणगान करण्याने प्रभूचे विविध गुण भक्ताच्या अंत:करणात स्फुरित होतात तेव्हाच ते सद्गुणांचे ग्राहक बनतात. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (चिकित्) ज्ञानी तथा (विभानो) विविधतम गुणों से प्रकाशित (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमात्मा! (सः) वह आप (अनया) इस प्रसिद्ध, (दुवस्युवा) आपका सेवन करना चाहती हुई (ईडा सह) सुशिक्षित वाणी से (नः) हमें (देवान्) सद्गुणों को (आ वह) प्रदान कराएं॥२॥

    भावार्थ

    सुशिक्षित तथा मधुरवाणी से प्रभु का गुणगान करने पर ही प्रभु के विविध गुण भक्त के अन्तःकरण में स्फुटित होते हैं और तभी हम सद्गुण धारक बनते हैं॥२॥

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    विषय

    अग्नि आचार्य का अग्नि परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (विभानो) विशेष कान्तियुक्त ! तू ( चिकित्) ज्ञानवान् है। ( नः ) हमें (अनया इडा) इस स्तुति वा उत्तम इच्छा, (दुवस्युवा) परिचर्या, सेवा-शुश्रूषा के ( सह ) साथ २ ( देवान् आ वह ) शुभ गुणों और दानी, ज्ञानी, उत्तम विद्वान् जनों को हमें प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    ईडानया- दुवस्युवा [वेदवाचा]

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (चिकित्) = आप सर्वज्ञ हैं। सो हे विभानो! विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमारे लिये (ईडानया) = स्तुति करती हुई, (दुवस्युवा) = परिचरणशील प्रभु की परिचर्या करनेवाली इस ज्ञान की वाणी के सह-साथ देवान् आवह सब दिव्य गुणों को प्राप्त कराइये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें उस ज्ञान की वाणी को प्राप्त करायें, जिसके द्वारा हम स्तवन व प्रभु परिचर्या को कर पायें। इस वेदवाणी को प्राप्त कराने के द्वारा हमें दिव्य गुणों से युक्त जीवनवाला करें।

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