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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - दम्पती छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रति॑ प्राश॒व्याँ॑ इतः स॒म्यञ्चा॑ ब॒र्हिरा॑शाते । न ता वाजे॑षु वायतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । प्रा॒श॒व्या॑न् । इ॒तः॒ । स॒म्यञ्चा॑ । ब॒र्हिः । आ॒शा॒ते॒ इति॑ । न । ता । वाजे॑षु । वा॒य॒तः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति प्राशव्याँ इतः सम्यञ्चा बर्हिराशाते । न ता वाजेषु वायतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । प्राशव्यान् । इतः । सम्यञ्चा । बर्हिः । आशाते इति । न । ता । वाजेषु । वायतः ॥ ८.३१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 39; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Together in love and respect they sit on the holy grass, perform yajna and receive divine gifts of delicious food and drink in plenty, and never do they fail in their battles of life for progress.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परस्पर मिळून राहणारी दम्पती अन्न इत्यादींच्या अभावाने त्रस्त होत नाहीत. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    पुनरपि दम्पती विशिनष्टि । यथा−यौ दम्पती । सम्यञ्चा=सम्यञ्चौ समीचीनतया संगतौ भूत्वा । बर्हिर्यज्ञम् । आशाते द्रव्यादिभिर्व्याप्नुतः कुरुत इत्यर्थः । ता=तौ सुप्रसिद्धौ दम्पती । प्राशव्यान् अश भोजने । प्राशनं प्राशुः प्राशौ साधून् हितान् वा प्राशव्यान् भोज्यान् पदार्थान् । प्रतीतः प्रतिगच्छतः प्राप्नुतः । पुनः तौ वाजेषु अन्नेषु न वायतः वयतिर्गत्यर्थः न गच्छतः । नान्यत्रान्नार्थं गच्छतः ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    पुनरपि दम्पती का वर्णन है । जो स्त्री और पुरुष (सम्यञ्चा) अच्छे प्रकार सङ्गत होकर (बर्हिः) यज्ञ (आशाते) करते हैं, (ता) वे (प्राशव्यान्) भोज्य पदार्थ (प्रतीतः) पाते हैं और (वाजेषु) अन्नों के लिये (न+वायतः) कहीं अन्यत्र नहीं जाते ॥६ ॥

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    विषय

    पति-पत्नी के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( प्राशव्यान् ) उत्तम खाने योग्य पदार्थों को ( प्रति इतः ) प्रतिदिन प्राप्त करें। वे ( सम्यञ्चौ ) अच्छी प्रकार जीवन निर्वाह करते हुए ( बर्हिः आशाते ) उत्तम धान्य का उपभोग करें और ( ता ) वे दोनों ( वाजेषु ) अन्नों, बलों और ऐश्वर्यो से ( न वायतः ) वञ्चित नहीं रहते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥

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    विषय

    उत्तम अन्न-उत्तम शक्ति

    पदार्थ

    [१] जो पति-पत्नी (सम्यञ्चा) = सम्यक् मिलकर गतिवाले होते हुए (बर्हिः) = यज्ञों को (आशाते) = व्याप्त करते हैं, अर्थात् सदा यज्ञशील बनते हैं, वे (प्राशव्यान्) = खाने के योग्य उत्तम अन्नों के (प्रति इतः) = प्रति जाते हैं, इन्हें उत्तम अन्न सदा प्राप्त रहते हैं। [२] इन उत्तम अन्नों के प्रयोग के द्वारा (ता) = वे पति-पत्नी (वाजेषु) = शक्तियों में (न वायतः) = क्षीण नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञशील पुरुषों को उत्तम अन्न प्राप्त होते हैं। इन उत्तम अन्नों से इनकी शक्ति कभी क्षीण नहीं होती।

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