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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 14
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - दम्पत्योराशिषः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒ग्निं व॑: पू॒र्व्यं गि॒रा दे॒वमी॑ळे॒ वसू॑नाम् । स॒प॒र्यन्त॑: पुरुप्रि॒यं मि॒त्रं न क्षे॑त्र॒साध॑सम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । वः॒ । पू॒र्व्य॑म् । गि॒रा । दे॒वम् । ई॒ळे॒ । वसू॑नाम् । स॒प॒र्यन्तः॑ । पु॒रु॒ऽप्रि॒यम् । मि॒त्रम् । न । क्षे॒त्र॒ऽसाध॑सम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं व: पूर्व्यं गिरा देवमीळे वसूनाम् । सपर्यन्त: पुरुप्रियं मित्रं न क्षेत्रसाधसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । वः । पूर्व्यम् । गिरा । देवम् । ईळे । वसूनाम् । सपर्यन्तः । पुरुऽप्रियम् । मित्रम् । न । क्षेत्रऽसाधसम् ॥ ८.३१.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With sincere word and thought I serve and adore Agni, eternal and gracious lord of wealth and prosperity. You too serve the same lord of universal love as a friend, the lord giver of fulfilment to us in our existential state of being.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परम प्रभू लोकलोकान्तराचा रचनाकार आहे व खऱ्या मित्राप्रमाणे प्रेम करतो. ॥१४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे विद्वांसः ! वो युष्माकं मध्ये यथाऽहम् । पूर्व्यं पुरातनम् । वसूनाम् धनानां देवमीशं धनेशमित्यर्थः (अग्निम्) महेशम् । गिरा=वाण्या । ईळे स्तौमि । तथा यूयमपि । मित्रं न मित्रमिव सर्वेषां मित्रभूतम् । अतः पुरुप्रियम् बहुप्रियं सर्वप्रियम् । तथा क्षेत्रसाधसम् । क्षियन्ति निवसन्ति जीवा यत्र तत्र क्षेत्रं जगद्रूपं भूमिः । तत्साधयितारम् सर्वोत्पादकमित्यर्थः । ईदृशं महेशम् सपर्यन्तः पूजयन्तः सन्तः । स्तुतः ॥१४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे विद्वज्जनो ! (वः) आप लोगों के मध्य जैसे मैं (पूर्व्यम्) पुरातन (वसूनाम्+देवम्) धनों के देव महाधनेश (अग्निम्) परमात्मा की (ईळे) स्तुति करता हूँ, वैसे ही आप लोग भी (मित्रम्+न) सबके मित्र अतएव (पुरुप्रियम्) बहुप्रिय=सर्वप्रिय (क्षेत्रसाधसम्) पृथिवी आदि लोक-लोकान्तर के उत्पादक परमात्मा को (सपर्यन्तः) पूजते हुए स्तुति कीजिये । अर्थात् कुपथ को त्याग सुपथ पर आइए ॥१४ ॥

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    विषय

    विद्वानों से प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे विद्वान् जनो ! मैं ( वः ) आप लोगों के बीच ( वसूनां देवम् ) मनुष्यों में सर्व-सुखदाता, ऐश्वर्यों के देने वाले, वा ब्रह्मचारियों में ज्ञानप्रद ज्ञानप्रकाशक को ( पूर्व्यं अग्निं ) पूर्ण ज्ञानवान् नायकवत् 'अग्नि' तुल्य तेजस्वी होने से 'अग्नि' नाम से ( ईषे ) उसकी स्तुति करता हूं। और उसी ( पुरु-प्रियं) सब के लिये, ( क्षेत्र-साधसम् ) निवास योग्य गृह वा देह के वशीकर्त्ता, आत्मवत् प्रिय ( मित्रं न ) मित्र के समान स्नेही प्रभु की ( सपर्यन्तः ) सेवा, परिचर्या और भजन करते उसी प्रभु की स्तुति किया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    'वशु प्रदाता' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु का (गिरा) = ज्ञान की वाणियों से (ईडे) = मैं स्तवन करता हूँ। (वः पूर्व्यम्) = जो तुम सबका पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम है, (वसूनां देवम्) = सब वसुओं का देनेवाला है। इस प्रभु का मैं स्तवन करता हूँ। [२] उस (पुरुप्रियम्) = पालक व पूरक [पुरु] तथा प्रीणित करनेवाले प्रभु को, जो (मित्रं न) = एक मित्र के समान (क्षेत्रसाधसम्) = इस हमारे शरीर रूप क्षेत्र को सिद्ध करनेवाले हैं। उस प्रभु को (सपर्यन्तः) = पूजते हुए हम वसुओं की याचना करते हैं। प्रभु ही हमारे निवास के लिये आवश्यक सब वसुओं के देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उस पूर्व्य अग्नि का स्तवन करें। वे अग्रेणी प्रभु ही सब वसुओं को देकर हमारे जीवनयज्ञ को सिद्ध करते हैं।

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