ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 10
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - दम्पत्योराशिषः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ शर्म॒ पर्व॑तानां वृणी॒महे॑ न॒दीना॑म् । आ विष्णो॑: सचा॒भुव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । शर्म॑ । पर्व॑तानाम् । वृ॒णी॒महे॑ । न॒दीना॑म् । आ । विष्णोः॑ । स॒चा॒ऽभुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ शर्म पर्वतानां वृणीमहे नदीनाम् । आ विष्णो: सचाभुव: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । शर्म । पर्वतानाम् । वृणीमहे । नदीनाम् । आ । विष्णोः । सचाऽभुवः ॥ ८.३१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 39; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 39; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Living in the presence of Vishnu, all pervasive and protective Spirit divine and universal friend of all life, we pray for the Lord’s gift of the peace, protection, freedom and comfort of the rivers, mountains and the clouds.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक माणसाने ईश्वराच्या परम विभूतींना पाहावे, जाणावे व विचार करावा. पृथ्वीवर पर्वत कसा विस्तृत सुगठित व वृक्ष इत्यादींनी सुशोभित असतो. नदीचे जल जीवाला किती हितकारी आहे. नदीचे तट सदैव शीतल व तृण इत्यादींनी युक्त असतात. याच प्रकारे या पृथ्वीवर शेकडो पदार्थ द्रष्टव्य आहेत. त्यांना पाहून त्यांच्याकडून गुण ग्रहण केले पाहिजेत. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
पर्वतानाम् हिमालयादिपर्वतनिवासिनाम् यद्वा हिमालयादीनामेव । नदीनाञ्च नदीतटनिवासिनां यद्वा नदीनामेव । यत् शर्मसुखं फलादिभिर्जायते । तत् शर्म कल्याणम् वयमुपासकाः । आवृणीमहे याचामहे । पुनः । सचाभुवः सचा सर्वैः पदार्थैः सह भवतीति सचाभूः सहभूः सर्वव्यापी । तस्य विष्णोः सर्वगतस्य परमात्मनो निकटे । शर्म आवृणीमहे ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(पर्वतानाम्) हिमालय आदि पर्वतों के निवासियों का अथवा पर्वतों का जो (शर्म) सुख है और (नदीनाम्) नदीतटनिवासियों का या नदियों का जो सुख है, उस शर्म=कल्याण को (सचाभुवः) सबके साथ होनेवाले सर्वव्यापी (विष्णोः) परमात्मा के निकट (आ+वृणीमहे) माँगते हैं ॥१० ॥
भावार्थ
द्रष्टव्य−प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि वह ईश्वर की परम विभूतियों को देखे, जाने, विचारे, पृथिवी पर पर्वत कैसा विस्तृत सुगठित और वृक्षादिकों से सुशोभायमान प्रतीत होता है, नदी का जल कितना जीव-हितकारी है, नदी के तट सदा शीतल और घासादि से युक्त रहते हैं, इसी प्रकार इस पृथिवी पर शतशः पदार्थ द्रष्टव्य हैं । इन्हें देख इनसे गुण ग्रहण करना चाहिये, इति शम् ॥१० ॥
टिप्पणी
आ शर्म पर्वतानामोतापां वृणीमहे । द्यावाक्षामारे अस्मद्रपस्कृतम् ॥ ऋ० ८ । १८ । १६ ॥
विषय
पूषा परमेश्वर से प्रार्थना।
भावार्थ
हम लोग ( पर्वतानां ) पर्वतों, मेघों और पालन शक्ति से युक्त पुरुषों और ( नदीनाम् ) नदियों, वाणियों और समृद्ध प्रजाओं के ( शर्म ) सुख को ( आवृणीमहे ) प्राप्त करें। और हम ( सचाभुवः ) समवाय बनाकर रहने वाले ( विष्णोः ) व्यापक शक्ति वाले प्रभु वा स्वामी के ( शर्म ) सुख को भी प्राप्त करें। इत्येकोनत्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
पर्वतों, नदियों व प्रभु के आनन्द की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हम (पर्वतानाम्) = [ पर्व पूरणे] अपना पूरण करने में यत्नशील, न्यूनताओं को दूर करने में लगे हुए पुरुषों के (शर्म) = सुख को (आवृणीमहे) = वरते हैं। पर्वतों को जो सुख होता है, हम भी पर्वत बनते हुए उस सुख को प्राप्त करें। [२] (नदीनाम्) = प्रभु के स्तोताओं को जो आनन्द प्राप्त होता है [नद् शब्दे] हम उस आनन्द को वरते हैं। स्तवन करते हुए हम भी 'नदि' बनते हैं और इन नदियों [स्तोताओं] के आनन्द का अनुभव करते हैं। [३] (सचाभुवः) = सदा साथ रहनेवाले (विष्णोः) = उस सर्वव्यापक प्रभु के आनन्द को [ वणीमहे ] = वरते हैं। प्रभु को अपने हृदयों में स्थित रूप में अनुभव करते हुए (वाचाम्) = अगोचर [वर्णनातीत] आनन्द में मग्न होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-आदर्श पति-पत्नियों की यही कामना होती है कि हम अपने जीवन की न्यूनताओं को दूर करके पूरण के आनन्द का अनुभव करें। प्रभु-स्तवन करते हुए स्तोताओं को प्राप्त होनेवाले आनन्द के भागी बनें। और हृदयस्थ प्रभु का दर्शन करते हुए आनन्दमग्न हो जायें।
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