ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 15
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - दम्पत्योराशिषः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
म॒क्षू दे॒वव॑तो॒ रथ॒: शूरो॑ वा पृ॒त्सु कासु॑ चित् । दे॒वानां॒ य इन्मनो॒ यज॑मान॒ इय॑क्षत्य॒भीदय॑ज्वनो भुवत् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒क्षु । दे॒वऽव॑तः । रथः॑ । शूरः॑ । वा॒ । पृ॒त्ऽसु । कासु॑ । चि॒त् । दे॒वाना॑म् । यः । इत् । मनः॑ । यज॑मानः । इय॑क्षति । अ॒भि । इत् । अय॑ज्वनः । भु॒व॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मक्षू देववतो रथ: शूरो वा पृत्सु कासु चित् । देवानां य इन्मनो यजमान इयक्षत्यभीदयज्वनो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठमक्षु । देवऽवतः । रथः । शूरः । वा । पृत्ऽसु । कासु । चित् । देवानाम् । यः । इत् । मनः । यजमानः । इयक्षति । अभि । इत् । अयज्वनः । भुवत् ॥ ८.३१.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The chariot of the man of reverence to divinities moves fast forward, and the hero himself, who, with sincere mind and action, performs yajna and offers service to the divinities, goes far forward in the battles of life and surpasses the uncharitables who perform no yajna in the service of humanity and divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या उपासकांना जीवन संघर्षासाठी सुंदर शरीररूपी रथ मिळतो. ॥१५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
देववतः देवः परमात्मा आराध्यतया विद्यते यस्य स देवान् तस्य देवोपासकस्य पुरुषस्य । रथो रमणीयो वाहनो मक्षु शीघ्रं प्रसिद्धतरो जायते । वा अथवा । स स्वयम् कासुचित् पृत्सु पृतनासु सेनासु मध्ये । शूरो नायको भवति । ये यजमान उपासकः यश्च । देवानां दिव्यगुणसम्पन्नानाम् । मन इत् मन एव । इयक्षति यष्टुमिच्छति । सः । अयज्वनो नास्तिकान् जनान् । अभि+भुवत्+इत्=अभिभवत्येव ॥१५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(देववतः) देववान् अर्थात् एक परमात्मोपासक जन का (रथः) रमणीय वाहन (मक्षु) शीघ्र सर्वत्र सुप्रसिद्ध होता है (वा) अथवा वह स्वयम् (कासुचित्) किन्हीं (पृत्सु) सेनाओं में (शूरः) नायक होता है और (यः) जो (यजमानः) सदा परमात्मा के गुणों का यजन करनेवाला है और जो (देवानाम्) दिव्यगुणसम्पन्न पुरुषों के (मन+इत्) मन को ही (इयक्षति) अपने अनुकूल आचरणों से तथा ईश्वर की आज्ञा पर चलने से पूजता है अर्थात् आदर-सत्कार करता है, वह (अयज्वनः) न यज्ञ करनेवाले नास्तिकों का (अभि+भुवत्+इत्) अवश्य ही अभिभव करता है ॥१५ ॥
विषय
उत्तम प्रभु भक्त का प्रभाव।
भावार्थ
जिस प्रकार ( कासु चित् पृत्सु शूरः वा ) किन्हीं भी शत्रु सेनाओं में शूरवीर पुरुष निर्भय होकर प्रवेश कर जाता है उसी प्रकार ( देववतः रथः ) देव, सर्वप्रद, सर्वप्रकाशक प्रभु के भक्त जन का रथ के समान आनन्दप्रद उपदेश ( मक्षु ) शीघ्र ही ( पृत्सु ) मनुष्यों के बीच प्रवेश कर जाता है। ( यः ) जो ( यजमानः ) दानशील वा ईश्वर का उपासक, समर्थ पुरुष ( देवानां मनः इत् ) युद्धविजयी, वीरों और विद्वानों के चित्त को ( इयक्षति ) आदर पूर्वक सन्तुष्ट कर देता है वह ( अयज्वनः ) अदाता, कर न देने वाले वा अनीश्वरोपासकों को (अभि) परास्त करके ( भुवत् ) उनसे बढ़ जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
देववान् का गतिशील रथ
पदार्थ
[१] (देववतः) = उस देववाले प्रभु के उपासक का (रथः) = यह शरीर रथ (मक्षू) = शीघ्र गतिवाला होता है। यह उपासक (कासुचित् पृत्सु) = किन्हीं भी शत्रु सेनाओं में (वा) = निश्चय से (शूरः) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला होता है। [२] (यः यजमानः) = जो यज्ञशील पुरुष (इत्) = निश्चय से (देवानां मनः) -= देवों के मन को (इयक्षति) = अपने साथ संगत करने का प्रयत्न करता है, अर्थात् अपने मन को दिव्य बनाने की कोशिष करता है। यह (इत्) = निश्चय से (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुषों को (अभिभुवत्) = अभिभूत करनेवाला होता है। यज्ञशील पुरुष दिव्य मनवाला बनकर अयज्ञशीलों को परास्त कर पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासक का शरीर रथ गतिशील होता है। यह उपासक संग्रामों में शत्रुओं को शीर्ण करता है। यज्ञशील बनकर देववृत्ति का बनता है और अयज्ञशील पुरुषों को अभिभूत करनेवाला होता है।
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