ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 31/ मन्त्र 17
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - दम्पत्योराशिषः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नकि॒ष्टं कर्म॑णा नश॒न्न प्र यो॑ष॒न्न यो॑षति । दे॒वानां॒ य इन्मनो॒ यज॑मान॒ इय॑क्षत्य॒भीदय॑ज्वनो भुवत् ॥
स्वर सहित पद पाठनकिः॑ । तम् । कर्म॑णा । न॒श॒त् । न । प्र । यो॒ष॒त् । न । यो॒ष॒ति॒ । दे॒वाना॑म् । यः । इत् । मनः॑ । यज॑मानः । इय॑क्षति । अ॒भि । इत् । अय॑ज्वनः । भु॒व॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नकिष्टं कर्मणा नशन्न प्र योषन्न योषति । देवानां य इन्मनो यजमान इयक्षत्यभीदयज्वनो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठनकिः । तम् । कर्मणा । नशत् । न । प्र । योषत् । न । योषति । देवानाम् । यः । इत् । मनः । यजमानः । इयक्षति । अभि । इत् । अयज्वनः । भुवत् ॥ ८.३१.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 31; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 7
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 40; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The yajamana who with sincere mind and action, serves the divinities, no one can equal by action, much less destroy. Nor does he forsake his own path, nor can anyone else lead him astray. Indeed he surpasses all those who are uncharitable and perform no yajnic service to divinity and humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराचा आश्रय घेणारा, परन्तु कर्मठ व्यक्ती सर्व प्रकारच्या ऐश्वर्याने युक्त असतो. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
केवलं महेशमुपाश्रित्य तिष्ठति । तं सुप्रसिद्धं जनम् । नकिः नहि कश्चित् पुरुषः । कर्मणा । नशत् व्याप्नोति । नशतिर्व्याप्तिकर्मा । न तेन तुल्यः कश्चिद् भवतीत्यर्थः । पुनः । स जनः । न प्रयोषत् स्वस्थानात् प्रचलितो न भवति । किञ्च । न योषति । पुत्रादिभिर्धनादिभिश्च पृथक्कृतो न भवति । सदा ऐहिकसुखैः संयुक्तो भवतीत्यर्थः । यः देवानां पूर्ववत् ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
जो केवल परमात्मा के आश्रय पर रहता है, (तम्) उस सुप्रसिद्ध भक्त को (नकिः) कोई नहीं (कर्मणा) अपने कर्म से (नशत्) व्यापता है अर्थात् स्वकर्म के द्वारा कोई उसके तुल्य नहीं होता है और वह स्वयम् (न+प्र+योषत्) अपने स्थान से और भक्ति आदि से कभी प्रचलित नहीं होता है तथा (न+योषति) पुत्र-पौत्रादिकों से तथा विविध प्रकार के धनों से वह कदापि पृथक् नहीं होता । अर्थात् वह सदा ऐहिक सुखों से युक्त रहता है । (देवानाम्) इत्यादि पूर्ववत् ॥१७ ॥
विषय
यज्ञशील का वैभव, बल और सामर्थ्य।
भावार्थ
( यः इत् ) जो मनुष्य अवश्य ही निश्चयपूर्वक ( यजमानः देवानां मनः इयक्षति ) विद्वान् पुरुषों के ज्ञान की उपासना करता है वह ( अयज्वनः ) ज्ञान की उपासना न करने वालों को ( अभि भुवत् इत् ) अवश्य ही परास्त करता है। ( तं कर्मणा नकिः नशत् ) उस तक कर्म के सामर्थ्य से भी कोई नहीं पहुंचता, न उसे नष्ट कर सकता है, और ( न प्र योषत् ) उसे कोई अपने स्थान से डिगा नहीं सकता। और वह स्वयं ( न प्र योषति ) पुत्र धनादि से वियुक्त नहीं होता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ १—४ इज्यास्तवो यजमानप्रशंसा च। ५—९ दम्पती। १०—१८ दम्पत्योराशिषो देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ७, १२ गायत्री। २, ४, ६, ८ निचृद् गायत्री। ११, १३ विराड् गायत्री। १० पादनिचृद् गायत्री। ९ अनुष्टुप्। १४ विराडनुष्टुप्। १५—१७ विराट् पंक्तिः। १८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः॥
विषय
यज्ञशील की सर्वोत्कृष्ट स्थिति
पदार्थ
[१] (यः) = जो (यजमान:) = यज्ञशील बनकर (इत्) = निश्चय से देवाना (मनः) = देवों के मन को (इयक्षति) = अपने साथ संगत करने का प्रयत्न करता है, वह (इत्) = निश्चय से (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुषों को (अभिभवत्) = अभिभूत कर लेता है। [२] (तम्) = उस यजमान को (कर्मणा) = किन्हीं भी कर्मों के द्वारा (नकिः नशत्) = कोई व्याप्त [ प्राप्त] नहीं कर पाता। यज्ञशीलता ही सर्वोत्तम कर्म है। कोई भी इसको (न योषत्) = स्वस्थान से च्युत नहीं कर पाता। (योषति) = यह यजमान अपने पुत्रों व धनों में रहता हुआ भी कभी उस प्रभु से पृथक् नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञशील पुरुष दिव्य मन को प्राप्त करके सर्वोत्तम स्थिति में पहुँचता है। यह स्वस्थान से परिभ्रष्ट नहीं किया जाता। संसार में रहता हुआ भी प्रभु से पृथक् नहीं होता ।
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