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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 21
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यदत्त्यु॑प॒जिह्वि॑का॒ यद्व॒म्रो अ॑ति॒सर्प॑ति । सर्वं॒ तद॑स्तु ते घृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अत्ति॑ । उ॒प॒ऽजिह्वि॑का । यत् । व॒म्रः । अ॒ति॒ऽसर्प॑ति । सर्व॑म् । तत् । अ॒स्तु॒ । ते॒ । घृ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदत्त्युपजिह्विका यद्वम्रो अतिसर्पति । सर्वं तदस्तु ते घृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अत्ति । उपऽजिह्विका । यत् । वम्रः । अतिऽसर्पति । सर्वम् । तत् । अस्तु । ते । घृतम् ॥ ८.१०२.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whatever your flames of fire consume, whatever the fumes spread over, let all that be food for your dynamics of existence in evolution.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानव शरीरात, मनात व त्याद्वारे त्याच्या आत्म्यातही असे दोष, दुर्भाव प्रविष्ट होतात. जे कीड लागल्याप्रमाणे जर्जरित करतात. परमेश्वराला शरण जाण्यानेच त्यांच्या पासून बचाव होतो - निरंतर त्याच्या गुणांचे वर्णन करण्याने होतो. ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्-या) जो उपजिह्विका गन्ध से आकृष्ट हो भीतर प्रविष्ट होकर खाने वाला कीट खाता है तथा (यत्-या) जो (वम्रो) अपने भक्षणीय काष्ठ आदि को मिट्टी से ढक भीतर ही भीतर खाने वाली-दीमक (अतिसर्पति) आक्रमण करती है—(सर्वं तत्) वे सभी हिंसक दोष ते आप प्रभु के (घृतम्) घृत तुल्य सेवनीय बनें॥२१॥

    भावार्थ

    मानव शरीर में, मन में एवं इनके द्वारा उसके आत्मा में भी ऐसे दोष, दुर्भाव प्रविष्ट हो जाते हैं जो घुण के तुल्य इसे जर्जरित कर देते हैं--उनसे रक्षा प्रभु की शरण में जा उसके गुणों का निरन्तर गान करने से होती है॥२१॥

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    विषय

    सर्व प्रकाशक, परम सुखदायक प्रभु की स्तुति भक्ति और उपासना।

    भावार्थ

    ( यद् उपजिह्विका अत्ति ) जिस को दीमक खा जाती है और ( यद् वम्रः अति सर्पति ) जिसको बल्मीक लग जाता है वह काष्ठ भी अग्नि में पड़कर (घृतम् अस्तु) चमकने लगने लगता है उसी प्रकार हे विद्वन् ! ( यत् ) जिस बालक को (उपजिह्विका) जीभ की चञ्चल प्रकृति (अत्ति) लग जाती है और (यद् वम्रः) वमनशील होकर जो पढ़े ग्रन्थ भूल जाय, ऐसा विद्यार्थी ( अतिसर्पति ) बहुत अवारा घूमता है ( तत् सर्वं ) वह सब भी (ते) तेरे समीप आकर तेरे लिये ( घृतम् अस्तु ) घृत के समान ज्ञान दीप्ति का साधन हो जाता है। ( २ ) अथवा—हे प्रभो ! जो भी (उप-जिह्विका) वाणी प्राप्त कर लेती है, और जो ( वम्रः ) मन में आये ज्ञान को उगल देने वाला, अन्यों को उपदेष्टा जन तेरे पास आ जाता है वह सब तेरी ज्ञानदीप्ति वा स्नेह का पात्र हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    उपासना से विषयासक्ति का निराकरण

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जिस को (उपजिह्विका) = जीभ की चञ्चल प्रकृति-चटोरापन (अति) = खा जाता है। अथवा (यत्) = जो (वम्रः) = सब पढ़े-लिखे का वमन कर डालनेवाला होकर (अति र्स्पति) - ज्ञानदीप्त हो उठे। [२] प्रभु की उपासना सब विषयासक्तियों को दूर कर देती है। उपासना से जीभ का चटोरापन दूर हो जाता है और ज्ञान की रुचि उत्पन्न हो जाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें जीभ का चटोरापन खा जाता है। ज्ञान में अरुचिवाले होकर हम अवारा से हो जाते हैं। उपासना सब विषयों को दूर करके हमें ज्ञानदीप्त बना देती है।

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