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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उप॑ त्वा जा॒मयो॒ गिरो॒ देदि॑शतीर्हवि॒ष्कृत॑: । वा॒योरनी॑के अस्थिरन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । त्वा॒ । जा॒मयः॑ । गिरः॑ । देदि॑शतीः । ह॒विः॒ऽकृतः॑ । वा॒योः । अनी॑के । अ॒स्थि॒र॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृत: । वायोरनीके अस्थिरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । त्वा । जामयः । गिरः । देदिशतीः । हविःऽकृतः । वायोः । अनीके । अस्थिरन् ॥ ८.१०२.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Moving and vibrant adorations of the enlightened celebrant reach you and stay by you in the movements of air in the middle regions.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञान अथवा प्रबोध याद्वारे पूर्ण वेदवाणीद्वारे परमेश्वराचे गुणगान करा व प्राणायामाद्वारे प्राणाची गती नियमित करून स्थिरतेने गुणगान करत राहा. ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे प्रभु! (हविष्कृतः) गुणगान या स्तुतिरूप हवि प्रदान करती हुई, (जामयः) ज्ञानयुक्त (गिरः) वेदवाणियाँ (त्वाम्) आपका (उप देदिशतीः) बारंबार वर्णन करती हुई (वायोः) प्राण के (अनीके) बल पर (अस्थिरन्) स्थिर होती हैं॥१३॥

    भावार्थ

    ज्ञान तथा प्रबोध से आपूर्ण वेदवाणियों से प्रभु का गुणगान करो और प्राणायाम द्वारा प्राण की गति को नियमित कर स्थिरता से गुणगान में रत रहो॥१३॥

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    विषय

    सर्व प्रकाशक, परम सुखदायक प्रभु की स्तुति भक्ति और उपासना।

    भावार्थ

    ( हविष्कृतः ) हवि, चरु आदि देने वाले यज्ञशील पुरुष की ( गिरः ) वाणियां ( त्वा देदिशती: ) तेरा वर्णन करती हुई ( जामयः ) बन्धु भगिनियों के समान ( वायोः अनीके ) वायु के समीप अग्निवत्, प्राणों के बल पर ( त्वा अस्थिरन् ) तुझको हृदय में स्थिर भाव से जागृत कर देती हैं। भगवत्-स्तुतियां ही परमेश्वर के भाव को हृदय में दृढ़ करती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रयोगो भार्गवोऽग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः। अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ। तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ३—५, ८, ९, १४, १५, २०—२२ निचृद् गायत्री। २, ६, १२, १३, १६ गायत्री। ७, ११, १७, १९ विराड् गायत्री। १०, १८ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    स्तुति से सद्गुणों व बल की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे अग्ने ! (हविष्कृतः) - इस यज्ञशील पुरुष की, इससे की जानेवाली (त्वा देदिशतः) = आपका संकेत करती हुई, आपके गुणों का प्रतिपादन करती हुई (गिरः) = स्तुतिवाणियाँ (उप) [ तिष्ठन्ते ] = आपके समीप उपस्थित होती हैं। ये स्तुतिवाणियाँ (जामयः) = सद्गुणों को जन्म देनेवाली होती हैं। इन स्तुतिवाणियों से स्तोता के हृदय में भी उस उस गुण को धारण करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है। [२] ये स्तुतिवाणियाँ स्तोता को (वायोः) = वायु के (अनीके) = बल में (अस्थिरन्) = स्थापित करती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु-स्तवन से स्तोता के जीवन में सद्गुणों का स्थापन होता है और ये स्तुतिवाणियाँ स्तोता को वायु के समान शक्ति सम्पन्न करती हैं।

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