ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 16
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - दम्पत्योराशिषः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
न य॑जमान रिष्यसि॒ न सु॑न्वान॒ न दे॑वयो । दे॒वानां॒ य इन्मनो॒ यज॑मान॒ इय॑क्षत्य॒भीदय॑ज्वनो भुवत् ॥
स्वर सहित पद पाठन । य॒ज॒मा॒न॒ । रि॒ष्य॒सि॒ । न । सु॒न्वा॒न॒ । न । दे॒व॒यो॒ इति॑ देवऽयो । दे॒वाना॑म् । यः । इत् । मनः॑ । यज॑मानः । इय॑क्षति । अ॒भि । इत् । अय॑ज्वनः । भु॒व॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न यजमान रिष्यसि न सुन्वान न देवयो । देवानां य इन्मनो यजमान इयक्षत्यभीदयज्वनो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठन । यजमान । रिष्यसि । न । सुन्वान । न । देवयो इति देवऽयो । देवानाम् । यः । इत् । मनः । यजमानः । इयक्षति । अभि । इत् । अयज्वनः । भुवत् ॥ ८.३१.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O man of charity and yajnic service to humanity and divinity, you will never suffer wrong or damage, O creator of soma dedicated to yajna to the divinities, you will never be hurt and never fail in your life’s mission. The yajamana who, with sincere mind and actions, performs yajna in service to the divinities of nature and humanity surpasses the uncharitables who never perform yajnic service in the field of creative fellowship and cooperation with others, human and divine.
मराठी (1)
भावार्थ
एका ईश्वराची पूजा करणाऱ्याची कधीही हानी होत नाही. ॥१६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे यजमान ! ईश्वरपूजकजन ! यदि त्वम् । परमात्मानमेव यजसि । तर्हि त्वं । न रिष्यसि विनष्टो न भवति । न तव नाशो भविष्यतीत्यर्थः । हे सुन्वान ! हे शुभकर्मसम्पादक ! यदि त्वम् । सदा शुभान्येव कर्म्माणि करोषि तदा त्वं न रिष्यसि न विनश्यसि । हे देवयो ! परमात्मानम् कामयते यः स देवयुः । तस्य सम्बोधने हे देवयो सदा देवकामिन् । यदि त्वम् । सर्वं विहाय केवलमेकमेव ईशम् कामयसे । तदा त्वं न रिष्यसि । यश्च यजमान उपासकः । यश्च देवानाम् । इत्यादि पूर्ववत् ॥१६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(यजमान) हे यजमान ईश्वरपूजक जन ! यदि आप सदा परमात्मा का ही यजन करते हैं, तो (न रिष्यसि) न कदापि विनष्ट होंगे । (सुन्वान) हे शुभकर्म सम्पादक जन ! यदि आप सदा शुभकर्म ही करते रहेंगे, तो (न+रिष्यसि) आपका विनाश कदापि न होगा तथा (देवयो) हे देवाभिलाषीजन ! यदि आप सदा एक देव की ही इच्छा करेंगे तो (न+रिष्यसि) आप कभी नष्ट न होंगे । इसी प्रकार (यः+यजमानः) पूर्ववत् ॥१६ ॥
विषय
उत्तम प्रभु भक्त का प्रभाव।
भावार्थ
हे ( यजमान ) दानशील ! हे यज्ञकर्त्ता ! हे ईश्वरोपासक ! तू कभी ( न रिष्यसि ) नष्ट। वा पीड़ित न होगा। हे ( सुन्वान ) ऐश्वर्यं उत्पन्न करने हारे ! हे पुत्र सन्तानादि के उत्पादक ! हे उपासना करने हारे ( न रिष्यसि ) तू कभी नाश को प्राप्त न हो। हे ( देवयो ) विद्वानों के इच्छुक ! हे ( देवयो ) शुभ गुणों के स्वामिन् ! तू कभी ( न रिष्यसि ) दुःखित, पीड़ित न हो। क्योंकि ( यः इत् देवानां मनः इयक्षति ) जो उत्तम पुरुषों के मन को प्रसन्न रखता है वह ( अयज्वनः अभि भुवत् ) अदानशील अनीश्वरोपासकों को पराजित करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
'यजमान-सुन्वान-देवयु'
पदार्थ
[१] हे (यजमान) = यज्ञशील पुरुष ! तू (न रिष्यसि) = हिंसित नहीं होता, तुझे वासनाएँ आक्रान्त नहीं कर पातीं। हे (सुन्वान) = अपने शरीर में सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष ! न तू हिंसित नहीं होता । हे (देवयो) = उस प्रकाशमय प्रभु को अपने साथ जोड़ने की कामनावाले पुरुष ! तू (न) = हिंसित नहीं होता। 'यजमान, सुन्वान व देवयु' बनकर हम वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचायें। [२] (यः) = जो भी (यजमानः) = यज्ञशील बनकर (देवानां मनः) = देवों के मन को (इत्) = निश्चय से (इयक्षति) = अपने साथ संगत करने की कामना करता है, वह (इत्) = निश्चय से (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुषों को (अभिभवत्) = अभिभूत करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनें, शरीर में सोम शक्ति का सम्पादन करें, उस देव [प्रभु] को प्राप्त करने की कामनावाले हों। ऐसा होने पर हम वासनारूप शत्रुओं से हिंसित न होंगे। यज्ञशील बनकर दिव्य मनवाले होते हुए हम अयज्ञशील पुरुषों का अभिभव करनेवाले हों। यज्ञशीलता हमें अयज्ञशीलों से ऊपर उठाये ।
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