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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - दम्पती छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    या दम्प॑ती॒ सम॑नसा सुनु॒त आ च॒ धाव॑तः । देवा॑सो॒ नित्य॑या॒शिरा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । सऽम॑नसा । सु॒नु॒तः । आ । च॒ । धाव॑तः । देवा॑सः । नित्य॑या । आ॒ऽशिरा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या दम्पती समनसा सुनुत आ च धावतः । देवासो नित्ययाशिरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । दम्पती इति दम्ऽपती । सऽमनसा । सुनुतः । आ । च । धावतः । देवासः । नित्यया । आऽशिरा ॥ ८.३१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The couple who, with dedicated mind, perform yajna in unison, give in charity, and thus cleanse themselves and their soul, the divinities always bless them with sweets of milk and honey.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरोपासक व दान देणारी दम्पती सदैव सुखी राहतात. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे देवासः हे देवाः विद्वांसः ! या=यौ दम्पती=जायापती । समनसा=समनसौ शुभकर्मणि समानमनस्कौ भूत्वा । सुनुतः=कर्माणि कुरुतः । च पुनः । आधावतः आत्मानश्चैश्वरोपासनया शोधयतः । पुनः नित्यया पवित्रेण । आशिरा मिश्रितान्नम् । दरिद्रेभ्यो दत्तः । तौ सुखं प्राप्नुतः इत्युत्तरेण सम्बन्धः ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (देवासः) हे देवो ! हे विद्वानो ! (या) जो (दम्पती) स्त्री और पुरुष (समनसा) शुभकर्म में समानमनस्क होकर (सुनुतः) यज्ञ करते हैं (च) और (आ धावतः) ईश्वर की उपासना से अपने आत्मा को पवित्र करते हैं और (नित्यया) पवित्र (आशिरा) मिश्रित अन्न को दरिद्रों में बाँटते हैं, वे सदा सुख पाते हैं । इसका सम्बन्ध उत्तर ऋचा से है ॥५ ॥

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    विषय

    पति-पत्नी के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( देवासः ) विद्वान् लोगो ! ( या ) जो ( दम्पती ) पति पत्नी, ( स-मनसा ) समान चित्त होकर ( सुनुतः ) पुत्र उत्पन्न करते हैं और ( नित्यया ) नित्य ( आशिरा ) उपभोग करने योग्य दुग्ध आदि उत्तम द्रव्य से ( आ धावतः च ) उसे शुद्ध करते हैं और पालते हैं वे दोनों—

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    समनसा दम्पती

    पदार्थ

    [१] (या) = जो (दम्पती) = पति-पत्नी (समनसा) = समान मनवाले होते हैं, परस्पर एक विचार के होते हैं, वे (सुनुतः) = अपने शरीरों में सोम का अभिषव करते हैं, शक्ति का सम्पादन करते हैं, (च) = और (आधावतः) = जीवन को समन्तात् शुद्ध बना लेते हैं। ये भोगवृत्ति से ऊपर उठकर पवित्र जीवन बिताते हुए उत्तम मनवाले होते हैं। [२] इनके गृह में (नित्यया) = सदा होनेवाली (आशिरा) = शत्रुओं को शीर्ण करने की प्रक्रिया से (देवासः) = देववृत्ति के ही सन्तान होते हैं। वस्तुतः सन्तानों की उत्तमता के लिये आवश्यक है कि - [क] पति-पत्नी परस्पर समान मनवाले हों, [ख] ये अपने जीवन में सोम का सम्पादन करनेवाले हैं, [ग] जीवन को शुद्ध बनायें, यह शोधन प्रक्रिया नित्य चलनेवाली हो। ऐसा होने पर सन्तान देव वृत्ति के होते ही हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति-पत्नी समान मनवाले, सोम का रक्षण करनेवाले, जीवन को शुद्ध बनानेवाले हों, तो सन्तान उत्तम होते ही हैं।

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