ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 19
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
न॒हि मे॒ अस्त्यघ्न्या॒ न स्वधि॑ति॒र्वन॑न्वति । अथै॑ता॒दृग्भ॑रामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । मे॒ । अस्ति॑ । अघ्न्या॑ । न । स्वऽधि॑तिः । वन॑न्ऽवति । अथ॑ । ए॒ता॒दृक् । भ॒रा॒मि॒ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि मे अस्त्यघ्न्या न स्वधितिर्वनन्वति । अथैतादृग्भरामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । मे । अस्ति । अघ्न्या । न । स्वऽधितिः । वनन्ऽवति । अथ । एतादृक् । भरामि । ते ॥ ८.१०२.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
I have neither total immunity nor any essential power of my own, neither milk nor ghrta, nor even the fire fuel to offer. Hence I adore and worship you the way I can, offer you myself for the service I am worth.
मराठी (1)
भावार्थ
जी व्यक्ती ज्ञानाच्या प्रकाशाने पूर्णपणे प्रबुद्ध नसेल व आपल्या कर्मशक्तीला जागृत करू शकत नसेल तिने ही परमेश्वराची गुणवन्दनारूपी आहुती जशी व जितकी देऊ शकेल तितकी दिली पाहिजे. ॥१९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(हि मे) निश्चित ही मेरी (न) न तो (अघ्न्या) पापनष्ट करने की शक्ति, (अस्ति) विद्यमान है और (न) न ही (स्वधितिः) स्वयं को धारण करने की शक्ति ही (वनन्वति) अवस्थित है; (अथतो भी एतादृक्) इतना-अल्प सा भी (ते) आप के हेतु (भरामि) लाता हूँ॥१९॥
भावार्थ
जो मानव अभी ज्ञान के प्रकाश से पूर्णरूपेण प्रबुद्ध नहीं भी हुआ और जो अभी अपनी कर्मशक्ति को भी नहीं जगा पाया--उसे भी प्रभु की गुणवन्दनारूप हवि को--जैसी और जितनी भी वह दे सके देनी ही अपेक्षित है॥१९॥
भावार्थ
(मे अघ्न्या नहि अस्ति) मेरे पास में, कभी न मारने योग्य अघ्न्या गौ भी नहीं, और (न) नहीं ( स्वधितिः ) कुल्हाड़ी काष्ठ (वनन्वति) काटती है, तो भी ( एतादृग् ) ऐसा (ते) तेरे निमित्त ( भरामि ) लाया हूं। तू इसे ही स्वीकार कर। अर्थात् हे पूज्यवर ! न तो मेरे पास दुग्ध देने वाली यज्ञ करने को गौ है, न काष्ठों को काटने की कुल्हाड़ी है, मैं यज्ञ के स्थूल साधन उपस्थित नहीं कर सकता तो भी भगवन् ! भावनामय यज्ञ के साधन उपस्थित हैं यह चितिशक्ति अविनाशिनी होने से ‘अघ्न्या’ और यही ‘स्व’ आत्म रूप से धारण करने योग्य ‘स्वधिति’ है। यही तेरे प्रति उपहार रूप मैं देता हूं। इसी से तू प्रसन्न हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
न अघ्न्या, न स्वधिति:
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (मे) = मेरे पास (अघ्न्या) = यह अहन्तव्य वेद- धेनु (नहि अस्ति) = नहीं है। अर्थात् मैंने कोई बड़ा [वेद] ज्ञान नहीं प्राप्त किया है। (स्वधितिः) = आत्मधारण शक्ति (न वनन्वति) = मेरे दोषों का संहार नहीं करती। आत्मधारण के द्वारा मैं जीवन को निर्दोष भी नहीं बना पाया। न तो मैं ज्ञानी हूँ, और ना ही निर्दोष। [२] अथ अब (एतादृग्) = ऐसा अज्ञानी व सदोष होता हुआ भी (ते भरामि) = आपके लिये स्तुति वचनों का भरण करता हूँ। आपका स्तवन ही मुझे दीप्त ज्ञानाग्निवाला बनाकर दोषों को भस्म करने की क्षमता प्रदान करेगा।
भावार्थ
भावार्थ-एक अज्ञानी व आत्मधारणशक्ति से रहित पुरुष भी जब प्रभु का स्तवन करता है, तो प्रभु उसकी ज्ञानाग्नि को दीप्त करके उसमें उसके दोषों को भस्म कर देते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal